नई विश्व व्यवस्था की रूपरेखा तैयार कर रहे हैं ट्रम्प !
वाशिंगटन और मास्को के बीच जो उच्चस्तरीय वार्ता 18 फरवरी, 2025 को रियाद (सऊदी अरब) में आरंभ हुई, वह अजीब भी है और महत्वपूर्ण भी। इस वार्ता में अमरीका व रूस के राष्ट्रपतियों के सलाहकार व विदेश मंत्री शामिल थे। हालांकि दोनों सुपर पॉवर अपने राजनयिक व व्यापारिक संबंधों पर भी बातचीत कर रही हैं, लेकिन यह वार्ता अजीब इसलिए है कि इसका फोकस यूक्रेन के भाग्य और यूरोप की सुरक्षा के भविष्य पर है लेकिन इसके बावजूद इसमें न यूक्रेन मौजूद है और न ही यूरोपीय संघ या उसका कोई सदस्य देश। यह पूर्णत: आमने सामने की द्विपक्षीय वार्ता है। वार्ता महत्वपूर्ण इस लिहाज़ से है कि इसके संभावित नतीजे नई विश्व व्यवस्था गठित होने का संकेत दे रहे हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमरीका व सोवियत संघ ने यूरोप को बिना उसकी मर्जी के आपस में बांट लिया था। अब यही नज़रिया ट्रम्प का अमरीका व पुतिन का रूस अपनाने का प्रयास कर रहे हैं। चीन को इसकी परवाह नहीं है। भारत के लिए यह बुरी खबर तो नहीं है, लेकिन थोड़ा चिंता का विषय अवश्य है।
ज़ाहिर है कि इस घटनाक्रम ने यूरोप के देशों को चिंताजनक स्थिति में ला दिया है कि ट्रांस-अटलांटिक घालमेल और यूक्रेन पर समझौता उस समय होगा, जब वह वार्ता मेज़ पर न होंगे। इनमें से अनेक देशों का मानना है कि यह रुसी भेड़िये के सामने उन्हें फेंकना होगा। इसलिए यूरोपीय देश भी अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए हाथ पैर मारने की कोशिश में लगे हुए हैं। यूक्रेन की प्रथम उप-प्रधानमंत्री यूलिया अनातोलिवना स्विरीड़ेंको के नेतृत्व में यूक्रेन के एक दल ने 16 फरवरी 2025 को रियाद में सऊदी अधिकारियों से मुलाकात की ताकि राष्ट्रपति जेलेंस्की की यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया जा सके। यह यात्रा 19 फरवरी 2025 के लिए निर्धारित की गई थी, लेकिन अमरीका-रूस की 18 फरवरी 2025 की वार्ता के बाद इसे 10 मार्च 2025 तक के लिए स्थगित कर दिया गया है। जेलेंस्की का कहना है, ‘कीव ऐसे किसी भी समझौते को मान्यता नहीं देगा जो उसके बिना किया गया हो।’ जेलेंस्की फिलहाल तुर्की व यूएई के दौरे पर हैं। जेलेंस्की व उनकी सरकार के अधिकारी रियाद में अमरीका व रूस वार्ताकारों के करीब तो हैं, लेकिन रियाद में नहीं हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने यूक्रेन युद्ध में नया पेच पंसा दिया है, जिससे कम से कम अब हर कोई नये विचारों पर चर्चा कर रहा है। बिना कीव के वाशिंगटन व मास्को के संभावित समझौते को मानने से इंकार करके जेलेंस्की ने यूक्रेन को मिलने वाली अमरीकी मदद पर संदेह के काले बादल डाल दिए हैं। रूस ने अब कहा है कि यूक्रेन यूरोपीय संघ का सदस्य तो बन सकता है, लेकिन नाटो का नहीं। अमरीका स्पष्ट तौर पर रूस के साथ अपने रिश्ते नये सिरे से स्थापित करने का प्रयास कर रहा है और उसे चीन-उत्तर कोरिया-ईरान कैंप से खींचकर अपने पाले में करना चाहता है। वाशिंगटन की कोशिश यह भी है विश्व व्यापार की मुद्रा डॉलर ही बनी रहे, यानी वह नहीं चाहता कि ब्रिक्स (जिसमें अब दस सदस्य हैं) डॉलर से अलग मुद्रा में व्यापार करे। चूंकि रूस ब्रिक्स का महत्वपूर्ण सदस्य और उसके बिना मुद्रा परिवर्तन जैसा कोई अहम निर्णय नहीं लिया जा सकता, इसलिए अनुमान यह है कि यूक्रेन पर रुसी दावे स्वीकार करके अमरीका रूस से यह मनवाना चाहता है कि ब्रिक्स डॉलर में ही व्यापार करे।
मास्को को बीजिंग से अलग करने की योजना अपने आप में खराब नहीं है। इन दोनों का गठजोड़ नई दिल्ली के लिए भी सिरदर्द है। लेकिन क्या यह योजना काम करेगी? चीन व उत्तर कोरिया ने युद्ध के दौरान रूस में बहुत अधिक निवेश किया है। लेकिन यह भी हो सकता है कि रूस बचाव-व्यवस्था के लिए खुला रहे। गौरतलब है कि रूस ने फिलीपींस को (और अब संभवत: वियतनाम को भी) भारतीय ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल बेचना ब्लॉक नहीं किया है, जबकि दोनों फिलीपींस व वियतनाम का चीन से समुद्री विवाद है। फिलहाल कोई स्वीकार्य समाधान नहीं है। लेकिन हल की तलाश में कोशिशें अवश्य हैं, जो डरा भी रही हैं। यूक्रेन से संबंधित ट्रम्प व पुतिन के प्रयास निश्चितरूप से बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर तो नहीं जा रहे हैं। वह अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आवश्यक विविधता को भी प्रदर्शित नहीं कर रहे हैं। इसके विपरीत संकेत यह मिल रहे हैं कि याल्टा व्यवस्था के सिद्धांतों की ओर लौटा जा रहा है, जो दूसरे विश्व युद्ध के अंतिम महीनों में स्थापित हुए थे। याल्टा वार्ता ठीक 80 वर्ष पहले फरवरी 1945 में हुई थी, जिसमें ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ विचार ही प्रबल था कि बाहरी शक्तियों ने यूरोप को आपस में विभाजित कर लिया था। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान तेहरान, याल्टा व पोट्सडम में हुई वार्ताओं में वाशिंगटन ने मास्को को उससे भी अधिक यूरोपीय संपत्ति दे दी थी जो दूसरे विश्व युद्ध से पहले जर्मनी ने रूस को दी थी।
सोवियत संघ को 1939 में नाज़ी जर्मनी से पोलैंड व बाल्टिक राज्यों सहित कुछ पूर्वी-केंद्रीय यूरोपीय देशों का नियंत्रण मिला था और 1945 में अमरीका ने पूरा पूर्वी यूरोप सोवियत साम्राज्यवाद के लिए छोड़ दिया था। हालांकि यह सब सोवियत संघ के 1991 में टूटने से बदल गया, लेकिन अब ट्रम्प प्रशासन कम से कम लफ्फाज़ी में याल्टा टाइप के समझौते पर लौटता हुआ प्रतीत हो रहा है, जिसमें छोटे राज्यों की आवाज़ को दबाया जा रहा है। यूक्रेन का भविष्य तय करने के लिए उसे ही वार्ता में शामिल नहीं किया गया है। भारत सहित ग्लोबल साउथ के देशों को अमरीका की इस विदेश नीति के ट्रेंड से सतर्क हो जाना चाहिए, जो यह संकेत दे रही है कि ट्रम्प किस तरह का व्यवहार उन देशों के साथ करेंगे, जिन्हें वह कम महत्वपूर्ण समझते हैं या जो सीधे तौर पर अमरीकी हितों की सेवा नहीं करते। यह बहु-ध्रुवीकरण नहीं है- ट्रम्प ब्रिक्स के प्रति अपनी नफरत को पहले ही ज़ाहिर कर चुके हैं। इस नई उभरती विश्व व्यवस्था में जिसके पास लाठी (यानी ताकत) है, बस उसी का ही महत्व है। इसलिए चीन इस व्यवस्था से प्रसन्न होगा। यूक्रेन पर वाशिंगटन और मास्को के बीच द्विपक्षीय वार्ता अमरीका के 1994 के आश्वासन के उल्लंघन में हो रही है जो उसने कीव को दिया था, अब बदनाम हो चुके बुडापेस्ट मेमोरेंडम में, जिसके तहत यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियारों का त्याग कर दिया था। अगर आज यूक्रेन के पास अपने परमाणु हथियार होते तो क्या रूस उस पर हमला कर सकता था? शायद नहीं। यह द्विपक्षीय वार्ता 2008 के बुखारेस्ट नाटो घोषणा के भी विरोध में है, जिसमें राष्ट्रपति बुश ने यूक्रेन व जॉर्जिया के लिए नाटो की सदस्यता की संभावना व्यक्त की थी। मास्को चाहता है कि कीव से जो नाटो सदस्यता का वायदा किया गया था, उसे निरस्त कर दिया जाये। अब देखना यह है कि ट्रम्प अमरीका की पुरानी नीतियों को बदलने के लिए किस हद तक जायेंगे?
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