मेरी जन्म तिथि, स्थान तथा समय के कवि
इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक मेरी आयु 91 वर्ष हो चुकी होगी। 22 मार्च, 1934 में जन्म के कारण। वैसे मैं कागज़ों में इससे 11 माह छोटा हूं। प्राइमरी स्कूल भड़ी के मुखी की मेहरबानी से। मैं तथा मेरे छोटे मामा हमउम्र थे। एक ही घर में जन्मे थे। स्कूल में दाखिला करने वाले ने आयु पूछी तो मेरे नाना ने हमें चार-चार वर्ष का बताया तो मौलवी साहिब ने हम दोनों की जन्म तिथि 27 फरवरी, 1935 लिख दी, जो हमारी सही तिथि से 11-12 माह कम थी। आज के दिन मेरे हमउम्र मामा का निधन हो चुका है। दो वर्ष पहले की 27 फरवरी को। हमारी कागज़ी जन्म तिथि को देखते हुए।
मेरी जन्म तिथि में संशोधन करने वाले मेरे पिता थे। मैं अपने माता-पिता का पहला बच्चा था तथा मेरे मामा अपने माता-पिता का अंतिम। उन दिनों में बड़े बच्चों की जन्म तिथि तो माता-पिता याद रखते थे, बाद में जन्मे बच्चों की नहीं।
ननिहाल पैदा होने के कारण मेरे नाम भी दो थे। ननिहाल ने मेरा नाम बलबीर सिंह रखा था। दादका गांव पहुंचा तो मेरी दादी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब का वाक्य लेते समय ‘गगा’ अक्षर निकलने के कारण मेरा नाम गुलज़ारा सिंह रख दिया और अपनी ज़िद पूरी करके मेरे स्कूल में भी गुलज़ारा सिंह ही लिखवाया। मैं अपने ननिहाल का बलबीर सिंह उर्फ बल्ला हूं तथा दादके का गुलज़ारा सिंह। चार दशक पहले मार्क्स फ्रैंडा नामक अमरीकी पत्रकार मेरी इंरटव्यू लेने आया तो उसने मेरे ननिहाल गांव जाकर मेरी माता की आयु के व्यक्ति के मिलना चाहा। मैं उन्हें एक बुज़ुर्ग महिला के पास ले गया। वह चारपाई पर चादर ओढ़ कर लेटी हुई थीं। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं बीबी चरणो (मेरी माता को वहां इसी नाम से जानते थे) का बेटा हूं तो वह चादर उतार कर उठ बैठीं और बोलीं ‘फिर तो तूं बल्ला एं।’ इतना कह कर उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा।
इस प्रकार मेरी जन्म तिथियां ही दो नहीं, मेरे व्यक्तित्व भी दो हैं। यह बात अलग है कि मैंने अपने गांव से दिल्ली जाकर गुलज़ारा से ‘अ’ की मात्रा उतार कर अंत में संधू जोड़ लिया और गुलज़ार सिंह संधू हो गया। वैसे मेरे शैक्षणिक प्रमाणपत्रों में मैं गुलज़ारा सिंह ही हूं। समय-समय की बात है। मैं अपने जीवन के पहले 14 वर्ष अपने ननिहाल रह कर पढ़ा हूं। हमारे बचपन के खेल कोटला छपाकी तथा छिपा-छिपी थे। पढ़ने के लिए कहानियां, जिन्हें चिट्ठे भी कहा जाता था। हम इन कहानियों के माध्यम से गुरु गोबिन्द सिंह जी के चार साहिबज़ादों एवं बंदा सिंह बहादुर की शहीदी तथा दुल्ला भट्टी की राजपूती साहस से अवगत हुए। ये कहानियां हमनें पढ़ने वाली पुस्तकों में इस प्रकार रखी होती थीं, जैसे हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा हों। सुच्चा सिंह सूरमा, रूप बसंत तथा बिधी चंद के घोड़े भी इनमें शामिल थे, परन्तु जो आनन्द शहीदी तथा कुर्बानी वाली कहानियां पढ़ कर आता था, उसका कोई जवाब नहीं था। इसमें से दुल्ला भट्टी की कहानी सबसे अधिक अच्छी लगती थी। उसका साहस आम राजपूतों से अलग था, जिसे कहानी लिखने वालों ने अपने तरीके से बातें जोड़ कर और भी चमका रखा था। परिणामस्वरूप दुल्ला के अकबर पर आक्रमण से पहले ‘नियति’ महिला का रूप धारण कर कांटों की टोकरी भर कर दुल्ला के मार्ग में खड़ी हो जाती है और कहानीकार उसे इतना लाचार एवं असक्षम बना कर पेश करता है कि उससे टोकरी नहीं उठाई जाती। वह दुल्ला से मदद मांगती है :
कंडियां दा रखिया है मैं भराई के
दुल्लिया तों टोकरा चुकाई आई के।
दुल्ला पूरी ताकत लगा कर भी उस टोकरी को धरती से अलग नहीं कर सकता। नियति ने कांटों की टोकरी के माध्यम से दुल्ला को यह संदेश देने की ही कोशिश की थी कि वह बादशाह अकबर से उलझने की बजाय वापस लौट जाए, परन्तु न लौटने वाला दुल्ला नियति के संदेश को नहीं समझ पाता और अकबर द्वारा भेजे गए मिज़र्ा नामक जरनैल से जा टकराता है।
यह बात अलग है कि यहां दुल्ला की प्रशंसक सुन्दरी मिज़र्ा को भ्रमित करने हेतु उसके कैम्प में प्रवेश कर जाती है। उसके हुसन बारे कवि के शब्द हैं :
कद्द उसदा सरू के रुख वरगा,
चिट्टे वांग बलौर दे दंद जानी।
वह अपनी अदा से उस जरनैल को इतना मोह लेती है कि मिज़र्ा उसे अपने निजी ठिकाने में ले जाता है। यह वह ठिकाना है, जहां उसने गोला-बारूद भी रखा हुआ है और वह तौक भी जिसमें दुल्ला को जकड़ कर अकबर के दरबार में पेश करना है। यहां सुन्दरी भोली बन कर मिज़र्ा को इस तौक को इस्तेमाल करने का तरीका समझना चाहती है तो काम देवता का शिकार हुआ मिज़र्ा उस तौक को अपने सामने रख कर उसमें पांव फंसा लेता है और फिर झुक कर अपना सिर भी तौक में डाल देता है। सुन्दरी दांव खेल जाती है :
मिज़र्ा दसदा सिर ते पैर पा के
उत्तों सुन्दरी मारदी जंद जानी।
अर्थात् दुल्ला को जकड़ने के लिए लाए गए तौक में मिज़र्ा स्वयं ही जकड़ा जाता है और अकबर की सेना दुल्ला के आगे हथियार डाल देती है। यह तथा ऐसे अनेक प्रसंग मैं अपने बचपन में अपने ननिहाल के कवियों से सुन कर बड़ा हुआ हूं। गायकों में गिरधारी लाल तथा मुहम्मद सदीक प्रमुख थे। सदीक का ननिहाल गांव औड़ था, जिसने उसे मुहम्मद सदीक औड़िया बना दिया।
दुल्ला जैसे बारे लिख कर मैं यह बताना चाहता हूं कि उस समय के मनोरंजन सकारात्मक थे। आजकल तो बच्चे मोबाइल के बिना सांस ही नहीं लेते। उनका जीवन मोबाइलों में सिकुड़ कर रह गया है। कल को कृत्रिम बुद्धिमत्ता (ए.आई.) किधर लेकर जाती है, समय बताएगा।
वर्तमान में दुल्ला भट्टी को याद करने का एक कारण यह भी है कि पाकिस्तान के निवासी शहीद-ए-आज़म भगत सिंह को दुल्ला भट्टी कह कर याद करते हैं। भगत सिंह शहीदों के सरताज थे। कुर्बानी का पुतला।