न्यायधीशों द्वारा सम्पत्ति का ब्यौरा देने पर सहमति अच्छा कदम

भारत में सुप्रीम कोर्ट से बड़ी कोई ताकत नहीं है। जब सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों ने अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा देना तय कर लिया है तो निश्चित तौर पर यह कहा जाए कि अब केन्द्र एवं राज्य सरकार के अफसरों से लेकर मुलाज़िमों तक को अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा देना ही पड़ेगा। हालांकि अभी सम्पत्ति का ब्यौरा अफसर और मुलाज़िम अपनी जानकारी के अनुसार दे रहे हैं, लेकिन देर-सबेर उस ब्यौरे की क्रास चेकिंग या जांच का निर्णय भी सरकार द्वारा लिया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने पर जो सहमति जताई है, उसके पीछे कारण चाहे जो भी हो, वह सही दिशा में उठाया गया वाजिब कदम है। इससे न्यायपालिका में पारदर्शिता बढ़ाने में मदद मिलेगी और आम लोगों का उस पर भरोसा मज़बूत होगा। निश्चित तौर पर सुप्रीम कोर्ट को ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता है, जो आम लोगों के लिए न्याय की आखिरी उम्मीद है। फिर भी जस्टिस यशवंत वर्मा के घर कथित तौर पर जली हुई नोटों की गड्डियां मिलने जैसी घटनाओं और उनसे उपजे विवादों से कहीं न कहीं कुछ संदेह भी बनता है। जस्टिस वर्मा के मामले में आंतरिक समिति बनाई गई है। जांच से सारी बातें साफ हो जाएंगी, लेकिन यह भी ज़रूरी था कि इस घटना के चलते जो संदेह पैदा हुआ, उसे दूर किया जाए। यह विषय बहुत पुराना है कि न्यायधीशों को भी अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा करनी चाहिए। 
1997 में सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसके अनुसार हर न्यायाधीश को अपनी सम्पत्ति और देनदारियों के बारे में मुख्य न्यायाधीश को बताना होता है। बाद में, एक और प्रस्ताव आया कि न्यायाधीश चाहें तो अपनी संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक कर सकते हैं, लेकिन अब मामला बिलकुल साफ  है। ऐसे में नौकरशाहों, कतिपय न्यायधीशों, नेताओं, जनप्रतिनिधियों के साथ इंजीनिययर, मीडिया आदि से जुड़े ऐसे व्यक्ति विशेष जिन्होंने आकूत सम्पत्ति विभिन्न कथित तौर पर अनुचित तरीके से जुटा रखी है, उन पर शिकंजा कसना तय है। यह बात अलग है कि इसके परिणाम कुछ देर से आएगें क्योकि भ्रष्टाचार अभी भी चरम पर है। 
सभी जानते हैं कि पिछले लगभग तीन दशक में, यह मामला कई बार उठा है। सूचना का अधिकार लागू होने के बाद यह बहस भी हुई कि न्यायपालिका इसके दायरे में क्यों नहीं। इसके पीछे यही तर्क रहा कि किसी निजी जानकारी को तब तक साझा करने की ज़रूरत नहीं, जब तक उससे सार्वजनिक हित न जुड़े हों। 2010 और 2019 में जब सुप्रीम कोर्ट में यह केस आया था, तब इसी नुक्ते को आधार बनाकर कहा गया कि जानकारी सार्वजनिक करना न्यायाधीशों की इच्छा पर है। सरकार की एक संसदीय समिति ने 2023 में सिफारिश की थी कि न्यायाधीशों के लिए संपत्ति की घोषणा अनिवार्य की जाए। हालांकि सरकार इस मामले में आगे नहीं बढ़ी और बाद में कहा कि उसका ऐसा कोई इरादा भी नहीं है। यह रुख गलत नहीं कहा जा सकता। सरकार की तरफ से किया गया कोई भी प्रयास यह संदेश देता कि न्यायपालिका में अनावश्यक राजनीतिक दखल हो रहा है। न्यायपालिका की साख के लिए उसका स्वतंत्र होना और दिखना भी उतना ही ज़रूरी है। हालांकि यह कदम काफी नहीं है। न्यायपालिका के कामकाज में कई तरह की गड़बड़ियां हैं। कई स्तरों पर न्यायिक सुधार के प्रयास आगे बढ़ाने की ज़रूरत है, लेकिन इस कदम से एक सकारात्मक संदेश ज़रूर गया है कि सर्वोच्च अदालत के जज खुद को भी उन कसौटियों पर कसने में नहीं हिचकते जिन्हें वे दूसरों के लिए ज़रूरी मानते हैं।
ज्ञात हो कि 15 फरवरी, 2018 को चुनाव सुधार को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट ने कानून मंत्रालय से इस बात के लिए नाराज़गी जताई है कि उसने आदेश के बावजूद पिछले कुछ वर्षों में उम्मीदवारों की संपत्ति में आय से अधिक वृद्धि को ट्रैक करने के लिए एक स्थायी तंत्र क्यों नहीं बनाया? सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी कर दो हफ्ते में विधायी विभाग के सचिव से जवाब देने के लिए कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी पूछा था कि फार्म 26 में वह घोषणा शामिल क्यों नहीं की गई है जिसके तहत उम्मीदवार को बताना होता है कि वह जन-प्रतिनिधित्व कानून के किसी प्रावधान के तहत अयोग्य नहीं है। 
सुप्रीम कोर्ट ने ये बातें लोकप्रहरी संस्था द्वारा दाखिल अवमानना याचिका पर सुनवाई के दौरान कही थीं यानि कि एक लम्बे अरसे से विभिन्न संवर्ग के मामले में आय से अधिक सम्पत्ति के मामले सामने आने तथा इनका सीधा सरोकार भ्रष्टाचार से होने के कारण यह मामला सीधे लोकतंत्र की सुचिता से जुड़ा हुआ है। चंद दिनों पूर्व जज श्री वर्मा के यहां करोड़ों रुपये की नगदी के जलने का मामला सामने आने के बाद न्यायपालिका पर उठे सवाल के उपरान्त न्यायधीशों द्वारा सम्पत्ति का विवरण देने सहमति वाकई अगले कुछ सालों में अपना रंग दिखायेगी। हालाकि ब्यौरा देने में अभी इतने छेद हैं कि उनको भरने में समय लगेगा, लेकिन देर-सबेर इसका निर्णय सुखद होगा।

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