मारूं घुटना फूटे आंख

अगर लोगों को अपनी नाक सीधे नहीं बल्कि घुमा कर पकड़ने की आदत हो जाए, तो आप क्या कर सकते हैं? वह लड़ते हैं, लेकिन हाथ में तलवार भी नहीं। कोई पुराना शायर होता तो कह देता, ‘अजी साब, तलवार की क्या ज़रूरत है। तीखी आंखों का कटीलापन ही काफी है।’ लेकिन कहां रहीं आंखें जो नित्य नया सपना देखती थी। अब तो सपने देखने का शगूल भी बासी कढ़ी के उबाल जैसा हो गया। लेकिन लोग इस कढ़ी को ही परिवर्तन के नाम पर स्वीकार किए जा रहे हैं।
जनाब काम का नहीं, जुमलेबाज़ी का ज़माना आ गया। परेशान लोगों को बहलाने फुसलाने के लिए नित्य नए जुमलों का सृजन किया जा रहा है। जुमलों पर जुमले चलते रहें, तो माहौल में गर्मी बनी रहती है। आप ‘एक देश एक चुनाव’ की बात कहते हैं। हम कभी सोचते हैं, कि अगर चुनावों का पांच वर्ष में एक ही दिन मुकर्रिर हो गया, तो आपकी डयोढ़ियों में नेताओं का फेरा तो और भी अलभ्य हो जाएगा। तब एक राज्य के बाद दूसरे राज्य में होने वाले चुनावों में चुनाव एजेंडों के नाम पर जनता जर्नादन में रेवड़ियां बांटने की प्रतियोगिता का क्या होगा?
आजकल कम से कम बार-बार नया एजेंडा बनता है तो प्रचारकों की कल्पनाशीलता को बढ़ावा मिलता है। फिर बार-बार एक दूसरे से बढ़-चढ़ कर नई रियायतों की घोषणा करते हैं, तो लोगों को अवश्य लगता है कि इस बार तारे अवश्य ज़मीन पर आ जाएंगे, लेकिन तारे तो वहीं रहते हैं। वक्त गुज़रने के साथ-साथ यह और भी दूर होते जा रहे हैं। खोज अनुसंधान चल रहे हैं। पता चला है पूरे ब्रह्मांड में एक नहीं, कई सौर मण्डल हैं। चिन्ता न कीजिए वायदों का यह सिलसिला कभी रुकेगा नहीं। आप तो एक ही सौरमंडल की खोज तलाश नहीं कर पाए, अब ब्रह्मांड के इस विस्तार की तरह वायदों की क्या कमी है, ‘जिए मेरा भाई, गली गली भौजाई।’ यहां एक बड़ा भाई नहीं नेताओं की पांत लगी है। हर वर्ग के लोगों के लिए वायदों की बरसात होती है। लेकिन बिन बादल बरसात किस काम की। बस सपनों का एक टूटा बायस्कोप शुरू से चल रहा है। समय-समय पर इसका नवीनीकरण भी चल रहा है। बल्कि अब कृत्रिम मेधा और डिज़ीटलीकरण के ज़माने में तो लगता है इसके बहिरंग का पुनर्जन्म हो गया। वैश्वीकरण के नाम पर यह सपने भी अन्तर्राष्ट्रीय हो रहे हैं। समावेशी विकास करना है, इसलिए इनके समावेशी विकास की धारणा उभरी है।  अहा! कितनी सुन्दर धारणा है। ‘साथी हाथ बढ़ाना साथी रे’ के गायन के साथ हर देश दूसरे से हाथ मिला कर चलेगा, और यह धरा स्वर्ग हो जाएगी। अंधेरे बन्द कमरों और झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोग भी समतावाद की सड़क पर चल निकलेंगे। यह दुनिया देखते ही देखते स्वर्ग और वंचित प्रवंचितों के जीने के काबिल हो जाएगी।
लेकिन सपनों का बायस्कोप रूप बदल-बदल कर आधुनिक मॉल प्लाज़ाओं में बदल गया। अधिकांश लोग अभी भी मारे घुटना फूटे आंख की स्थिति में अपने आप को पाते हैं। डिज़ीटलीकरण के इस ज़माने में ज़िन्दगी ऑनलाइन हो रही थी, कि साइबर अपराधों के मुख्यालय देश की सरहदों से पार हो कर अन्तर्राष्ट्रीय बन गए।
ठगी ने रूप बदल कर खाते उड़ाने और बैंक जमा साफ करने का नया रूप बदल लिया। बेशक चौकसी करने और दण्ड देने वालों की आराम तलबी यूं ही नहीं रही, और साइबर अपराधी रचनाशीलता और नित्य नए तरीकों से ठगी के रास्ते पर चल निकले। पहले केवल आपके बिजली बिल अपडेट करने की हमदर्दी के साथ आपके ओ.टी.पी. नम्बर मांगे जाते थे। अब बाकायदा पुलिस वालों, और अदालतों का भेस बना कर ठग लोगों को वर्चुअल अरैस्ट करने लगे। एक नया तरीका निकला है। आयकर में रिफण्ड की बात कह कर मोबाइल के लिंक पर उंगलियां दबवाई जा रही हैं, और खाता साफ।
यह कैसी तरक्की है कि जो आपको बैंक खाते साफ करने का दु:ख दे रही है? दु:खों की भी कोई सीमा है। इनकी शिकायत दर्ज करवाने के लिए फोन नम्बर दिए जाते हैं, जो हमेशा व्यस्त रहते हैं, और कारगुज़ारी के नाम पर जब आंकड़े तलाशते हैं, तो न तो ठगे पैसों की वापिसी नज़र आती है, और न ठगों को दण्ड। भई ‘वासुदैव कुटम्बकम’ का ज़माना है। ठगों ने भी अपने दफ्तर विदेशों में बना लिए। अब ऑनलाइन के पंखों पर यह ठगी का धंधा चल निकला और लोग माथा पीट कहने लगे, भई ‘यह तो मारे घुटना फूटे आंख’ वाली बात हो गई। भई, आप पूछ सकते हो कि जनाब आप यह बदलाव और विकास की तुलना घुटना मारने से कर रहे हो। क्या आप में सृजनशीलता का अभाव हो गया है? जी नहीं, अभाव नहीं हुआ, यथार्थ बोध होने लगा है।
आप जानते हैं कि जब आपकी बस्ती में पुरानी सड़क तोड़ कर नई सड़क बनाने की बात होती है तो बांछें केवल ठेकेदारों की खिलती हैं। जिसे जिन्हें यह सड़कें बनाने का ठेका मिला है। आधी-अधूरी सड़कें, और पहली बारिश पर ही मुरम्मत हुई सड़कों का टूट-फूट जाना इन बांछों के खिलने का स्पष्टीकरण है। वह तो भुगतान अधिकारी से अपने काम के बिल के नीचे चांदी के पहिए लगा कर पैसे ले ही जाएगा, और आपको दे जाएगा गड्डों भरा मृत्युकूप।
लेकिन हर समय कूप से ही तुलना क्यों? पुल बनाने लगे, फ्लाई ओवरों के पिलर खड़े किए, तो जिंदगियां अधर में भी टक गईं क्योंकि इनके पूरा हो जाना तो इनके भाग्य में बचा नहीं। हां, आपकी ये अधूरी घोषणाएं घुटना बन आपकी आंखें फोड़ने लगीं। अब आंखें फूटीं तो सब ओर हरा ही हरा दिखाई देने लगा। अधूरे आंकड़े, सफलता की घोषणाएं खाली जेबों और भूखे पेटों के माथे पर उपलब्धियों को ताज पहना देने का काम कर जाती है। लोग अपने आप दिलासा को हर्ष समझ कर उत्सव धर्मी हो जाते हैं। जन-चेतना के नाम पर बदलाव घोषक नेताओं की शोभा यात्राएं निकलने लगती हैं। युवा धर्म अपना लिया उन घोषणाओं ने। नई पीढ़ी के हवाले राजनीति से समाज तक सब हवाले कर देने के नाम पर लाखों लोगों को नया दायित्व देने की बात होने लगी। जी हां, मिलेगा एक दिन यह दायित्व अवश्य मिलेगा। हम तो बूढ़े हो गए, लेकिन हमारे नाती-पोते तो जवान हो रहे हैं। आओ इनके लिए यह दायित्व द्वार खोलें, बन्धु यह परिवारवाद नहीं, नए कानून की आमद का मार्ग है।

#मारूं घुटना फूटे आंख