सियासी बोल : एक-दूसरे के दोस्त कम दुश्मन अधिक बना रहे
कट्टरपंथी ताकतों के नापाक मंसूबों को धराशाही करते हुए देशभर में छूटपुट घटनाओं को छोड़कर होली और रमज़ान का त्योहार शांति, प्रेम और भाईचारे की भावना के साथ मनाया गया। इसी के साथ हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वीकार किया है कि पाकिस्तान आतंक की फैक्ट्री चला रहा है और भारत के लाख प्रयासों के बाद भी वह सुधरने को तैयार नहीं है। देश के आंतरिक मामलों में सांप्रदायिक जहर घोलने के कुत्सित प्रयासों में वह आगे है। मोदी की बात में दम है, साथ ही यह भी सच है, मूलभूत समस्याओं यथा, आर्थिक मंदी, अर्थव्यवस्था में सुधार, महंगाई और युवाओं को रोज़गार तथा विकास कहीं पीछे छूट गए है। इन मुद्दों पर ज्यादा चर्चा नहीं रही। देशवासी भी इन मुद्दों पर कोई ज्यादा गंभीर दिखाई नहीं देते। सियासी बोलों पर तालिया पीटने के जैसे आदि हो गए है हम। राजनीति में भाषा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। राजनेताओं की तरफ से ऐसे-ऐसे बयान सामने आ रहे हैं कि लोग हैरान हैं। राजनेता अपने स्तरहीन भाषा से हर दिन मर्यादा तोड़ रहे हैं। सियासी नेताओं के राजकुमारों पर चर्चा अधिक होने लगी है। आम आदमी के रोटी, कपड़ा और मकान के स्थान पर बिहार चुनावों के मद्देनज़र मुख्यमंत्री के बेटे के राजनीति में आने की खबरों से बाज़ार ज्यादा गर्म है। आज छोटे से लेकर बड़े नेता तक ने जैसे घृणा फैलाने का ठेका ले लिया है। चुनाव के दौरान इसका अधिक उपयोग होने लगा है। चुनाव भी अब लगभग हर तीसरे महीने कहीं न कहीं होने लगा है जिसका प्रतिफल यह निकल रहा है कि नेता लोग इस अचूक ब्रह्मास्त्र को एक दूसरे पर धड़ल्ले से साध रहे है। घृणा की इस बहती गंगा में हाथ धोने से कोई भी नहीं चूक रहा है। समूचे ब्रह्मांड में जैसे घृणा के काले पीले बादल मंडरा रहे है। देश में नफरत की भावना का प्रसार बड़ी तेजी से हो रहा है। या यूँ कहे समाज में कुछ लोग ऐसे है जो किसी भी हालत में सद्भावना व प्यार महोब्बत को मिटाने पर तुले हुए है।
जब से सोशल मीडिया ने हमारी जिंदगी में दखल दिया है तब से हम एक-दूसरे के दोस्त कम दुश्मन अधिक बन रहे है। समाज में भाईचारे के स्थान पर घृणा का वातावरण ज्यादा व्याप्त हो रहा है। फेसबुक, ट्विटर, इंस्टग्राम जैसे सोशल मीडिया पर एक साल के लिए रोक लगादी जाये तो नेता और उनके अंध भक्त सुधर जायेंगे। साथ ही देश का भी भला हो जायेगा। प्रिंट मीडिया आज भी अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन कर रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर हो रही बहस घृणास्पद और निम्नस्तरीय है। ऋषि मुनियों की इस पावन धरा को घृणा के विष बीज से मुक्ति नहीं मिली तो भारत को पतन के मार्ग पर जाने से कोई भी ताकत नहीं रोक पायेगी। न्यूज़ चैनलों, विशेष रूप से सोशल मीडिया पर इन दिनों जिस प्रकार के आरोप प्रत्यारोप और नफरती बोल सुने जा रहे है उससे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ते देखा जा सकता है।
देश के न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया पर घृणा और नफरत की मारकाट मची है। घृणा के इस महासागर में हमारे भाग्य विधाता नेताओं की सियासत डुबकी लगा रही है। न्यूज़ चैनलों पर विभिन्न सियासी दलों के प्रतिनिधि जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग करते है उन्हें देखकर लगता नहीं है की यह गांधी, सुभाष, नेहरू, लोहिया और अटलजी का देश है। सच तो यह है गंगा जमुनी तहजीब से से निकले भारतीय घृणा के इस तूफान में बह रहे हैं। विशेषकर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद घृणा और नफरत के तूफानी बादल गहराने लगे है। हमारे नेताओं के भाषणों, वक्तव्यों और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सुचिता के स्थान पर नफरत, झूठ, अपशब्द, तथ्यों में तोड़-मरोड़ और असंसदीय भाषा का प्रयोग धड़ल्ले से होता देखा जा सकता हैं। हमारे नेता अब आए दिन सामाजिक संस्कारों और मूल्यों को शर्मसार करते रहते हैं। स्वस्थ आलोचना से लोकतंत्र सशक्त, परंतु नफरत भरे बोल से कमजोर होता है, यह सर्व विदित है। आलोचना का जवाब दिया जा सकता है, मगर नफरत के आरोपों का नहीं। चुनाव आते ही हमारे नेताओं की बांछे खिल जाती है। मंच और भीड़ देखते ही सियासत की तकदीर लिखने लगते है। भाषणों में नफरत के तीर चलने लग जाते है। बंद जुबाने खुल जाती है। सियासी शत्रुता के गुब्बार फूटने लगते है। नीतियों और मुद्दों की बाते गौण हो जाती है। आज हालत यह हो गयी है कि देश में कोई भी वारदात घटित हो जाती है तो तुरंत ऐसे-ऐसे बयानवीर और उनके जहरीले बयानों का देश को सामना करना पड़ता है जिसे पड़ और सुनकर सिर न केवल शर्म से झुक जाता है अपितु लोकतंत्र की बुनियाद भी कमजोर होने का खतरा मंडराने लगता है।