बिना झिझक साम्प्रदायिकता का किया जा रहा समर्थन
हमारी राजनीति में एक नयी परिघटना उभर रही है। बिना साम्प्रदायिक हुए साम्प्रदायिकता का साथ देना और बिना भाजपा का सदस्य हुए या उसमें अपने दल का विलय किये, अपना भाजपाकरण करवा लेना। ऐसी कई पार्टियां हैं जो स्वयं को सामाजिक न्याय की पार्टियों की तरह पेश करती हैं। उनका इतिहास भी इसी तरह का है। इनमें एक है नितीश कुमार के नेतृत्व वाली पार्टी जनता दल (यूनाइटेड)। दूसरी है चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी। तीसरी है तेलुगु देशम पार्टी जिसका नेतृत्व चंद्रबाबू नायडू के हाथ में है। चौथी है जयंत चौधरी के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय लोकदल। ये चारों सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सदस्य हैं। इन्हें साम्प्रदायिक पार्टियां तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इनकी राजनीति का कुल योगफल साम्प्रदायिक ही निकल रहा है। इनसे उम्मीद की जाती थी कि ये राजग में भाजपा के ऊपर किसी तरह की संयमकारी शक्ति की तरह काम करेंगी, लेकिन अब यह उम्मीद ़खत्म हो चुकी है। शायद जल्दी ही वह दिन भी आ जाएगा जब ये पार्टियां मुसलमान वोटरों की दावेदारी भी बंद कर देंगी। लगता नहीं कि इस बार मुसलमान मतदाता इन्हें वोट देने के बारे में सोचगा भी।
ह़क़ीकत यह है कि राजग की ़गैर-भाजपा पार्टियां अब पूरी तरह से भाजपामय हो चुकी हैं। न केवल उन्होंने अपने राजनीतिक हितों के मुकाबले भाजपा की राजनीतिक लाइन को तरजीह देनी शुरू कर दी है, बल्कि उनके द्वारा किये जाने वाले सरकार के समर्थन की भाषा उसी तरह से बेहिचक हो गई है जिस तरह हिंदुत्व की विचारधारा में दीक्षित सांसदों और नेताओं की होती है। यद्यपि यह प्रक्रिया पहले से चल रही थी, लेकिन वक्फ संशोधन विधेयक पर संसद में हुई बहस ने इसे त़करीबन प्रमाणित कर दिया है। इससे पहले होली पर मुसलमानों को रंग लगाने या मस्जिदों पर रंग फेंके जाने को लेकर हुए विवाद में उत्तर प्रदेश के कुछ ़गैर-भाजपा नेता भी हिंदुत्ववादी भाषा में बोलते हुए दिख चुके हैं। अगर राजग का कोई सहयोगी किसी मुद्दे पर सरकार का विरोध करने से बचना चाहता है तो उसके सामने अपनी आपत्तियों को कायम रखते हुए नपे-तुले अंदाज़ में कुछ किंतु-परंतु के साथ समर्थन करने का विकल्प रहता है, लेकिन इससे बेपरवाह हो कर सत्तारूढ़ गठजोड़ के सहयोगी भाजपा के वैचारिक हमजोली न होते हुए भी हिंदुत्ववादियों की तरह आचरण कर रहे हैं।
जब अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी ने राजग बनाया था, उस समय ऐसा नहीं था। उस दौर में कई ़गैर-भाजपा नेताओं ने इस गठबंधन के सबसे बड़े दल के हिंदुत्ववादी रुझानों पर संयम लगाने की भूमिका निभाई थी। इसके लिए वे सत्ता छोड़ने और गठबंधन से अलग हटने तक की हद तक चले गए थे। हमें याद है कि गोधरा कांड के बाद गुजरात में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के विरुद्ध रामविलास पासवान ने दिल्ली में मंत्रिपद से इस्तीफा दे दिया था। 2013 में नरेंद्र मोदी जैसे ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने, नितीश कुमार ने सत्ता में रहते हुए राजग छोड़ दिया था। उन्हीं रामविलास के उत्तराधिकारी चिराग पासवान वक्फ संशोधनविधेयक पर अपने ही मुसलमान जनाधार की किसी भी मांग को उठाने की बजाय बिना शर्त समर्थन देते हुए नज़र आए। उन्हीं नितीश कुमार के प्रतिनिधि ललन सिंह संसद में किसी भाजपा सांसद की तरह ही बोलते हुए सुने गए। किसी तरह का संकोच या ़गैर-धार्मिक राजनीति करने वाले नेताओं द्वारा अपनाया जाने वाला वाणी का संयम उनके वक्तव्य से ़गैर-हाज़िर था।
दरअसल, राजग के भीतर की राजनीति पहले जैसी नहीं रह गयी है। वक्फ विधेयक पर बनी संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की कार्यवाई पर एक गहरी नज़र डालने से यह स्पष्ट हो जाता है। पिछले साल अगस्त में जैसे ही यह विधेयक सदन के पटल पर रखा गया, वैसे ही तेलुगु देशम के एक सांसद ने खड़े हो कर इसे जेपीसी के हवाले करने का सुझाव दे दिया। संसदीय कार्यमंत्री किरण रिजुजू के पास एक पर्ची आयी जिसे देख कर उन्होंने पूरी तत्परता से इस मांग को मान लिया। इस जेपीसी में राजग के सदस्य बहुमत में थे, और विपक्ष के अल्पमत में। इस संरचना का लाभ उठाते हुए समिति की कार्यवाही एक ़खास तरह की डिज़ाइन के तहत चलायी गयी। ़गैर-भाजपा विपक्ष ने विधेयक में संशोधन के कुल 45 सुझाव दिये जिन्हें फौरन ़खारिज कर दिया गया। राजग के ़गैर-भाजपा सदस्यों ने 14 सुझाव दिये गये जिन्हें तुरंत स्वीकार कर लिया गया।
इस तरह इस समिति के गठन द्वारा सत्तारूढ़ गठबंधन के ़गैर-भाजपा सदस्यों के लिए विधेयक का समर्थन करने की दलीलें मोटे तौर पर तैयार हो गईं। अगर इन 14 सुझावों पर देखा जाए तो साफ हो जाता है कि इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो आलोचकों द्वारा विधेयक पर की जाने वाली छह-सात प्रमुख आपत्तियों को किसी भी तरह से सम्बोधित करता हो। संयुक्त संसदीय समिति द्वारा आजमायी गयी यह युक्ति शक पैदा करती है कि जनता दल (यू), तेलुगु देशम पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल शुरू से ही इस प्रश्न पर स्वतंत्र रूप से सोचने की बजाय भाजपा के साथ मिल कर इस रणनीति पर काम कर रहे थे।
मुसलमान वोटों को खो देने का डर भी उन्हें इस तरह की राजनीति करने से नहीं रोक पाया। इसका मतलब यह नहीं निकाला जा सकता कि नितीश-नायडू-चिराग-जयंत को मुसलमान वोटों की ज़रूरत नहीं रह गई है। इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि जब इन नेताओं ने तराजू के एक पलड़े पर इन वोटों को, और दूसरे पर केंद्र सरकार में भागीदारी के मौजूदा बंदोबस्त को रखा तो उन्हें लगा होगा कि अगर थोड़े-बहुत वोट कम भी होते हैं तो काम चलाया जा सकता है, लेकिन केंद्रीय सत्ता में भागीदारी और प्रकारांतर से राज्य की सत्ता में हिस्सेदारी कहीं ज़्यादा कीमती और लाभदायक है। नब्बे के दशक में जब राजग बना था, तो स्थिति अलग तरह की थी। वह राजग कांग्रेस द्वारा थोपी जाने वाली केंद्रीकरणवादी नीतियों और क्षेत्रीय शक्तियों को कोने में धकेलने के आग्रह के ़िखल़ाफ एकजुट हुआ था। क्षेत्रीय शक्तियों का समर्थन लेने के लिए भाजपा अपने विचारधारात्मक मुद्दों को ताक पर रखने के लिए भी तैयार हो गई थी। उस समय ़गैर-कांग्रेस सरकार बनाना एक मुश्किल बात थी। आज इन सभी दलों के सामने स़िर्फ एक ही मुद्दा है- सत्ता में साझेदारी का। एक ऐसी सत्ता में जो अटल-आडवाणी के ज़माने की सत्ता के म़ुकाबले कहीं ज़्यादा स्थायी है।
नब्बे के दशक की तरह आज हिंदुत्व का विमर्श संकोच और सतर्कता के साथ नहीं, बल्कि खुल कर और आक्रामक तऱीके से चलाया जा रहा है। ऐसे में भाजपा के सहयोगी हिंदुत्व का साथ देने का सत्तामूलक लाभ उठाने के साथ-साथ उसके विजेताभाव में भी सराबोर होना चाहते हैं।
-लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफैसर और भारतीय भाषाओं में अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।