जन-प्रतिनिधियों पर महंगाई की मार !

भारत में कुछ बातें अजीबो गरीब होती हैं। इस देश में एक दिन की सेवा के बाद भी पेंशन मिल रही है, लेकिन बीस से तीस साल की सेवा के बाद पेंशन से वंचित किया जा रहा है। एक तरफ  मधपान निषेध विभाग काम कर रहा है तो दूसरी तरफ  आबकारी विभाग भी फलफूल रहा है। इस तरह के तमाम अजीबों गरीब कार्य हैं जो जनता को विचिलित तो कर रहे हैं, लेकिन आन्दोलित नहीं कर पा रहे हैं। अब महंगाई को देख लें तो महंगाई को लेकर जन-प्रतिनिधि और जनता के बीच अजीबो गरीब स्थिति है। जहां जनता की रहनुमाई करने का दावा करने वाले महंगाई से चितिंत है, वही आम जनमानस जन-प्रतिनिधियों की नज़र में अमीर है। ऐसा इसलिए कि देश में सांसदों और विधायकों से लेकर पार्षद आदि तक जितने भी जन-प्रतिनिधि हैं इन पर महंगाई का असर आम जनमानस से अधिक रहता है। यही कारण है कि मौका पाते ही इनके मानदेय भत्ते बढ़ाये जाने में एक क्षण की भी देर नही की जाती। संसदीय कार्य मंत्रालय की अधिसूचना के मुताबिक, अब सांसदों का वेतन 1 लाख रुपये प्रतिमाह से बढ़कर 1.24 लाख रुपये और दैनिक भत्ता 2000 रुपये से बढ़कर 2500 रुपये कर दिया गया है। इसी प्रकार, पूर्व सांसदों को मिलने वाली पेंशन 25000 रुपये से बढ़ाकर 31000 रुपये प्रति माह कर दी गई है। सरकार का कहना है कि अप्रैल 2018 के बाद पहली बार मुद्रास्फीति के अनुरूप सांसदों के वेतन में वृद्धि की गई है। सांसदों का वेतन और भत्ते में वृद्धि के बाद सरकारी खजाने पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और प्रत्येक सांसद पर हर साल करीब 42.9 लाख रुपये खर्च होंगे। इनमें वेतन, भत्ता और अन्य खर्च शामिल हैं. वहीं कुल सांसदों पर हर साल अनुमानित 3,386.82 करोड़ रुपये खर्च होंगे। सरकार ने सांसदों के वेतन में वृद्धि के पीछे महंगाई और कॉस्ट ऑफ लिविंग को मुख्य आधार बताया है, लेकिन सरकारी आंकड़े सांसदों और आम आदमी के बीच आय असमानता की ओर इशारा करते हैं।
जन-प्रतिनिधियों के वेतन, भत्तों और पेंशन में बढ़ोतरी इस बार भी सवाल उठ रहे हैं। सांसदों के वेतन में चौबीस फीसदी की बढ़ोतरी की गई है। इसी तरह हर भत्ते और पेंशन में बढ़ोतरी हुई है। कहा जा रहा है कि महंगाई दर के मद्देनज़र इस बढ़ोतरी का फैसला किया गया। वेतन, भत्तों और पेंशन में वृद्धि का सूत्र ही महंगाई के मद्देनज़र तय किया गया था, इस लिहाज से यह बढ़ोतरी गलत नहीं कही जा सकती। मगर सवाल है कि क्या आम लोगों की आय में भी इसी अनुपात में वृद्धि हो सकी है? महंगाई पर काबू पाने की तमाम कोशिशों के बावजूद लंबे समय से इसका स्तर भारतीय रिज़र्व बैंक के तय चार फीसदी के मानक से ऊपर बना हुआ है। खाद्य वस्तुओं, फल-सब्ज़ियों, दैनिक उपयोग की वस्तुओं की कीमतें आम लोगों की क्षमता से बाहर हैं। उपभोक्ता सूचकांक के आधार पर स्पष्ट है कि पिछले दस वर्षों में लोगों की आय नहीं बढ़ी है। इस तरह जन-प्रतिनिधियों और आम लोगों की आय में असमानता काफी बढ़ गई है। क्योंकि सांसदों, विधायकों को उस तरह केवल अपने वेतन पर गुज़ारा नहीं करना पड़ता, जिस तरह आम कर्मचारियों, वेतनभोगी लोगों को करना पड़ता है। इसलिए इस बढ़ोतरी को लेकर स्वाभाविक ही सवाल उठ रहे हैं। यह सवाल लंबे समय से पूछा जाता रहा है कि जन-प्रतिनिधियों को खुद अपने वेतन और भत्तों में बढ़ोतरी करने का अधिकार क्यों होना चाहिए? इसके लिए भी एक स्वतंत्र समिति क्यों नहीं गठित की जाती? फिर, उन्हें मिलने वाली पेंशन पर भी सवाल उठते रहे हैं कि जब एक सामान्य कर्मचारी को लंबी सेवा के बाद अब पेंशन की कोई योजना नहीं रह गई है या बहुत मामूली है, तो फिर एक बार चुनाव जीत जाने भर से किसी जन-प्रतिनिधि को जीवन भर पेंशन पाने का हक क्यों होना चाहिए? उस पेंशन की राशि भी एक आम वेतनभोगी से काफी अधिक होती है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जन-प्रतिनिधियों के खर्चे कई तरह के होते हैं और अगर महंगाई के अनुरूप उनके वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी न की जाए, तो उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है, मगर उन्हें मिलने वाले भत्ते इतने हैं कि शायद ही किसी को मुश्किल आती हो। मुफ्त का आवास, वाहन, यात्रा भत्ता, क्षेत्र दौरे के लिए भत्ता, कार्यालय खर्च का भत्ता, संसदीय सत्र के दौरान का भत्ता आदि मिलता है।
एक सवाल यह भी उठता रहा है कि जब राजनेता समाजसेवा का संकल्प लेकर चुनाव मैदान में उतरते हैं, तो उन्हें वेतन-भत्तों आदि का लोभ होना ही क्यों चाहिए? हर वर्ष सांसदों को मिलने वाले वेतन और भत्तों पर भारी राशि खर्च होती है, जिससे सार्वजनिक खज़ाने पर बोझ बढ़ता है। वह सारा खर्च आम लोगों की कमाई से ही जाता है। तो, यह पूछा जाना स्वाभाविक है कि आमजन की चिंता का दावा करने वाले जन-प्रतिनिधि अपने ऊपर होने वाले सरकारी खर्च में कटौती पर विचार क्यों नहीं कर पाते? हमारे देश में जन-प्रतिनिधियों पर कई देशों की तुलना में बहुत अधिक खर्च होता है, इसलिए भी यह बढ़ोतरी लोगों को खटकती है। महंगाई की तुलना में आय में बढ़ोतरी होनी ही चाहिए, लेकिन यह सिद्धांत जब केवल कुछ लोगों तक सीमित कर दिया जाता है, तो अंगुलियां उठती हैं। इस पर विचार आखिर कौन करेगा? सांसदों के वेतनादि में वृद्धि भारत की अर्थव्यवस्था के सापेक्ष एक व्यंग्य के माफिक है। यह देश की सियासत का दुखद पहलू है कि आज कोई भी डॉ. राम मनोहर लोहिया नहीं जो देश के शासकों को वस्तुस्थिति बता सके कि देश के हालात क्या हैं और जो राशि जनता के कल्याणार्थ है, उसे सांसदों पर कैसे खर्च किया जा रहा है। ज्ञात हो कि इसी बजट सत्र में संसद में मनरेगा मज़दूरों की बकाया मज़दूरी का सवाल उठाया गया और कहा गया कि केंद्र सरकार मज़दूरों को उनकी मज़दूरी नहीं दे रही है। यह सरकारी लालफीताशाही का उदाहरण है।  एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में 95 प्रतिशत सांसद ऐसे हैं जिनके पास एक करोड़ से अधिक की सम्पत्ति है। कई सांसदों की सम्पत्ति तो सौ करोड़ रुपये से भी अधिक है। इसके बावजूद इन पर महंगाई की चिन्ता आम आदमी के साथ बेइमानी है।

#जन-प्रतिनिधियों पर महंगाई की मार !