क्या बहुजन समाज पार्टी अपना अस्तित्व कायम रख सकेगी ?
पता नहीं, पंजाब की राजनीति में लोगों को याद है भी या नहीं कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का जन्म और पहला ज़ोरदार चुनावी प्रयोग पंजाब की धरती पर ही हुआ था। कांशी राम स्वयं पंजाब के ही थे। आतंकवाद के दौर में बसपा के उम्मीदवारों ने 1992 में आतंकियों द्वारा हिंसा की धमकी के बीच मज़हबी सिखों (दलित सिखों) के वोट प्राप्त करके 9 विधानसभा सीटों और एक लोकसभा सीट जीत कर दिखाई थी। इस राजनीतिक सफलता की कीमत कई बसपा समर्थकों ने अपनी जान देकर चुकाई थी। अगर बसपा, अकली दल (काबुल), माकपा, भाकपा और आईपीएफ जैसी राजनीतिक शक्तियां न होतीं, तो वह चुनाव बाकी सभी अकाली धड़ों के बायकाट के कारण मज़ाक और जनता से कटा हुआ बन जाता। चूंकि उस चुनाव में कांग्रेस ने अपने पक्ष में बीएसएफ और सीआरपीएफ की तैनाती का इस्तेमाल किया था, इसलिए कांशी राम ने चुनाव को ‘बीएसएफ बनाम बीएसपी’ करार दिया था। बहरहाल, कांशी राम के बाद मायावती के नेतृत्व में बसपा धीरे-धीरे पंजाब की ज़मीन से गायब होती गई। वह मुख्य तौर पर उत्तर प्रदेश की पार्टी बन कर रह गई। आज स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश में भी वह अपनी ज़िंदगी के सबसे बड़े संकट का सामना कर रही है।
23 मार्च को कांशी राम का जन्म दिन है। अगर कांशी राम आज होते तो क्या उन्हें अपने द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी की बुरी हालत पर अ़फसोस और अचरज नहीं होता? कांशी राम ने बसपा की सर्वोच्च नेता मायावती को घोषित रूप से अपना उत्तराधिकारी बनाया था। वे शुरुआती दौर में अपने गुरु की अपेक्षाओं पर खरी उतरीं, और 2007 में उनकी पार्टी ने अकेले दम पर उत्तर प्रदेश में बहुमत प्राप्त किया। बसपा राष्ट्रीय पार्टी भी बनी। भारत के राजनीतिक इतिहास में दलित जनाधार वाली किसी पार्टी को इतनी बड़ी सफलता कभी नहीं मिली थी। इस चुनाव की अनूठी बात यह थी कि उत्तर प्रदेश की ऊंची जातियों के एक हिस्से ने भी दलित नेतृत्व पर भरोसा किया था। दूसरे प्रदेशों के दलित मतदाता भी बसपा के इस प्रयोग को उम्मीद के साथ देखने लगे थे। लेकिन, 2007 के बाद से बसपा का ग्ऱाफ गिरने लगा। इस समय हालत यह है कि उत्तर प्रदेश में उसके पास केवल 12.88 प्रतिशत वोट हैं और केवल उसके टिकट पर एक विधायक चुनाव जीत सका है। राष्ट्रीय स्तर पर उसके खाते में केवल 2.06 प्रतिशत वोट केवल एक सांसद बचा है। ये आंकड़े उस समय और भी चिंताजनक लगने लगते हैं जब पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में दलितों में अत्यधिक बहुसंख्यक जाटव मतदाताओं का एक उल्लेखनीय हिस्सा बसपा छोड़ कर कहीं कांग्रेस, कहीं भाजपा और कहीं समाजवादी पार्टी को वोट देता हुआ दिखने लगा है। ऐसा होने की पहले कल्पना भी नहीं की जाती थी। यानी, जाटव मतदाताओं की बसपा के प्रति निष्ठा ़खत्म होने से उसका आधार ‘खिस्कने’ की शुरुआत हो चुकी है।
बसपा की नाकामी का यह सिलसिला उस समय और भी निराशाजनक लगने लगता है जब मायावती लोकसभा चुनाव से अभी तक बहुत कम अरसे में अपने भतीजे आकाश आनंद को एक-एक बार अपने उत्तराधिकारी पद और पार्टी नैशनल कोआर्डिनेटर के पद से हटाते हुए दिखती हैं। यही नहीं, उन्होंने अपने भाई और आकाश के पिता को भी पहले नैशनल कोआर्डिनटेर बनाया, और फिर हटा दिया। उन्होंने स्वयं आकाश की पूर्व नौकरशाह और अपने नज़दीकी अशोक सिद्धार्थ (जिन्हें उन्होंने राज्यसभा का सदस्य भी बनाया) की बेटी से शादी करवाई, और फिर आकाश को पार्टी से ही निकालते समय अपने आदेश में लिखा कि वे अपने श्वसुर के हानिकारक प्रभाव में आ चुके हैं। इस विचित्र और न समझ में आने वाले घटनाक्रम का सबसे ताज़ा म़ुकाम यह है कि मायावाती ने पार्टी के भीतर स्वयं को ‘कैडर का सिपाही’ कहने वाले रंधीर सिंह बेनीवाल को अपने भाई की जगह नैशनल कोआर्डिनेटर नियुक्त किया है। प्रश्न यह है कि मायावती की इन कार्रवाइयों के पीछे कोई सुचिंतित डिज़ाइन है या इन्हें एक घबड़ाये और कमज़ोर होते हुए नेता की उल्टी-सीधी हरकतों के रूप में देखा जाना चाहिए।
मुझे लगता है कि बसपा के इस अजीब लगने वाले घटनाक्रम को समझने का एक सुराग बेनीवाल और उनसे जुड़े कांशी राम की राजनीति के इतिहास में मिल सकता है। जाटव जाति के बेनीवाल के पिता को कांशी राम ने कभी सहारनपुर में बामस़ेफ (बैकवर्ड ऐंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज़ इम्प्लाईज़ फेडरेशन) मज़बूत करने का काम सौंपा था। 1978 में बामस़ेफ का गठन कांशी राम ने एक अनौपचारिक और गैर-राजनीतिक संगठन के रूप में किया था। ज़ाहिर है कि सरकारी कर्मचारियों का कोई भी संगठन राजनीतिक गोलबंदी का काम अघोषित रूप से ही कर सकता है। कांशी राम इसे ‘छाया-संगठन’ कहते थे। दरअसल, यह उनका एक मास्टरस्ट्रोक था जिसके ज़रिये उन्होंने दलित नौकरशाही को बहुजन समाज आंदोलन के अघोषित ‘ब्रेन बैंक, टेलेंट बैंक और फाइनेंशियल बैंक’ बदल दिया। 1990 में कांशी राम ने दावा किया था कि ‘अनुसूचित जाति-जनजाति के 26 लाख कर्मचारी कार्यकर्ता सारे देश में फैले हुए हैं। उनकी शुद्ध आय दस हज़ार करोड़ वार्षिक है। वे बसपा को कोष सप्लाई करते हैं। आखिरकार बसपा का मासिक खर्चा एक करोड़ रुपए है।’ कांशी राम के इस कथन से अंदाज़ा लग सकता है कि दलित नौकरशाही किस तरह बसपा के लिए एक नियंत्रणकारी भूमिका निभाती रही है। कहना न होगा कि स्वयं मायावती और राजबहादुर जैसे बसपा के कई बड़े नेता बामस़ेफ की ही देन हैं। अगर पर्दे के पीछे रह कर 1993 से ही बसपा के भीतर काम कर रहे बेनीवाल की नियुक्ति बामस़ेफ के जरिये हुई है तो मान लेना चाहिए कि बसपा के गिरते हुए ग्ऱाफ के कारण अब इस ‘छाया-संगठन’ ने दलितों की सबसे बड़ी पार्टी का हुलिया दुरुस्त करने के लिए हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है।
बसपा रहेगी, आगे बढ़ेगी या कमज़ोर होते-होते खत्म हो जाएगी— यह इस देश की राजनीति का बहुत बड़ा सवाल है। अगर बसपा का पतन हुआ तो दलितों की अलग पार्टी बना कर उनके नेतृत्व में समाज की अन्य बिरादरियों को लाने का प्रयोग अंतिम रूप से नाकाम हो जाएगा। मायावती जानती हैं कि केवल दलितों के वोटों से वे सत्ता में नहीं आ सकतीं। पिछले चुनाव में उन्हें अस्सी लाख वोट मिले, लेकिन वे केवल एक सीट जीत पाईं। जब तक वे जाटव जनाधार की मदद से दूसरे समुदायोें से सामाजिक गठजोड़ नहीं बनाएंगी, तब तक उन्हें पिछली वाली सफलता नहीं मिल सकती। मायावती 2007 से पहले तीन वर्ष तक ब्राह्मणों, ठाकुरों, कायस्थों, वैश्यों के साथ मैत्री-सच्मेलन करके ऐसा माहौल बना चुकी हैं। उसके परिणामस्वरूप उन्हें वह असाधारण जीत मिली थी जिसे बहुतों ने ‘सामाजिक क्रांति’ की संज्ञा दी थी। बसपा में मायावती की कुर्सी लेने के इच्छुक नेता बहुत ध्यान से इस घटनाक्रम को देख रहे हैं। उन्हें पता है कि बसपा में नेतृत्व-परिवर्तन भी दलित ब्यूरोक्रेसी की मज़र्ी से ही होगा। उन्होंने बहुत नपीतुली प्रतिक्रिया दी है। वे उचित समय के इंतज़ार में हैं।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।