मातृभाषा के लिए माताओं का फर्ज
मैं हुन तक बदली ना,
भावें भुल्ली जावे ज़माना।
मैं पंजाबी बोली हां,
किते भुल न जाईं जवाना।
हम कहीं भी चले जाएं चाहे अपने प्रदेश अपने देश या अपने देश के बाहर विदेशी धरती पर। विदेश में एक ऐसी चीज़ जो हमें, हमारे मन को खुशी और सुकून देती है, वह है हमारी मातृभाषा। जब हम किसी अपने प्रदेश, अपने भाईचारे के लोगों को देखते हैं, हमारे अंदर एक संतुष्टि की लहर दौड़ती है, मन को खुशी मिलती है, यह मन की खुशी इसलिए आनी स्वाभाविक है क्योंकि उनके साथ हमारी भाषा की सांझ होती है, वह अपने भाईचारे और अपने प्रदेश के लोग होते हैं। यहां इस बात का ज़िक्र करना इसलिए ज़रूरी था क्योंकि हम बात करने लगे हैं हमारी शान, हमारा मान, हमारी मातृभाषा की। मातृभाषा के ज़रिये ही हम इस तरह विदेशी धरती पर अपने लोगों के साथ बातचीत कर पाते हैं।
यूनैस्को (UNESCO) द्वारा 1999 में मातृभाषा दिवस मनाने के शुरुआत की गई, जिसको बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा UN General Assembly ने अपना लिया। इसका मकसद था कि जितनी भी भाषाएं या बोलियां है, हर भाषा के विकास व तरक्की के लिए संतुष्टिजनक लक्ष्य अपनाए जाएं।
हर वर्ष यह दिन मनाए जाने का मकसद था कि भाषाई वैज्ञानिक, सांस्कृतिक विभिन्नता को बढ़ावा दिया जाए, लोगों में जागरूकता पैदा की जाए।
आज हम मातृभाषा दिवस की 25वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, पर क्या हम अपनी भाषा के साथ 25 प्रतिशत भी न्याय कर सके हैं?
आज दुनिया में 8000 के करीब भाषाएं हैं। जब एक बच्चा छोटा होता है, घर से बाहर निकलता है, स्कूल जाता है, स्कूल में अलग-अलग घरों से आए बच्चों के साथ वार्तालाप करता है, सभी में अपना अस्तित्व बनाने के लिए जिस भाषा में सभी बच्चे वार्तालाप करते हैं, वह भी उसी का सहारा लेता है और यह भाषा अनजाने में उसकी शख्सियत का हिस्सा बन जाती है। जहां बच्चे को लगता है कि घर में ही मातृभाषा का ज़ोर है, पर घर से बाहर मातृभाषा से दूसरी भाषाओं को महत्व दिया जा सकता है और यह सोच मन में बैठ जाती है कि शायद घर से बाहर मातृभाषा में बात करनी ज़रूरी नहीं। यहीं इस मोड़ पर एक नारी, एक मां एक बहुत बड़ा रोल अदा कर सकती है, पर यह रोल अदा करने के लिए हमें स्वयं मातृभाषा के प्रति सुह्दय होना बहुत ज़रूरी है, तभी हम अपने बच्चों, अपने आस-पास के लोगों के मन में जागरूकता पैदा कर सकेंगे। आजकल मां-बाप अपने बच्चों के साथ मातृभाषा में बात न करने को प्राथमिकता देते हैं। समाज में मातृभाषा में बात करने के समय हीनभावना महसूस करते हैं, यह प्रथा आगे पीढ़ियों तक चलते-चलते बहुत खतरनाक हो गई है, क्योंकि हम स्वयं ही मातृभाषा का खात्मा करने में योगदान डाल रहे हैं।
मातृभाषा ही एक ऐसा ज़रिया है, जिससे हम अपने सभ्याचार, पैतृक रिवायतें को सुरक्षित कर सकेंगे।
सभ्याचारक ज्ञान और भाषा बच्चों तक, अगली पीढ़ियों तक, पहुंचाने में कहानियां, कविताएं, साखियों के ज़रिए हमारी दादी और नानी ने जो रोल अदा किया है। वह आज की नारी को भी करना पड़ेगा।
सर्व-व्यापी कथाकथित आधुनिकता के बुरे प्रभाव किसी हद तक मातृभाषा के लिए खतरे की घंटी बन गए हैं।
मातृभाषा का मान-महत्व घटने से शिक्षा पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि अकादमिक रूप में कारगुजारी नीचे गिरती है। वास्तव में मातृभाषा में प्रफुल्लित होने के साथ अपने अस्तित्व पर गर्व होना शख्सियत में घर कर लेता है। अपने आपको दुनिया के सर्व-व्यापी ज्ञान के सामने प्रस्तुति देने में हिस्सा लेने में एक हिम्मत और आत्म-विश्वास हमेशा रहता है।
मातृभाषा का हमारे अस्तित्व को आकार देने में बहुत बड़ा रोल है, हमारे पूर्वजों की सोच, उनके सभ्याचार को जीवित रखने की कोशिशों को हम व्यर्थ नहीं जाने दे सकते। पंजाब में जन्मे, पले हर इंसान को यह समझना बहुत ज़रूरी है कि हमारी मातृभाषा पंजाबी का धर्मों के साथ कोई लेना-देना नहीं है। मातृभाषा सभी धर्मों की एक सांझी भाषा है, जो सबसे ऊपर है।
समय बहुत बदल गया है, हमारी युवा पीढ़ी डिजीटल युग की दौड़ में लगी हुई है, अक्सर बाहर पढ़ने और नौकरियों के मौके ढूंढते हैं, इस पूरी आधुनिक हवा में हमारी युवा पीढ़ी मातृभाषा के कारण ही ज़मीन के साथ जुड़ी रहेगी। मातृभाषा के कारण ही अपने सभ्याचार और उसके गुणों की कद्र करेगी और अपने से आगे यह प्रथा जारी रखेगी। इस कारण नई पीढ़ी को मातृभाषा के साथ जोड़े रखना हम सबका कर्त्तव्य बनता है।
प्रत्येक प्रदेश अपने नागरिकों को मातृभाषा के प्रति जागरूक करने के लिए, संस्थाओं और कार्यक्रमों का सहारा लेते हैं, स्कूलों-कालेजों में जागरूकता, मुहिम चलाई जाती है, ताकि लोग मातृभाषा के महत्व को समझ सकें।
मातृभाषा की दिन प्रतिदिन होती बेकद्री का रूझान ज्यादातर उत्तर भारतीयों में बढ़ता जा रहा है, दक्षिण की ओर के लोग सिर्फ और सिर्फ अपनी मातृभाषा को महत्व देते हैं, अपने बच्चों में ज़ोर-शोर से अपने सभ्याचार और भाषा का प्यार पैदा करते हैं और हर किसी को उस पर गर्व होता है।
आओ, हम सभी ‘मां’ शब्द के साथ न्याय करें, मातृभाषा दिवस की 25वीं वर्षगांठ पर उसको बनता सम्मान दें और यह काम एक नारी से अच्छा कोई और नहीं कर सकता। हम या हमारी आने वाली पीढ़ी जितना चाहे आधुनिक हो जाए पर उसको अपने सभ्याचारक गुणों की जड़ों के साथ जोड़ कर ज़रूर रखें और इस मकसद के लिए मातृभाषा को उसका बनता मान-सम्मान देना सुनिश्चित बनाएं।
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