प्राकृतिक सोन्दर्य का देश है नार्वे

पिछले दिनों भारत-नार्वे सांस्कृतिक मंच के निमंत्रण पर नार्वे जाने का अवसर मिला। आधी रात के सूर्य वाले इस देश के बारे में मेरी प्रथम जिज्ञासा थी कि इसका नाम नार्वे कैसे पड़ा। यह देश उत्तरी धु्रव के बहुत निकट है इसलिए जानकारी मिली कि राजधानी ओस्लो का समय भारतीय समय से 3:30 घंटे पीछे है।
ओस्लो हवाई अड्डे पर कदम रखने से पूर्व ही वहां की हरियाली का अहसास हो चुका था। बाहर निकलते ही सड़कों के दोनों ओर हरे-भरे देवदार, चीड़ के ऊंचे वृक्ष पहाड़ों पर भी अपनी जड़े जमाये थे। हल्की सर्दी, स्वच्छ वातावरण। भारत के बिल्कुल उल्ट सड़कों पर दायीं ओर चलने का नियम। तेज़ दौड़ते वाहन अपनी-अपनी लेन में चल रहे थे। कहीं जाम, अव्यवस्था, रेड लाइट पर लम्बे समय रूकने का अनुभव तो पूरे दो सप्ताह में एक बार भी नहीं हुआ। और हां, इस दौरान हमें पुलिस वर्दी भी कहीं देखने तक को भी नहीं मिली। सुरक्षा के नाम पर तामझाम हवाई अड्डे पर भी नहीं दिखाई दिये।
वहां सभी मकान लकड़ी के थे। छतें ढलवां क्योंकि यहां पूरा साल बर्फ अथवा बारिश होती है। इन दिनों वहां गर्मी का मौसम है, इसलिए वहां के सीढ़ीदार खेतों में गेहूं की फसल खड़ी थी। हमें बताया गया कि वहां एकमात्र फसल यही है लेकिन शीशे के अंदर कृषि के प्रचलन से अब पूरे साल फल-सब्जियां उपजने लगी हैं। वहां बाज़ारों में अधिकांश वस्तुएं दुनिया के विभिन्न देशों से थी। हर वस्तु, यहाँ तक कि फल और सब्जियों पर भी उत्पादक देश और कम्पनी का लेबल पैकिंग की तारीख के साथ अवश्य होता है। 
जहां हमें रूकना था- वाइतवेट, पहाड़ीदार सड़कें, चारों ओर हरियाली, रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियां। सचमुच बहुत आकर्षक था। वहां पहुंचते ही गर्मागर्म समोसों संग बिल्कुल भारतीय अंदाज में चाय प्रस्तुत की गई। हमारा भोजन भी पूरी तरह भारतीय अंदाज में रहा-दाल, चावल, रोटी, सब्जी। वहां भी घीया, खीरा, गोभी, मटर, कटहल, आलू, बहुत बड़े आकार के प्याज सहज मिल जाते हैं। दूध, दही कागज की बोतलों में मिलता है। दुकानें मॉल्स जैसी। ट्राली में स्वयं सामान रखो, काउंटर पर कम्प्यूटर से जांच और बिल भुगतान। भारत की तरह प्लास्टिक की थैली मुफ्त नहीं। उसका भी मूल्य चुकाना पड़ता है।
उस स्थान के पास ही मार्किट व मैट्रो स्टेशन थे। मजेदारी यह कि थिम्बाने (मैट्रो नार्विजन भाषा में), ट्राम, बस, नाव सभी के लिए एक ही टिकट पर्याप्त है। वहां किराया दूरी के अनुसार नहीं, समय के अनुसार वसूला जाता है। हमने 200 क्रॉनर में 24 घंटे की टिकट ली। टिकट पास की दुकानों तथा स्वचालित मशीनों से ली जा सकती है। स्टेशन में प्रवेश से पूर्व टिकट को पंच करने पर तिथि और समय अंकित हो जाता है लेकिन वहां किसी प्रकार की जांच का कोई प्रावधान नहीं दिखाई दिया। दिल्ली मैट्रो की तरह टोकन से दरवाजे खुलने का दृश्य भी नहीं था। इससे यह स्पष्ट हुआ कि वहां के लोग अपेक्षाकृत नियमों का पालन करते हैं और बिना किराया चुकाये यात्र नहीं करते। वहां मैट्रो में आप साइकिल सहित यात्रा भी कर सकते हैं ताकि मैट्रो के बाद गंतव्य तक साइकिल से पहुंच सकें। 
हमारी मैट्रो की तरह वहां मैट्रो के सभी दरवाजे हर स्टेशन पर अपने-आप नहीं खुलते। अंदर अथवा बाहर वाले यात्री ज़रूरत पड़ने पर बटन दबाकर दरवाजा खोल सकते हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि नार्वे में लगभग सारा साल काफी सर्दी पड़ती है। अकारण दरवाजे खुलने से सर्दी अन्दर बैठे यात्रियों को प्रभावित कर सकती है। हां, दरवाजे स्वत: बंद ज़रूर होते हैं। भारत की तरह दरवाजे बंद होते समय आवाज आती है, ‘द रिनेल्दो किस्म’ (दरवाजे बंद हो रहे हैं) सेन्ट्रल स्टेशन हमारे राजीव चौक की तरह अंडरग्राऊंड है लेकिन वहां एक ही प्लेटफार्म पर अनेक स्थानों के लिए थिम्बाने (मैट्रो) मिलती है। 
सेंट्रल स्टेशन से बाहर निकलने पर कुछ दूर पर नेशनल थियेटर, सिटी हाल (जैसे दिल्ली में टाऊन हाल), उसके पिछवाड़े श्रम का महत्व बताती कामगारों की मूर्तियां, देखते हुए हम नार्वेजीय पार्लियामेंट पहुंचे। साधारण सुरक्षा व्यवस्था भी देखने को नहीं मिली। कुछ दूरी पर शानदार पार्क, रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियां में शान्ति के प्रतीक कबूतरों के झुंड, तथा अनेक अन्य प्रकार के पक्षी स्वच्छन्द भाव से अठखेलियां कर रहे थे।
वहां भी रिक्शों का प्रचलन है लेकिन भारतीय रिक्शों से बिल्कुल अलग, सुविधाजनक रिक्शा। वहां कालेज छात्र फुर्सत में 500 क्रॉनर में रिक्शा किराये पर लेकर 2000 क्र ॉनर कमाने में किसी प्रकार से अपमान नहीं मानते। वे ऐसा हर रोज नहीं, साप्ताहिक/पाक्षिक ही करते हैं। भिक्षा मांगने का अंदाज भी अलग। कहीं सितार तो कहीं पियानो बजाना, कहीं वीर योद्धा के वेश में बिल्कुल मूर्ति बने खड़े रहे रहने वाले आते-जाते लोगों का ध्यान आकर्षित करते हैं। उनके सामने रखे किसी पात्र में कुछ लोग धन डाल कर आगे बढ़ जाते हैं। 
अगले दिन हमने ओस्लो के कुछ विभिन्न महत्त्वपूर्ण स्थानों को देखा, जिनमें इबसन म्यूजियम, विजिलेंड पार्क, नोबल पीस इंस्टीच्यूट समुद्र तट, नौका विहार प्रमुख है। विजिलेंड पार्क दुनिया के सबसे खूबसूरत पार्कों में से एक हैं जहां प्राकृतिक अवस्था वाली अनेक मूर्तियां हैं। कुछ लोग इनकी तुलना खजुराहो से करते हैं लेकिन मेरी दृष्टि में दोनों के दर्शन में अंतर है। 
नार्वे में भारतीय होटले बम्बई दरबार रेस्टोरेंट में दाल मक्खनी, पालक पनीर, चटनी, नान सहित हर व्यंजन उपलब्ध हैं तो कलात्मक कृतियां भी आपका बरबस ध्यान आकर्षित करती है। एक दिन आंध्रप्रदेश वालों द्वारा आयोजित स्वागत समारोह में जाना हुआ। तेलगू भाषी डॉ. बालशौ रेड्डी ने उन्हें उनकी भाषा और संस्कृति से जोड़ दिया। यहां पूर्णत: आंध्रप्रदेश के अंदाज के 20 से अधिक व्यंजन परोसे गये तो भारत से दूर भारत का अहसास हुआ।हमें भारतीय मूल के अनेक लोगों से मिलने का अवसर मिला। वहां की परंपराओं का प्रभाव उनके भारतीय परिवारों पर भी दिखाई देने लगा है जैसे स्थानीय लोगों से वैवाहिक संबंधों का दौर शुरु हो चुका है।
लोक परम्परा की झलक यहां के विशिष्ट आयोजनों में देखी जा सकती है। लोक नर्तकों के समूह को लइकारिंग कहा जाता है। अधिकांशत: लोग लोक-नृत्य स्वत:-सुखाय ही करते हैं। सोंग डान्स (नृत्य नाटिका) व मुद्रिका नृत्य (रिंग डान्स) की परंपरा बीच में समाप्त होकर पुन प्रारंभ हुई है। लोक नृत्य में प्राय: जोड़ों तथा कई-कई पुरूष एवं महिलाएं भी करते हैं। वाद्य यंत्रों में चिकाड़ा/सारंगी की तरह का हार्डेन्जर फिडिल नाम देशी वाद्य यंत्र बहुतायत में प्रयोग होता है। ‘बुनाद’ नार्वे की राष्ट्रीय पोशाक है जिसे लोग स्वतंत्रता दिवस, तीज-त्यौहार या शादी समारोह में पहनते हैं। 
चूंकि नार्वे की धरती एक प्राकृतिक मनोरंजन केन्द्र है इसलिए मनोरंजन को मानसिक विलासिता नहीं बल्कि मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक मानते हुए नार्वे के लोग मनोरंजन प्रिय हैं। मछली पकड़ना, शिकार करना, रटिंग, माउन्टेनियरिंग, स्काईंग आदि के शौकीन हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने तरह-तरह के खेल, नाटक, संगीत, फिल्म आदि के विकास पर भी ध्यान दिया है। ऐसे धनी और गतिशील सांस्कृतिक समुदाय नार्वे में कई महत्त्वपूर्ण कलाकार व साहित्यकार हैं जो इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान पा चुके हैं और अब नई पीढ़ी के प्रेरणा स्रोत हैं। (उर्वशी)

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