जेलें भी बढ़ाती हैं तारीख-पे तारीख का मुद्दा

बीते कुछ सालों के दौरान दिल्ली की सर्वाधिक सुरक्षित कहे जाने वाली तिहाड़  जेल हो या गुजरात की साबरमती जेल, कुख्यात अपराधियों के लिए सुरक्षित ठिकाना और अपने कई विरोधियों की हत्या जेल में ही कर देने के लिए कुख्यात हो गई हैं। उत्तर प्रदेश में भी जेल के भीतर आग्नेय हथियार पहुंचे और लोग मारे गए। भले ही कागजों में दर्ज हो कि जेल किसी को प्रताड़ित करने के लिए नहीं, बल्कि सुधार घर होता है लेकिन भारतीय जेलों की स्थिति इतनी भयावह है कि यह बहुत कुछ अपराधी तैयार करने के स्थान बन गई है। भारतीय जेलें अत्याचार, मारपीट, पैसे लूटने, गरीब लोगों के बगैर माकूल न्यायिक मदद के लम्बे समय तक बंद रखने, रसूखदारों की आरामगाह व निरापद स्थली के तौर पर कुख्यात होकर रह रहें हैं। दूसरी तरफ देखें तो हमारी जेलें निर्धारित क्षमता से कई-कई गुणा ज्यादा बंदियों से ठुंसी पड़ी हैं। 
भारत सरकार के कुछ महीनों पहले के आंकड़े बताते हैं कि देश की 1382 जेलों में 573200 कैदी हैं जो कि क्षमता से 131 प्रतिशत अधिक हैं। जेलों में बंद लगभग 78 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं। इन पर अपराध साबित नहीं हुआ है। इनमें से 27879 कैदी तो जमानत हो जाने के बाद भी निरुद्ध हैं क्योंकि उनकी  आर्थिक-सामाजिक स्थिति जमानत की राशि जमा करने लायक नहीं है। उत्तर प्रदेश की जेलें नरक से बदतर कही जाती हैं। देश में सर्वाधिक बंदी यहीं हैं— सवा लाख के आसपास, जबकि क्षमता है 67700 की। उत्तर प्रदेश के ज़िला कारागार सबसे ज्यादा भरे हुए हैं और वहां कैदियों की संख्या साल 2018 के 183 प्रतिशत से बढ़ कर साल 2022 में 207.6 प्रतिशत हो गई। इसके बाद उत्तराखंड आता है, जहां ऑक्यूपेंसी रेट 182.4 प्रतिशत है। उसके बाद पश्चिम बंगाल (181 प्रतिशत), मेघालय (167.2 प्रतिशत), मध्य प्रदेश (163 प्रतिशत) व जम्मू-कश्मीर (159 प्रतिशत) का स्थान है।
गुजरात राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (जीएसएलएसए) ने 24 अक्तूबर, 2024 को जेल सुधारों पर अपनी रिपोर्ट जारी की है जो देश में अपने तरह की पहली पहल है। इसमें उजागर हुआ कि गुजरात की जेलों में क्षमता से 119 प्रतिशत अधिक कैदी हैं, जबकि गोधरा उप-जेल में क्षमता से अधिक 191 प्रतिशत कैदी बंद हैं। गुजरात की चार केंद्रीय जेलों में, जहां सबसे खतरनाक अपराधी बंद हैं, केवल सूरत की लाजपुर सेंट्रल जेल, में 94 प्रतिशत कैदी बंद हैं। राजकोट सेंट्रल जेल में 174 प्रतिशत, वडोदरा सेंट्रल जेल में 142 प्रतिशत  और अहमदाबाद की साबरमती सेंट्रल जेल में 129 प्रतिशत कैदी बंद हैं।
मजेदार बात यह है कि राज्य की खुली जेल खाली पड़ी हैं। चूंकि वहां कैदी को थोड़ा आराम मिल जाता है अत: वहां या तो रसूख वाले भेजे जाते हैं या फिर लेन-देन वाले। अमरेली ओपन जेल की क्षमता 18 प्रतिशत है, जूनागढ़ ओपन जेल की क्षमता 30 प्रतिशत है जबकि वडोदरा में दंतेश्वर ओपन जेल की क्षमता 33 प्रतिशत है और राजपीपला ज़िला जेल की क्षमता भी 33 प्रतिशत है।
मध्य प्रदेश के मंदसौर में अफीम की खेती होती है और वहां इससे जुड़े बंदी भीड़ बढ़ाते हैं। मंदसौर ज़िला जेल में कैदियों की क्षमता से ज्यादा बंधक बंद हैं। यहां एक बार में लगभग 370 अपराधियों को रखा जा सकता है, पर फिलहाल इस जेल में 640 से ज्यादा कैदी बंद किए गए हैं। इनमें से 395 से ज्यादा अपराधी एनडीपीएस एक्ट के तहत गिरफ्तार किए गए हैं।
एक बात और, सारे देश की जेलों में आदिवासी, दलित व अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमानों की संख्या अधिक है। देश में दलित, आदिवासी व मुसलमानों की कुल आबादी 40 प्रतिशत के आसपास है। वहीं जेल में उनकी संख्या आधे से अधिक यानि 67 प्रतिशत है। इस तरह के बंदियों की संख्या तमिलनाडू और गुजरात में सबसे ज्यादा है। जेल में बंद लोगों का 22 प्रतिशत दलितों का है, 11 प्रतिशत वन पुत्र हैं और लगभग 20 प्रतिशत बंदी मुसलमान हैं। 
अपराध व जेल के आंकड़ों के विश्लेषण के मायने यह कतई नहीं हैं कि अपराध या अपराधियों को जाति या समाज में बांटा जाए, लेकिन यह तो विचारणीय है कि हमारी न्याय व्यवस्था व जेल उन लोगों के लिए ही अनुदार क्यों हैं जो कि ऐसे वर्ग से आते हैं जिनका शोषण या उत्पीड़न सरल होता है। ऐसे लोग जो आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक तौर पर पिछड़े हैं, कानून के शिकंजे में ज्यादा फंसते हैं। जिन लोगों को निरुद्ध करना आसान होता है, जिनकी तरफ  से कोई पैरवी करने वाला नहीं होता, या जिस समाज में अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने की ताकत नहीं होती, वे कानून के सरल शिकार होते हैं। 
दिल्ली दंगों का केस बानगी है जिसमें अधिकांश लोगों की अन्य मामलों में जमानत हुई क्योंकि तथ्य कमजोर थे लेकिन पुलिस ने अधिक से अधिक समय तक जेल में रखने हेतु यूएपीए लगा दिया। हाईकोर्ट में भी जज बदलते रहे और तीन सालों से तारीखें ही बढ़ रही हैं। इस तरह जेल में बंद लोगों का धीरे-धीरे न्याय  व्यवस्था से भरोसा उठ जाता है। प्राय: हर रोज सुनने को आता है कि अमुक व्यक्ति आतंकवाद के आरोप में 10 या उससे अधिक साल जेल में रहा और उसे अदालत ने ‘बाइज्ज्त’ बरी कर दिया। इन फैसलों पर इस दिशा से कोई विचार करने वाला नहीं होता कि बीते 10 सालों में उस बंदी ने जो बदनामी, तंगहाली, मुफलिसी व शोषण सह लिया है, उसकी भरपाई किसी अदालत के फैसलों से नहीं हो सकती। जेल से निकलने वाले को समाज भी उपेक्षित नज़र से देखता है और ऐसे लोग आमतौर पर ना चाहते हुए भी उन लोगों की तरफ चले जाते हैं जो आदतन अपराधी होते है। 
जेल में विचाराधीन बंदियों की बढ़ती भीड़ एक गंभीर मामला है क्योंकि ऐसी कार्यवाहियां लोकतंत्र के सबसे मज़बूत स्तंभ ‘न्यायपालिका’ के प्रति आम लोगों में अविश्वास  की भावना भरती हैं। साथ में जेलों पर सरकार का खर्च भी बढ़ता है। चूंकि जेल में विचाराधीन बंदी से कोई काम नहीं करवाया जाता सो सारे दिन लाखों लोग खाली रह कर समय बिताते हैं और इनमें से ही कई के दिमाग में और अपराध करने के फितूर उपजते हैं। 
जेलों में बढ़ती भीड़ अदालतों पर भी बोझ है और हमारे देश की असल ताकत ‘मानव संसाधन’ का दुरुपयोग भी। जेल में लम्बे समय तक रहने वाले लोग वापिस आकर समाज में उपेक्षित रहते हैं, उन्हें रोज़गार देने में लोग झिझकते हैं। ऐसे में आज ज़रूरी है कि कम सज़ा या सामान्य प्रकरणों को अदालत से बाहर निबटाने, पंचायती राज में न्याय को शामिल करने, जेलों में बंद विचाराधीन लोगों से श्रम कार्य लेने आदि सुधार ज़रूरी हैं।

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