शिरोमणि अकाली दल का संकट अभी हल होने की सम्भावना नहीं

रईस अंसारी का एक शेयर है, 
हमें तो लड़ना है दुनिया में ज़ालिमों के खिलाफ,
कलम रहे कोई तीर-ओ-कमां रहे ना।
भाव हथियारबंद लड़ाई लड़ सकें या न, पर विचारों की लड़ाई तो हर हालत में जारी रहनी ही चाहिए। पंजाब से धक्का हर केन्द्र सरकार करती आ रही है। आम तौर पर ऐसे धक्कों का प्रभाव यह ही बनता रहा है कि यह धक्के पंजाबियों के साथ नहीं, बल्कि सिखों के साथ हो रहे हैं। हालांकि यह गलत प्रभाव है। बेशक पंजाब के साथ हुए धक्के के खिलाफ लड़ाई ज्यादातर सिखों ने लड़ी है पर धक्के तो समूह पंजाबियों के साथ ही होते रहे हैं। ठीक है कि सिखों के कुछ धार्मिक मामले एवं शिकायतें भी हैं पर मुख्य तौर पर लड़ाई पंजाब, पंजाबीयत और पंजाबी के साथ हो रहे धक्कों के विरुद्ध ही करनी पड़ती रही। बेशक केन्द्र पंजाब के हिन्दुओं को हिन्दी के नाम पर भरमाता रहा है कि वह जो भी कर रहा है, वह हिन्दुओं के हितों में है। हां, इसमें कभी-कभी मौके की सिख लीडरशिप भी दोषी रही है, पर सच यह है कि पंजाब और पंजाबी संबंधी लगे हर मोर्चे की मुख्य मांगें पंजाब की बेहतरी की मांगें ही रही हैं। यदि वह मनवा ली जाती तो उनका फायदा अकेले सिखों को नहीं, बल्कि समूह पंजाबियों को ही होता, पंजाबी चाहे वह हिन्दू, सिख, मुस्लिम, ईसाई या किसी भी और धर्म या सम्प्रदाय के साथ जुड़े हो सकते थे। ज़रा सोचो! यदि चंडीगढ़ पंजाब को मिलता है, यदि पंजाब के पानी की रायल्टी पर मालिकी पंजाब को मिलती है, यदि डेम पंजाब के अपने होते हैं, यदि कृषि अवशेष का मूल्य अधिक मिलता है, क्या फायदा अकेले सिखों को होता, कभी नहीं, सभी पंजाबियों को होता। एक मांग विशेष ध्यान देने योग्य है कि पंजाबी बोलते अकेले पंजाब में शामिल किये जाने, स्पष्ट तौर पर यह सभी इलाके हिन्दू बहु-संख्या वाले इलाके हैं, जो केन्द्र और हिन्दू लीडरशिप द्वारा भ्रमित किये जाने के कारण अपनी मातृ भाषा पंजाबी होने के बावजूद हिन्दी लिखा कर हरियाणा या हिमाचल में मिल गये। यदि यह इलाके वापिस पंजाब में शमिल होते हैं तो फायदा स्पष्ट रूप में पंजाब के हिन्दू वर्ग को ही होता है, सिखों को नहीं क्योंकि इससे हिन्दू वोट प्रतिशत भी बढ़ेगी। वैसे तो अब की स्थिति यह है कि पंजाब के बहुत सारे हिन्दू भी धीरे-धीरे इस स्थिति को समझने लगे हैं कि यदि पंजाब को कोई फायदा होता है तो उसका भी फायदा है। बात केन्द्र के पंजाब के साथ धक्के की कर रहे हैं। ताज़ा धक्का चंडीगढ़ के सलाहकार का पद खत्म करके मुख्य सचिव लगाये जाने का और 2 आई.ए.एस. अफसरों की संख्या बढ़ाए जाने का है। कोई कह सकता है कि, क्या फर्क पड़ता है, मुख्य सचिव ने भी तो वही काम करना है जो सलाहकार करता था, पद का नाम बदलने से क्या फर्क है। फर्क यह है कि केन्द्र सरकार हर कदम धीरे-धीरे चंडीगढ़ से पंजाब का अधिकार खत्म करके चंडीगढ़ को स्थाई रूप में दादरा नगर हवेली, दमन दियो और लक्षदीप की तरह पक्के तौर पर केन्द्र प्रशासित क्षेत्र बनाना चाहती है।
पहले जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के समय पंजाब के साथ धक्का होता रहा। पहले भाषा के आधार पर प्रदेश बनाने का असूल मानने के बावजूद पंजाबी भाषा के आधार पर प्रदेश बनाने से इन्कार और फिर 1966 में अधूरा पंजाबी प्रदेश और पंजाब पुनर्गठन एक्ट में धारा 78,79, और 80 शामिल करना, इस धक्के की इंतिहा थी। पर भाजपा के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जो विशेष तौर पर सिखों के साथ और आम तौर पर पंजाब के साथ भावनात्मक रिश्तों का स्नेह जताते नहीं थकते, की सरकार में भी चंडीगढ़ बारे पहला आदेश ही दिल जला देने वाला था। सन् 2016 में उन्होंने एक आई.ए.एस. अधिकारी के.जे. अलफौंस की नियुक्ति चंडीगढ़ के प्रशासक के तौर पर कर दी थी, जो स्पष्ट रूप में चंडीगढ़ और पंजाब के हर के खात्मे की मोहर ही थी, क्योंकि हमेशा पंजाब का राज्यपाल ही चंडीगढ़ का प्रशासक बनता है, पर उस समय ततकाली मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल पर पंजाब की बाकी सभी पार्टियों के विरोध ने यह लागू नहीं होने दिया। भाजपा सरकार ने चंडीगढ़ और पंजाब का हक खत्म करने के लिए ही चंडीगढ़के कर्मचारियों को यू.टी. के वेतन ग्रेड दे दिये। बेशक इसका फायदा कर्मचारियों को हुआ, पर वह अब क्यों चाहेंगे कि चंडीगढ़ फिर कभी पंजाब का हिस्सा बने? भाजपा ने कांग्रेस सरकार के समय माने जा रहे 60:40 के अनुपात को भी खत्म कर दिया। अब ज्यादा कर्मचारी यू.टी. केडर के ही चंडीगढ़ में लगाये जा रहे हैं, जो 90 प्रतिशत गैर-पंजाबी ही होते हैं। केन्द्र ने चंडीगढ़ में हरियाणा को 10 एकड़ जमीन विधानसभा के निर्माण के लिए देने हेतु सहमति प्रगट करके भी पंजाब के हक को ही कमजोर किया है। चाहे इसके बदले हरियाणा से 12 एकड़ साथ लगती ज़मीन के लिए जा रही है। चंडीगढ़ और पंजाब का दावा कमजोर करने के लिए सबसे बड़ा काम यह किया गया कि चंडीगढ़ की आबादी का ग्राफ लगातार बदला गया है। 1966 में 100 प्रतिशत पंजाबी बोलते गांवों को उजाड़ कर बनाया चंडीगढ़ अब शायद 10 या 12 प्रतिशत पंजाबी बोलने वाली आबादी वाला इलाका बना दिया गया है। 1971 की गनगणना में 59.33 प्रतिशत पंजाबी बोलते लोग चंडीगढ़ वासी बन चुके हैं। 2011 में 78 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते थे, अब जब नई जनगणना होगी तो शायद 88 से 90 प्रतिशत लोग अपनी भाषा हिन्दी या अंग्रेजी या कुछ और लिखवाएंगे। दुनिया के किसी भी क्षेत्र में कभी भी भाषा का तवाज़न इतनी तेज़ी से नहीं बदला। समझ में नहीं आता कि भाजपा उत्तरी भारत के समूचे क्षेत्र के साथ आम तौर पर और पंजाब के साथ खास तौर पर ऐसे व्यवहार क्यों कर रही है, जिससे कि उनमें बेगानगी का अहसास बढ़े। अब कृषि संबंधी तीन कानून वापिस लेकर फिर वही कानून असीधे रूप में लागू करने के लिए नया ‘कृषि मंडीकरण और राष्ट्रीय नीति फ्रेमवर्क’ का खरड़ा जारी करने से पहले ही संयुक्त किसान मोर्चे के दोनों गुटों से 5-5 प्रतिनिधि मंगवा कर बात कर लेती को क्या कम हो जाता? वैसे तो किसानों को भी बातचीत करने से भागना नहीं चाहिए। पर पंजाब की हालत तो राजिन्दर कृष्ण के इस शेयर जैसी ही है :
इस भरी दुनिया में कोई भी हमारा न हुआ।
गैर तो गैर हैं अपनों का भी सहारा न हुआ।
पंजाब क्या करे?
हालांकि सच यह है कि हम कुछ कहते, जाये पंजाब के ‘ना-खुदावां’ (किश्ती के मल्लाहां) ने करना तो कुछ भी नहीं पर हम तो चौकीदार की तरह रात भर ‘जागते रहो’ की आवाज़ देने से नहीं हट सकते। हमारे सामने है कि हरियाणा को चंडीगढ़ में 10 एकड़ ज़मीन अलग विधानसभा के लिए देने का ऐलान हो गया। किसी सरकार किसी पार्टी ने कुछ नहीं किया। पर इसमें भी अच्छी बात है, यदि पंजाब सरकार फौरी तौर पर अब भी जाग जाये तो पंजाब विधानसभा का सत्र बुलाकर इसके विरुद्ध प्रस्ताव पास करके और आल पार्टी बैठक बुलाकर एक सांझे प्रतिनिधिमंडल और पंजाब के सभी के सभी 20 सांसद इस बारे में प्रधानमंत्री को मिल कर पंजाब की बात करें। ऐसे इन सभी बीमारियों का एक ही ईलाज तो पंजाब पुनर्गठन एक्ट में शामिल धाराओं 78, 79 और 80 को रद्द करवाना है और इसके लिए पंजाब सरकार एक तरफ अदालती रास्ता अपनाए और दूसरी तरफ सर्ब पार्टी एक्शन कमेटी बनाकर शांतमयी आंदोलन करने का दबाव बनाना भी ज़रूरी है, पर काश पंजाबी नेता, खासकर 20 के 20 पंजाबी सांसद इन धाराओं के खिलाफ इकट्ठे होकर बैठ जाएं तो जन-प्रतिनिधियों की आवाज़ को अनसुना करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं होगा। इससे आशा करते हैं कि पंजाब सरकार और मुख्यमंत्री इसके लिए कोई पहलकदमी ज़रूर करेंगे। वास्तव में पंजाबियों का एक ही कसूर यह लगता है कि वह किसी की नहीं मानते।
उसे पसंद हैं गर्दन झुकाये हुए लोग,
मेरा कसूर कि मैं सर उठा कर चलता हूं।
अकाली दल का संकट और भविष्य
जिस प्रकार की ‘सरगोशियां’ सुनाई दे रही हैं और जिस तरह भरोसेयोग्य जानकारियां हमारे सामने आ रही है, उनसे यह स्पष्ट लगता है कि अकाली दल का संकट जो एक बार 2 दिसम्बर, 2024 को श्री अकाल तख्त साहिब में जत्थेदार श्री अकाल तख्त साहिब के नेतृत्व में सुनाये गये फैसले के बाद सुलझ गया लगता था, और गहरा होता जा रहा है। हालांकि सुखबीर सिंह बादल और उनके नेतृत्व वाले अकाली दल और उनके विरोधी अकाली दल सुधार लहर वाले सभी नेताओं ने श्री अकाल तख्त साहिब द्वारा लगाया वेतन पूरी लगन से निभाया है। पर राजनीतिक हितों के मामले में और तकनीकी कारणों के आधार पर जो व्यवहार सामने आ रहा है और जो कुछ उसके बाद हुआ है, उसके बाद अकाली दल का संकट अभी भी सुलझता नज़र नहीं आ रहा। हमारी जानकारी के अनुसार कल 10 जनवरी को होने वाली अकाली दल की वर्किंग कमेटी की बैठक में अकाली दल के प्रधान सुखबीर सिंह बादल का इस्तीफा तो स्वीकार करने पर पूरी सहमति बना चुकी है पर बाकी नेताओं के इस्तीफे स्वीकार करने के मामले पर अभी तक दुविधा है। अकाली नेता डा. दलजीत सिंह चीमा के नेतृत्व में अकाली प्रतिनिधिमंडल की 8 जनवरी को जत्थेदार श्री अकाल तख्त साहिब ज्ञानी रघुबीर सिंह के साथ मुलाकात के बाद डा. दलजीत सिंह ने स्पष्ट रूप में कहा था कि जत्थेदार साहिब उनके पार्टी के मान्यता के खतरे संबंधी कानूनी नुक्ता निगाह के साथ सहमत हैं। इससे यह प्रभाव बनता है कि अकाली दल 2 दिसम्बर को अकाल तख्त साहिब द्वारा बनाई 7 सदस्यीय कमेटी के स्थान पर ‘नयी मैंबरशिप की मुहिम’ अपनी वर्किंग कमेटी की देख-रेख में ही चलाएगा, पर स्पष्ट तौर पर इसका पूरा पता शिरोमणि अकाली दल की आज 10 जनवरी को वर्किंग कमेटी की हो रही बैठक के बाद ही लगेगा। दूसरी तरफ तख्त दमदमा सहिब के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह अपने विरुद्ध जांच कमेटी बिठाने और समूचे पंथक घटनाक्रम से काफी आहत बताए जाते हैं। वह इस संबंधी क्या फैसला लेते हैं, इसकी जानकारी भी आने वाले दिनों में ही मिल सकेगी। परन्तु यह स्पष्ट है कि अकाली दल का संकट अभी जल्दी सुलझते नज़र नहीं आ रहा। अकाली दल की हालत तो मंजर भोपाली के इस शेयर की तरह ही लगती है कि मौजूदा हालात जख्मों भरा है और भविष्य का डर दिमाग पर छाया हुआ है कि कल को पता नहीं क्या होना है।
हाल खूं में डूबा है कल न जाने क्या होगा,
अब ये खौफ-ए-मुस्तकबिल ‘ज़ेहन’ ज़ेहन तारी है।
अर्थ : मुस्तकबिल-भविष्य, ज़ेहन-मन, बुद्धि, दिमाग और तारी : छाया हुआ।
-मो. 92168-60000  

#शिरोमणि अकाली दल का संकट अभी हल होने की सम्भावना नहीं