धान की काश्त का रकबा कम करने की ज़रूरत

गेहूं की कटाई तो आगामी माह अप्रैल में शुरू होगी, परन्तु किसान अभी से खरीफ की बिजाई के लिए योजनाबंदी कर रहे हैं। मेलों तथा कैम्पों में उनकी मनोस्थिति व मिज़ाज से प्रतीत होता है कि उनका धान व बासमती की काश्त की ओर ही पूरा रूझान है। चाहे वे दुविधा में हैं कि बासमती किस्मों की कितने रकबे पर बिजाई करें और धान की काश्त कितने रकबे पर की जाए। फिर बासमती की बिजाई के लिए कौन-सी किस्में चुनी जाएं और धान की वह कौन-सी किस्म लगाएं। गत वर्ष किसानों की बहुमत ने धान की पी.आर.-126 किस्म लगाई थी, जिससे उनको नुकसान हुआ था। यह किस्म चाहे पकने के लिए कम समय लेती है, परन्तु इसमें टोटा अधिक आता है और इसका उत्पादन (चावल) कम है, जबकि अन्य पूसा-44 तथा कुछ पी.आर. जैसी किस्में 67 प्रतिशत तक उत्पादन (चावल) दे देती हैं। गत वर्ष मिलरों तथा शैलरों की ओर से शिकायतें आई थीं कि पी.आर.-126 किस्म का उत्पादन 62-63 प्रतिशत ही है।
इस वर्ष किसानों की ज़्यादातर पसंद पुन: पूसा-44 किस्म ही है, जो 150 दिनों में पक कर अन्य सभी फसलों से अधिक उत्पादन देती है। प्रगतिशील किसानों ने इस किस्म से 35 से 40 क्ंिवटल प्रति एकड़ तक उत्पादन प्राप्त किया है। यह किस्म आंधी का मुकाबला करने में सक्षम है। शैलर वाले इसे खरीदना पसंद करते हैं, क्योंकि इस किस्म के चावल में टोटा बहुत कम एवं उत्पादन (चावल) अधिक आता है। विगत 25 वर्षों से यह किस्म सफलता से बीजी जाती रही है। इस किस्म के अधीन दूसरी सभी किस्मों से अधिक रकबा 60 से 70 प्रतिशत तक रहा, परन्तु विगत 3-4 वर्षों से इस किस्म के अधीन रकबा कम होता गया, क्योंकि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पी.ए.यू.) तथा कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के अनुसार इसकी पानी की ज़रूरत अधिक थी, जिस कारण भू-जल का स्तर प्रत्येक वर्ष गिर रहा था। पी.ए.यू. द्वारा तो आज तक कभी भी इस किस्म की काश्त की सिफारिश नहीं की गई थी। आई.सी.ए.आर.-इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीच्यूट जिसके द्वारा यह किस्म विकसित की गई थी, उसने भी इस का ब्रीडर सीड बनाना बंद कर दिया और पंजाब राज्य बीज प्रमाणन अथारिटी ने इस किस्म के बीज की सर्टिफिकेशन बंद कर दी, जो किसान अब इस किस्म की बिजाई कर रहे हैं, वे ‘टी.एल.’ किस्म के बीज का इस्तेमाल कर रहे हैं। भू-जल का स्तर गिरने की समस्या इसलिए थी कि इस किस्म की अगेती बिजाई की जाती थी, क्योंकि यह अन्य किस्मों की अपेक्षा पकने को अधिक समय लेती थी और किसान इस किस्म को मई में ही लगाना शुरू कर देते थे।
किसानों के लिए अब कुछ पी.आर. किस्मों के अतिरिक्त हाल ही में आई.सी.ए.आर.-आई.ए.आर.आई. द्वारा विकसित की गईं धान की पूसा-2090 तथा पूसा-1824 किस्में हैं, जिनकी पंजाब के किसानों द्वारा बहुत मांग है, परन्तु आई.ए.आर.आई. द्वारा इस किस्म का बीज पंजाब के किसानों को नहीं दिया जा रहा और न ही आई.ए.आर.आई.-कोलैबोरेटिव आऊट स्टेशन रिसर्च सैंटर रखड़ा से जारी किया जा रहा है। हालांकि ये दोनों किस्में पकने को कम समय लेती हैं।
गत वर्ष मंडी में दाम कम रहने के कारण किसान दुविधा में हैं कि वे बासमती के अधीन इस वर्ष रकबा कम करें या उतना ही लगाएं। धान की सफल किस्मों का बीज उन्हें उपलब्ध नहीं है। बासमती का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित नहीं किया गया। आल इंडिया बासमती एक्सपोर्टज़र् एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष तथा बासमती किस्मों के प्रसिद्ध निर्यातक विजय सेतिया के अनुसार भारत की बासमती की विदेश में मांग बढ़ रही है। पंजाब तथा हरियाणा में पैदा की जा रही बासमती खाड़ी एवं दूसरे देशों में अधिक पसंद की जाती है। अब सीधी बिजाई के लिए भी पूसा बासमती-1979 (पी.बी.-1121 का विकल्प) तथा पूसा बासमती-1985 (पी.बी.-1509 का विकल्प) किस्में आई.सी.ए.आर.-आई.ए.आर.आई. द्वारा विकसित कर दी गई हैं, जिससे पानी की बचत होती है। इसके अतिरिक्त पूसा बासमती-1509, पूसा बासमती-1692 तथा पूसा बासमती-1882 किस्में हैं, जो समय पर लगाने से एक पानी लेकर मानसून की बारिश के पानी से ही पक जाती हैं। पूसा बासमती-1401 किस्म के चावल की गुणवत्ता बहुत बढ़िया है, जिसका मंडी में दाम अधिक मिलता है। भारत सरकार को बासमती का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित कर देना चाहिए ताकि पंजाब में बासमती की काश्त के अधीन रकबा बढ़े। किसानों को विश्वास हो जाए कि उन्हें बासमती का सुनिश्चित दाम मिलेगा। धान की काश्त का रकबा कम करने की ज़रूरत है और 2 लाख हैक्टेयर तक रकबा पंजाब में धान की काश्त से निकल कर आसानी से बासमती की किस्मों के अधीन आ सकता है, जिससे फसली विभिन्नता आएगी। किसान फलों, सब्ज़ियों तथा मूंगी की काश्त बढ़ा कर भी धान की काश्त का रकबा कम कर सकते हैं। 

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