कहानी-मझधार
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
‘अच्छा आने दो बहू को। काका ने कहा- ‘उससे मैं पूछूंगा आखिर उसने कौन सी ऐसी दुखती रंग को पकड़कर झिझोड़ा कि हरदम हंसती चेहरे पर उदासी की परत लहराने लगी।
‘काका अब वह नहीं आएगी।’
‘क्यों बेटा?’ रामू काका अवाक होकर बोले।
‘बस इतना जान लीजिए कि न वह आपकी बहू है ना ही मुझसे कोई रिश्ता। समझ लीजिए हवा का एक झोंका था जो अनजाने में इस आलिशान कोठी के भीतर सोलह साल तक कैद था। और यहां से निकलने का रास्ता तलाश रहा था।
‘तुम क्या कर रहे हो अमरेश।’ काका भौचक सा हो गए थे।
‘जब तक नाव घाट पर न लग जाए उसे किनारा न मिल जाए तब तक भरोसा नहीं किया जा सकता। वह अपने लक्ष्य पर पहुंचेगी या भटक जाएगी।’
रामू काका की आश्चर्यता बढ़ती जा रही थी बोले- ‘बेटे तुम पहेलियां क्यों बुझा रहे हो साफ-साफ कहो ना।’
‘रीता को मंजिल मिल गई काका।’
‘उसकी मंजिल तो तुम हो अमरेश।’
‘नहीं काका उसकी मंजिल मैं नहीं कोई और था।’ इतना कह अमरेश बुझे कदमों से अपने शयनकक्ष की ओर बढ़ा और शीघ्र ही निकलते हुए बोला- ‘काका मेरी अनुपस्थिति में रीता आ भी जाए तो आप एक बुजुर्ग होने के नाते उसे कचरे का ढेर समझकर घसीटकर बाहर का रास्ता दिखा दीजिएगा और उससे कहिएगा कि आज से तुम्हारे लिए इस घर का दरवाजा सदा के लिए बंद हो गया। और मैं जानता हूं ये नौबत शीघ्र ही आने वाली है। क्योंकि इस माह मैंने हास्टल खर्च नहीं भेजा है।’ इतना कह अमरेश दफ्तर जाने के उद्देश्य से कार लेकर शीघ्र निकल गया।
काका अमरेश को खामोशी दृष्टि से जाते देखते रहे। उन्हें पूरा यकीन था कि अमरेश कभी गलत नहीं हो सकता। रीता ने ही उसकी भावनाओं के साथ खेला है। नाली के कीड़े को यदि शुद्ध वातावरण में रखा जाए तब भी वह हमेशा फिसलकर उस ओर ही लपकेगा।
एक-एक कर ऐसे ही कई दिन सरक गए। महीने का पहला सप्ताह बीत गया और अमरेश का मनीआर्डर नहीं आया तो रीता का माथा ठनका। रीता के पास का पैसा कब का समाप्त हो गया था और ऊपर से सहेलियों का उधार भी चढ़ गया था।
रीता अमरेश के बारे में सोचती रही। आखिर क्या बात हो गई अमरेश के साथ। अब तक तो उसे मनीआर्डर मिल जाता था। पत्र में वह हमेशा ही लिखा करता है अमरेश- ‘रीता भले ही मेरी दिनचर्या गड़बड़ा जाए परंतु निश्चित तिथि को पैसा भेजने मैं हरगिज नहीं गड़बड़ा सकता।’ यदि वह निश्चित को पैसे भेजा होता तो अब तक उसे मिल जाना हुए दो चार दिन हो जाना चाहिए था। इधर रमेश भी कई दिनों से नहीं आ रहा। कहीं रमेश ने धोखा दे दिया तो? उसका अस्तित्व खतरे में दिखाई देने लगा। अमरेश में क्या कमी थी जो रमेश की तरह मुखातिब हुई। अपना सर्वस्व तक अर्पित कर दिया।
तभी उसका ध्यान रमेश की तरफ से हटकर अमरेश की ओर चला गया। क्या वह अमरेश को धोखा नहीं दे रही। स्वयं रीता ने भी इधर अमरीश को पत्र लिखना छोड़ दिया है। भले ही उसका आंतरिक मामला कुछ भी हो पर समाज की नज़रों में अमरेश की भावी पत्नी है। अभी वह अकेलेपन से लड़ ही रही थी तभी उसकी सहेली पूजा ने आकर उसकी विचार श्रृंखला भंग की- ‘कहा खोई हो हो रीता। अभी तक तुम्हारा मनीआर्डर नहीं आया?’
‘नहीं पूजा मुझे जाना होगा। लग रहा है अमरेश की तबीयत खराब है। नहीं तो कब का मनीआर्डर आ गया होता।’
‘कब जा रही हो।’
‘कल तड़के सुबह की गाड़ी से।’
सुबह की गाड़ी पड़कर रीता अमरेश के पास आ गई थी। जनरल वार्ड के धक्के खाकर वह थककर चुरा हो गई थी। किसी तरह एक सहेली के समक्ष हाथ पसारकर जनरल वार्ड का किराया जुगाड़ कर पाई थी।
घर में प्रवेश के साथ अपरिचित छाया उसके अंतर्मन को कचोटने लगी थी। उसे लगा कि यह उसका घर है ही नहीं। उस समय अमरेश घर पर नहीं था। रामू काका थे। और वह उनमें एक बदलाव देख रही थी। उसे देखकर हाथों से सामान का थैला लेना तो दूर उसको देखकर उल्टा नाक भौं सिकोड रहे थे। कभी यही रामू काका गेट के अंदर प्रवेश होते ही उसके अगवानी में दौड़े-दौड़े आते और उसके हाथों में झुल रहे थैले को घर के अंदर रख आते।
ड्राइंगरूम में सामान रखकर रीता गुस्से से कड़कते हुए बोली-‘यह क्या देख रही हूं मैं। क्या हो गया आपको। औकात में रहिए काका। नौकर हो तो नौकर की तरह रहा करो।’
‘यही बात तुम अपने गिरवान में झाककर कही होती।’ काका उसी लहजे में बोले।
‘मैं समझी नहीं।’
तुमने अमरेश के साथ कैसा कटु व्यवहार किया जो अमरेश अब तक उदासी के तले जी रहा है।’
‘अमरेश गया था।’ वह भौचक हो बोली- ‘कब?’
‘यही कोई बीस दिन पहले।’
‘नहीं तो...’
‘इतनी भोली न बनो।’ रामू काका विद्रुप सा मुंह बनाकर बोले- ‘उन्हीं की हिदायत है कि तुम आओ तो...’
अभी उनकी बातें अधूरी थी तभी अमरेश की कार अहाते में प्रविष्ट हुई।
‘अब तुम उससे ही पुंछ लो।’
कार पार्किंग में खड़ी करके वह अपने कक्ष में प्रवेश कर गया था। उसने उड़ती निगाहों से रीता को देख कर अंजान बनते हुए निकल गया था।
उसके पीछे-पीछे गुस्से से तमतमाती हुई पुन:रीता भी चली गई थी। जाते ही उससे बोली-‘अमरेश ये तुमलोग क्यों ऐसा कटु व्यवहार कर रहे हो।’
(क्रमश:)