‘वीबी—जी राम जी’ अधिनियम संरचनात्मक कमियों को दूर करता है

वीबी—जी राम जी अधिनियम लागू होते ही कुछ लोगों ने ऐसी बातें कही हैं, जो गहराई से देखने पर सही नहीं ठहरतीं। कहा जा रहा है कि रोज़गार गारंटी कमज़ोर कर दी गई है, विकेंद्रीकरण और मांग आधारित अधिकारों को बिना परामर्श के कमज़ोर किया गया है और यह सुधार असल में राजकोषीय खर्च घटाने का तरीका है, जिसे ढांचे में बदलाव के रूप में पेश किया जा रहा है, लेकिन ये सभी दावे इस कानून के असली उद्देश्य और प्रावधानों को ठीक से न समझ पाने के कारण किए जा रहे हैं। इस गलतफ हमी का मूल कारण एक गहरी वैचारिक त्रुटि है—यह मान लेना कि कल्याण और विकास एक दूसरे के विरोधी विकल्प हैं। नया ढांचा इसके बिल्कुल उलट सोच पर आधारित है —कल्याण, जो कि वैधानिक आजीविका गारंटी को मज़बूत करने पर केंद्रित है और विकास, जो कि दीर्घकालिक बुनियादी ढांचे के निर्माण और उत्पादकता वृद्धि पर केंद्रित है, परस्पर एक दूसरे को मज़बूत करते हैं। आय सहायता, संपत्ति सृजन, कृषि स्थिरता और लंबे समय की ग्रामीण उत्पादकता को अलग-अलग नहीं, बल्कि एक साथ चलने वाली प्रक्रिया माना गया है। यह केवल कोरी कल्पना नहीं है, बल्कि कानूनी संरचना में ही शामिल सोच है। 
यह कहना कि कानूनी रोज़गार अधिकार कमज़ोर कर दिया गया है, सही नहीं है। इस कानून में रोज़गार गारंटी का वैधानिक और न्यायिक अधिकार बरकरार रखते हुए उसे और मज़बूत किया गया है। अधिकार घटाने के बजाय इसे 100 दिनों से बढ़ा कर 125 दिन कर दिया गया है। पहले जो प्रक्रियागत शर्तें बेरोज़गारी भत्ता मिलने में रुकावट बन जाती थीं, उन्हें हटा दिया गया है और समयबद्ध शिकायत निवारण व्यवस्था को और सुदृढ़ किया गया है। यह सुधार लंबे समय से मौजूद उस अंतर को दूर करने का प्रयास है, जो कागज़ पर किए गए वादे और लोगों के धरातल के अनुभव के बीच था।
यह भी कहा जा रहा है कि मांग आधारित रोज़गार छोड़कर ऊपर से थोपे गए योजनागत मॉडल को लागू कर दिया गया है। यह भी एक गलत धारणा है। काम की मांग पहले की तरह ग्रामीण मज़दूरों से ही आती है। फर्क यह है कि अब काम तभी शुरू नहीं किया जाएगा जब मजबूरी या संकट बढ़ जाए, बल्कि पहले से ही भागीदारी आधारित ग्राम-स्तरीय योजना बनाकर तैयारी कर ली जाएगी। इससे यह सुनिश्चित होगा कि जब मजदूर काम मांगें, तो उनके लिए तुरंत काम उपलब्ध हो और प्रशासनिक तैयारी न होने के कारण उन्हें मना न किया जाए। इस तरह योजना बनाना मांग को दबाता नहीं, बल्कि उसे सही रूप से लागू करता है। केंद्रीकरण का आरोप इस कानून की पूरी संरचना को नज़रअंदाज़ करता है। ग्राम पंचायतें पहले की तरह ही योजना बनाने और लागू करने की प्रमुख संस्था बनी रहती हैं और ग्राम सभाओं के पास स्थानीय योजनाओं को मंजूरी देने का अधिकार यथावत है। फर्क सिर्फ इतना है कि अब विकेंद्रीकरण बिना व्यवस्था के या कभी-कभार होने वाली प्रक्रिया नहीं रहेगा, बल्कि एक नियमित, व्यवस्थित और सहभागी प्रणाली के रूप में होगा। 
यह धारणा भी तथ्यों से मेल नहीं खाती कि पिछले दशक में रोजगार गारंटी को लगातार कमज़ोर किया गया। बजट आवंटन 2013-14 के 33,000 करोड़ रुपये से बढ़ कर 2024-25 में 2,86,000 करोड़ हो गया। 2013-14 तक कुल 1,660 करोड़ मानव दिवस के बदले अब तक 3,210 करोड़ मानव-दिवस का सृजन हुआ। केंद्र से जारी धनराशि 2.13 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 8.53 लाख करोड़ हो गई और पूरे हुए कार्य 153 लाख रुपये से बढ़कर 862 लाख तक पहुंच गए। महिलाओं की भागीदारी 48 प्रतिशत से बढ़ कर 56.73 प्रतिशत हो गई। अब 99 प्रतिशत से अधिक फंड ट्रांसफर आदेश समय पर जारी होते हैं और लगभग 99 प्रतिशत सक्रिय श्रमिक आधार पेमेंट ब्रिज से जुड़े हैं। ये सभी रुझान उपेक्षा नहीं, बल्कि निरंतर प्रतिबद्धता और बेहतर प्रदर्शन को दिखाते हैं।
लेकिन समय के साथ यह भी साफ हो गया कि पुराने ढांचे में खुद कुछ बुनियादी कमज़ोरियां थीं—जैसे बीच-बीच में ही काम मिलना, बेरोज़गारी भत्ता लागू कराने की कमज़ोर व्यवस्था, बिखरे हुए और असंगठित तरीके से संपत्ति/संसाधन निर्माण, और दोहराव व फर्जी प्रविष्टियों की गुंजाइश। ये कमज़ोरियां सूखे के समय, बड़े पैमाने पर पलायन के दौर में और कोविड-19 जैसी आपदा के दौरान धरातल पर साफ दिखाई दीं।
नए कानून के तहत की गई वित्तीय व्यवस्था को भी गलत तरीके से सरकारी ज़िम्मेदारी छोड़ने के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। सच यह है कि केंद्र सरकार का योगदान बढ़ रहा है। केंद्र का हिस्सा 86,000 करोड़ रुपये से बढ़कर लगभग 2,95,000 करोड़ रुपये तक हो रहा है, जो ग्रामीण रोज़गार के प्रति मज़बूत और बढ़ते समर्थन को दर्शाता है। 60:40 की फंडिंग व्यवस्था वैसे ही है जैसी अन्य केंद्रीय सहायता प्राप्त योजनाओं में वर्षों से लागू है जबकि पूर्वोत्तर और हिमालयी राज्यों तथा जम्मू-कश्मीर के लिए 90:0 का अलग अनुपात रखा गया है। इसलिए यह किसी तरह की वित्तीय सहायत से पीछे हटने का संकेत नहीं, बल्कि साझा ज़िम्मेदारी और जवाबदेही को और मज़बूत करने का संकेत है।
यह कानून राज्यों को यह अधिकार देता है कि वे पहले से ही एक वित्तीय वर्ष में कुल 60 दिनों की अवधि तय कर सकें, जो बुआई और कटाई जैसे कृषि के व्यस्त मौसमों को कवर करे और उन दिनों के दौरान काम न कराया जाए। यह घोषणा ज़िला, ब्लॉक या ग्राम पंचायत स्तर पर स्थानीय मौसम और कृषि परिस्थितियों के आधार पर अलग-अलग ढंग से की जा सकती है। इससे यह सुनिश्चित होगा कि बढ़ी हुई रोज़गार गारंटी कृषि कार्यों में बाधा न बने, बल्कि उसके साथ संतुलन बनाकर चले।
नया कानून रोज़गार का कानूनी अधिकार बनाए रखता है, अधिकारों को बढ़ाता है, श्रमिक सुरक्षा को मज़बूत करता है और वर्षों के कार्यान्वयन में सामने आई संरचनात्मक कमज़ोरियों को ठीक करता है। यह विनाश नहीं, बल्कि अनुभव पर आधारित नवीनीकरण की प्रक्रिया है।

(लेखक भारत सरकार में कृषि एवं किसान कल्याण एवं ग्रामीण विकास मंत्री हैं।)

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