नई ज़िन्दगी के संदेश

हां जी, हमें ऊंची दुकानों से फीका पकवान खाने की आदत हो गई है। किसी बड़ी दुकान की पहचान इसी बात से होती है कि वह आपको अपना फिसड्डी सामान कितनी ऊंची कीमत पर बेचती है। जितना महंगा सामान, उनती बड़ी दुकान।
बिल्कुल उसी तरह जैसे जितना बड़ा नेता, उतना ही बड़ा जुमला बल्कि अब तो जनसेवा की जगह जुमला सेवा ने ले ली है। जब से कला और साहित्य में संवादों की आपूर्ति कृत्रिम मेधा से प्राप्त करने की उम्मीद बढ़ गई है, तब से ये जुमले नेताओं की ओर तशरीफ ले गये हैं। 
अभी तो ‘एक देश-एक चुनाव’ का थीसिस देश भर में लागू नहीं हुआ, इसलिए जुमलेबाज़ों को अपना प्रदर्शन चुनाव एजेंडा बनाने में नज़र आने लगा है। पहले प्रतियोगी दौड़ें खेल के मैदान में लगती थीं, अब यही दौड़े इन चुनाव एजेंडों के दावे में नज़र आती हैं। एक से बढ़ कर एक रियायत देने का वादा लोगों से किया जाता है। चुनाव जीत गए तो विजयी महामना के सामने यह समस्या पैदा हो जाती है कि अब जनता को मुफ्तखोर बना देने वाले अपने वादों से बचें कैसे? जेब में छदाम नहीं और बीवी चली सपनों का महल बनाने। गद्दी पर बैठते ही नेता जी स्मृतिलोप का शिकार हो जाते हैं और जनता-जनार्दन के सपनों का महल जैसे ताश के पत्तों से खड़ा किया गया हो, बस ढहता नज़र आता है। 
आज जन-कल्याण की जगह जन-रियायत ने ले ली है और दानों की जगह गारण्टियों ने ले ही है। जेब में नहीं दाने, और अम्मा चली भुनाने जैसे मुहाविरों का आजकल कोई मतलब नहीं रह गया, क्योंकि आजकल भट्टियों में दाने नहीं भूने जाते, कच्ची शराब ही निकाली जाती है। उसे अंग्रेज़ी शराब की बोतलों में डाल कर बेचा जाता है, क्योंकि आज के युग का सत्य है नाम बड़े और दर्शन छोटे।
जो अपनी महानता के बारे में जितना ऊंचा चिल्ला सके, वही महान। महानता का यह रोग फैलने की तेज़ी के सामने तो बरसात के दिनों में फैलता मलेरिया भी फीका पड़ जाता है। वैसे जनाब आजकल निरा मलेरिया फैलता क्हां है? बीमारियां भी राजनेता की तरह एक सीढ़ी ऊपर चढ़ गई हैं। आजकर मलेरिया नहीं फैलता, डेंगू होता है। एक कदम आगे चला जाये तो उसका बिगड़ा हुआ रूप गले पड़ जाता है। बीमारियों का रूप जितना भी बिगड़ जाए, दवा की दुकानों के लिए बाज़ारों के लिए शुभ संदेश लाता है। इन बीमारियों की दवा सादा तरीकों से बताने का फार्मूला निकाल कर मण्डी की अभी तक अनबिकी और स्टाक में पड़ी पैरासिटामोल और किरोसिन बेच दी जाती है। 
भई, होनी बड़ी प्रबल है। जिसे मरना है, वह मर जायेगा, चल बसेगा। जिसे बचना है, उसके दरवाज़े से यमराज भी लौट जायेगा। वैसे माना जाता है कि ऐसी बिगड़ी हुई बीमारियां न फैलें, कोई भारी भरकम आयातित नाम वाली बीमारी फैले जिसकी दवा की कम आपूर्ति वाली घोषणा उसकी चोरबाज़ारी करने का न्यौता सबको दे दे। हम नहीं कहते कि हर दवा बेचने वाला यही सब करता है, लेकिन एक मछली जल को गन्दा करने के लिए काफी होती है अगर वह अपना घर भरने पर आमादा हो जाये। 
अपना घर भर सकें कैसे? आजकल जब किसी भी नयी सरकार के सत्तारूढ़ होने पर नये नारों और जुमलों का युग शुरू होता है, तो कह दिया जाता है, कि हम भ्रष्टाचार को शून्य स्तर पर भी सहन नहीं करेंगे। ठीक भी है, सहन क्यों करें जब इसके खेल मैदान में चौके और छक्के लगाने की मंशा हो। हमने तो इस मैदान में हर व्यक्ति शतकवीर भी देखा है। जब उसकी गद्दी छिन जाए तो नयी सरकार के कर्णधार उसके कारनामों की कैग रिपोर्ट मीडिया पटल पर पेश करने में लग जाते हैं। यहां तो हर ओर काजल की कोठरी है। इनसे कैसे बेद़ाग होकर निकलेंगे? कुर्सी छिने नेता के कारनामों का भण्डाफोड़ भ्रष्टाचार उन्मूलन के नाम पर चलता है, जिसे पकड़े गये महानुभाव बदलाखोरी और राजनीतिक उत्पीड़न का नाम देते हैं। उनके विरुद्ध सही प्रमाण जुटा पाने की असमर्थता में जब इनको जमानत मिल जाये, तो इसे सच्चाई की जीत कह कर वे क्रांतिवीर हो जाते हैं। चुनाव के मैदान में उपने शहादती भाषणों के साथ कूद पड़ते हैं। जीत जाने पर जन-प्रतिनिधि संस्थानों को, संसद को, विधानसभाओं को या निगमों को अपने दागी चेहरों से भर देते हैं, क्योंकि देश में चलता है एक स्वर्णसूत्र ‘आरोपित अपराधी नहीं होता।’ जब अपराधी नहीं तो बन्दिश कैसी? वे अब जनता का नेतृत्व नहीं करेंगे तो कौन करेगा? यहां तो राजनीति के नये खून का सूखा पड़ा है। परिवारवाद को नकारने के बावजूद नेता के बेटे ही नहीं, उसके नाती और पोते भी युवा पीढ़ी की राजनीति में अपनी आमद को सार्थक करते हैं। 
जी हां, अपना युग करवट बदलने का मुखौटा धारण करने के बावजूद उसी ढर्रे पर चलता है। दुनिया भर के भ्रष्टाचार के सर्वेक्षणों में अपना दर्जा सुरक्षित रखना है। कटघरे में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरा नेता आंखें तरेरता है कि ‘बच्चू अपना ज़माना भी आएगा। तेरी कुर्सी छिनी तो मैं तुझे अपने से भी बड़ा भ्रष्टाचारी साबित करके अपने द़ागदार परिधान को सफेद बना लूंगा।’
इस दुनिया का कारोबार यूं ही चलता है। नेता जन सेवा करता है, और इसी प्रकार अपने लोगों को शार्टकट संस्कृति के छुआरे बांटते हुए सांस्कृतिक हो जाता है। जो नव-जागरण का संदेश बांटते थे, ऐसे रचनाकार तो आजकल शायद वनवास में चले गये हैं, या समय सत्यों के बदलाव ने उन्हें थके हुए और बासी कह कर नकार दिया है। स्थापना और प्रशस्ति गायन की शोभायात्राओं पर अब उन महापुरुषों का कब्ज़ा हो चुका है, जो अपनी हथेलियों पर सूरज उगाना जानते हैं। तभी तो वे आजकल सोशल मीडिया पर लाइक्स बटोरने का धंधा करते हैं, और अपने अपने शहरों की सीमा-रेखाओं पर कूड़े के डम्पों को पहाड़ों में तबदील करके नये और ऊंचे पहाड़ खड़े कर रहे हैं। देश को सबसे अधिक कमाई पर्यटन क्षेत्र से होती है। लगता है, अब इस कमाई के लिए पहाड़ तलाशने नहीं पड़ेगे, अपने-अपने शहर में ही हमें मिल जाएंगे

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