क्या संस्कृत और हिन्दी साम्राज्यवाद की भाषाएं हैं ?
पंजाब में लोग सोचते होंगे कि दक्षिण भारत की भाषाओं के खिलाफ हिंदी और संस्कृत को खड़ा करने की राजनीति का उनके साथ कोई मतलब नहीं हो सकता। मोटे तौर पर उनकी (पंजाबियों) की बात सही है लेकिन यह बात पूरी तरह से सही भी नहीं है। दरअसल, ये सभी विवाद अंग्रेज़ों के बनाये हुए हैं। अंग्रेज़ों ने जब पंजाब पर अपना शासन कायम किया तो बड़ी तत्परता से उन्होंने उर्दू को पंजाब की भाषा के रूप में मान्यता दे दी, और पंजाबी को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया। लेकिन (भारत-पाक) विभाजन के बाद राजनीति की ज़मीन पर जब विवाद हुआ तो उसमें जो भाषाएं आपस में भिड़ती नज़र आईं, उनमें उर्दू का कोई नाम लेने वाला नहीं था। उस समय होड़ पंजाबी और हिंदी में हुई। क्या अंग्रेज़ उर्दू के साथ-साथ सांस्कृतिक क्षेत्र में किसी एक भाषा को प्रमुख या प्रभु-भाषा के रूप में स्थापित करना चाहते थे? उन्होंने भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति के इलाके में उन्होंने इस काम के लिए हिंदी और दक्षिण में तमिल को चुना, पूर्व में बंगाली को और पश्चिम में मराठी को जबकि पंजाब की तरफ वाले इलाके में उन्होंने यह काम उर्दू से लिया। आज भारत में जो भाषाई विवाद हैं, उनमें अंग्रेज़ों द्वारा किये गये ‘प्रभु-भाषाईकरण’ की प्रमुख भूमिका है।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन ने लोकसभा सीटों के परिसीमन और हिंदी-संस्कृत बनाम तमिल के मुद्दों को आपस में जोड़ कर बड़े संगीन तरीके से संघवाद का झंडा बुलंद करने की कोशिश की है। असलियत यह है कि ये दोनों एकदम अलग-अलग प्रश्न हैं। भाषा के सवाल का परिसीमन से कोई ताल्लुक नहीं है। दोनों पर अलग-अलग विचार करके उनका हल निकाला जाना चाहिए। परिसीमन पर मोटे तौर पर स्टालिन की बातें सही लगती हैं लेकिन भाषा के मामले में उनकी बातें तथ्यहीन होने के साथ-साथ तमिल जनता की भावनाओं को भड़काने वाली घिसीपिटी राजनीति ही हैं। इस मामले में उनकी केवल इतनी बात सही है कि भारत के बहुभाषी यथार्थ को शिक्षा-नीति के खांचे में फिट करने के लिए बनाया गया 55 साल से ज्यादा पुराना त्रिभाषा ़फार्मूला बेकार साबित हो चुका है। सरकार और उसके संबंधित सलाहकारों को इसके लिए कोई नयी युक्ति खोजनी पड़ेगी। अगर स्टालिन यहीं तक सीमित रहते, तो वे अपने पक्ष में राष्ट्रीय सहमित बना सकते थे। लेकिन उन्होंने जैसे ही हिंदी-संस्कृत के कथित साम्राज्यवाद की फिकरेबाज़ी का सहारा लिया, वैसे ही संघवाद के प्रति उनका आग्रह उतना मज़बूत नहीं रह सका, जितना उसे होना चाहिए था।
न तो हिंदी के साथ और न ही किसी अन्य भारतीय भाषा के साथ संस्कृत के संबंध साम्राज्यिक किस्म के रहे हैं। भारतीय भाषाओं का इतिहास इस मामले में स्पष्ट है और देशी-विदेशी विद्वानों के साहित्य में इस पक्ष में पर्याप्त प्रमाण भी आसानी से मिल सकते हैं। भारत में ज्ञान-रचना और हिंदू कर्मकांडों की भाषा मुख्य तौर पर संस्कृत ही रही है लेकिन हिंदू राजवंशों ने अपने सहस्रब्दियों लम्बे शासनकाल में कभी संस्कृत को स्थानीय भाषाओं पर थोपने का ज़रा-सा प्रयास भी नहीं किया। भाषाओं के प्रचार-प्रसार का इतिहास लिखने वाले निकोलस ओस्टलर ने दिखाया है कि पहली सहस्राब्दी में समूचे दक्षिण-पूर्वी एशिया में संस्कृत का प्रसार अभिजन विमर्श की भाषा के तौर पर हुआ। यह भाषा भारत से सागर के रास्ते आई और फैली। लेकिन इस विस्तार में किसी सम्राट, सेना, धर्म-मज़हब या दाब-धौंस की भूमिका कभी नहीं रही।
शेल्डन पोलोक ने बताया है कि न केवल भारत की सभी भाषाओं में बल्कि पूरे दक्षिण एशिया (जावा की लिपि, थाई लिपि, सिंहला लिपि, तमिलों की ग्रंथ लिपि और कश्मीर की शारदा लिपि) में संस्कृत की किसी भी इबारत को सफलता से लिखा जा सकता था और है। संस्कृत और इन भाषाओं के बीच केंद्र और परिधि का संबंध होने के बजाय परस्पर आवाजाही का रहा है। संस्कृत और दक्षिण एशिया की देशभाषाएं एक निरंतर अन्योन्यक्रिया से बनने वाले संसार की वासी रही हैं। स्थानीय भाषाओं और लिपियों का तिरस्कार करने या उन्हें प्रतिबंधित करने के बजाये संस्कृत उनकी लिपियों, व्याकरण और साहित्य के विकास में सहयोगी भूमिका निभाती हुई दिखती है।
यह मानना कि तमिल का संस्कृत से कोई संबंध नहीं है, एक राजनीतिक दुराग्रह के अलावा कुछ नहीं है। ‘तोलकप्पियम’ के रचियता तोलकप्पियर को इस भाषा का आदि-वैयाकरण माना जाता है। यह कृति संस्कृत के पाणिनि-पूर्व व्याकरणशास्त्र के ऐंद्रिक विचार-कुल से संबंधित है। ऐंद्रिक विचार-कुल के प्रधान आचार्य इंद्र नाम के विद्वान थे, इसलिए उन्हीं के नाम पर इस कुल का नाम ऐंद्रिक पड़ गया। केवल पाणिनि से असंबंधित होने के कारण-भर से तमिल को संस्कृत-व्याकरण से असंबद्ध मानना इतिहास को झुठलाना है। तमिल में संस्कृत के शब्दों की संख्या काफी है। भाषाशास्त्री देवनेय पावनार के अनुसार तमिल में इस्तेमाल किये जाने वाले कई संस्कृत शब्दों के तमिल पर्याय भी मौजूद हैं। पावनार तो यहां तक कहते हैं कि संस्कृत के भीतर 40 प्रतिशत शब्द ऐसे हैं जो तमिल भाषा की धातुओं पर आधारित माने जा सकते हैं। इस तरह की दावेदारियां तमिल को एक अलग भाषा करार देने की तरफ भी ले जाती हैं, और संस्कृत के ऊपर भारतीय भाषाओं के प्रभावों पर भी उंगली रखती हैं।
इसी तरह हिंदी को अपने ही क्षेत्र की जनपदीय भाषाओं का भक्षक कहना एक व्यर्थ की मौखिक हिंसा के अलावा कुछ नहीं है। आज भाषाओं के बाज़ार में भोजपुरी, हरियाणवी, राजस्थानी, अवधी और ब्रज जैसी जनपदीय भाषाओं को अगर विस्तार और उछाल मिला है तो हिंदी उसका माध्यम बनी है। इस समीकरण में हम चाहें तो उर्दू को भी शामिल कर सकते हैं। हिंदी के साहित्य-संसार में नागरी में लिखा गया उर्दू साहित्य प्रचुर मात्रा में पढ़ा जाता है। अगर कोई छात्र हिंदी साहित्य पढ़ता है तो उसे अनिवार्य तौर पर भक्तिकालीन कविता पर महारत हासिल करनी पड़ती है, और यह साहित्य इन्हीं जनपदीय भाषाओं में रचा गया है। हिंदी का कोई भी बड़ा शब्दकोश उठा कर देख लीजिये, उसके हर पृष्ठ पर जनपदीय भाषाओं से हिंदी की सहोदर प्रकृति के उदाहरण मिल जाएंगे। दरअसल, हिंदी इस भाषिक जनपदीयता के आधार पर ही बनी है। महावीर प्रसाद द्विवेदी, किशोरी दास वाजपेयी और रामविलास शर्मा जैसे उसके विद्वान ‘संस्कृतनिष्ठ हिंदी’ लिखने के दुराग्रहों का खंडन करते हुए बार-बार कहते हैं कि हिंदी का संस्कृत से संबंध उतना ही है जितना अन्य किसी भी भारतीय भाषा से है। दरअसल, दक्षिण भारतीय भाषाएं अधिक संस्कृत-निकट हैं। भारतीय भाषाओं के आपसी संबंध हमेशा से मधुर रहे हैं। चूंकि हिंदी एक से अधिक प्रांतों की भाषा है और उसकी भौगोलिक सीमाएं अत्यंत विशाल हैं, इसलिए उसे संविधान-निर्माताओं ने राजभाषा बनाया। उसकी यह पदवी युरोपीय राष्ट्रभाषा जैसी नहीं है। युरोप में अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रेंच, इतालवी, स्पेनी और पुर्तगाली जैसी राष्ट्रभाषाएं अन्य स्थानीय भाषाओं के योजनाबद्ध संहार की कीमत पर स्थापित की गई हैं। भारत में इस प्रकार के भाषा-संहार का कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।