विश्वकर्मा पूजा जब हर औज़ार बनता है देवता
दीपावली के बाद कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को जब सम्पूर्ण भारतवर्ष में गोवर्धन पूजा की सुगंध चारों ओर फैलती है, उसी दिन सृजन, श्रम और तकनीकी कौशल के प्रतीक भगवान विश्वकर्मा की पूजा भी पूरे उत्साह से की जाती है। यह दिन केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि मानव सभ्यता के विकास, निर्माण व परिश्रम की संस्कृति का उत्सव है। ‘विश्वकर्मा’ वह दिव्य नाम है, जो ब्रह्मांड के हर शिल्प, हर वास्तु और हर तकनीकी चमत्कार के मूल में प्रतिष्ठित हैं। वह केवल पुराणों के पात्र नहीं बल्कि मानवीय प्रतिभा और सृजनशीलता के आदि स्रोत हैं। यही कारण है कि दीपावली के बाद जब लोग अपने औजारों, मशीनों, वाहनों, कलमों और उपकरणों की पूजा करते हैं तो वह केवल पूजा नहीं बल्कि कार्य के प्रति सम्मान, निपुणता और निष्ठा का प्रतीक होता है।
भारतीय संस्कृति में कार्य को पूजा और श्रम को साधना का दर्जा दिया गया है। विश्वकर्मा पूजा इस दर्शन का सजीव प्रतिरूप है। इस दिन कारखानों से लेकर कलम-कार्यालयों तक, उद्योगों से लेकर निर्माण स्थलों तक, सब जगह एक ही भाव मुखर होता है ‘कर्म ही पूजा है’। मज़दूर अपने औज़ारों को सजाते हैं, अभियंता अपनी मशीनों को अलंकृत करते हैं और व्यापारी अपने उपकरणों का पूजन करते हुए यह मानते हैं कि इन साधनों में भी ईश्वर का ही अंश है। विश्वकर्मा पूजा का यह अद्भुत रूप आधुनिक युग में भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना युगों पहले था। सनातन परंपरा में भगवान विश्वकर्मा को ब्रह्मांड का प्रथम शिल्पकार, वास्तुकला का जनक और तकनीकी ज्ञान का आद्य स्रोत कहा गया है। वे सृष्टि के उस आयाम के निर्माता हैं, जो भौतिक रूप में ब्रह्मा की रचना को आकार देता है। कहा जाता है कि जब सृष्टि का आरंभ हुआ, तब ब्रह्मा ने ब्रह्मांड की संकल्पना की किन्तु उस संकल्पना को मूर्त्त रूप देने का कार्य विश्वकर्मा ने किया। इसी कारण उन्हें ब्रह्मांडीय स्थापत्य का प्रथम अभियंता माना गया। धर्मग्रंथों में वर्णन है कि विश्वकर्मा ने देवताओं के दिव्य लोकों, राजाओं के भव्य नगरों और असंख्य अद्भुत निर्माणों की सृष्टि की, जो आज भी मानव कल्पना की सीमा से परे हैं।
विश्वकर्मा के जन्म से जुड़ी पुराणों में अनेक कथाएं हैं। एक कथा के अनुसार, जब भगवान विष्णु क्षीरसागर में शयन कर रहे थे, तब उनके नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए। ब्रह्मा से धर्म की उत्पत्ति हुई और धर्म से वास्तु नामक पुत्र। वास्तु के पुत्र के रूप में विश्वकर्मा का जन्म हुआ, जिन्होंने अपनी अद्भुत शिल्पकला से समस्त सृष्टि को सजाया। एक अन्य कथा में उन्हें शिव का अंशावतार माना गया है। वहीं ‘महाभारत’ और ‘विष्णु पुराण’ में उनका उल्लेख वसु प्रभास और भुवना के पुत्र के रूप में मिलता है, जिनका संबंध महर्षि अंगिरा से था। धर्मग्रंथों में उनके पांच स्वरूपों (विराट विश्वकर्मा, धर्मवंशी, अंगिरावंशी, सुधन्वा व भृंगुवंशी विश्वकर्मा) का उल्लेख मिलता है। इन सभी रूपों के माध्यम से वह केवल शिल्प के देवता नहीं बल्कि विज्ञान, वास्तु और तकनीक के प्रथम शिक्षागुरु बन जाते हैं। उन्होंने देवताओं के लिए असंख्य अद्भुत अस्त्र-शस्त्र और यंत्रों का निर्माण किया, जिनमें प्रत्येक में असाधारण वैज्ञानिकता और सौंदर्य समाहित था। इनमें सबसे प्रमुख था देवराज इंद्र का ‘वज्र’, जिसे विश्वकर्मा ने महर्षि दधीचि की हड्डियों से बनाया था। यह वज्र केवल एक शस्त्र नहीं था बल्कि उस दिव्य तकनीक का प्रतीक था, जो धर्म की रक्षा हेतु विज्ञान और भौतिक कौशल का प्रयोग करती है।
विश्वकर्मा ने देवताओं के दिव्य नगरों का भी निर्माण किया। सत्ययुग में उन्होंने स्वर्गलोक का सृजन किया, त्रेतायुग में रावण की स्वर्ण लंका की रचना की, द्वापरयुग में भगवान श्रीकृष्ण की द्वारका बसाई और कलियुग के आरंभ में हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया। इन नगरों की स्थापत्य भव्यता और तकनीकी अद्भुतता आज भी पौराणिक स्मृति में अमर है। रावण की सोने की लंका, जिसमें स्वर्ण दीवारें, क्रिस्टल जैसे महल और संगीत-प्रसारित गलियारे थे, स्थापत्य कौशल का अनुपम उदाहरण थी। वहीं द्वारका की समुद्र-तटीय योजना, उसकी नगरीय संरचना व जल-प्रबंधन प्रणाली आधुनिक तकनीकी सोच का पूर्वाभास देती है। विश्वकर्मा की कारीगरी केवल नगरों या भवनों तक सीमित नहीं थी। उनके द्वारा निर्मित अस्त्र-शस्त्र (शिव का त्रिशूल, विष्णु का सुदर्शन चक्र, यमराज का कालदंड, दानवीर कर्ण के स्वर्ण कुंडल और पुष्पक विमान) इन सभी में विज्ञान और कला का सम्मिलिन झलकता है। इन कृतियों में तकनीक, सौंदर्य, संतुलन और दिव्यता का अद्भुत संगम दिखाई देता है। यही कारण है कि उन्हें ‘देव शिल्पी’ कहा गया यानी वह शिल्पकार, जिसने ब्रह्मंडीय कला को दिव्यता का रूप दिया।