अंतत: जनता पर ही पड़ता है मुफ्त की रेवड़ी का बोझ

भारत, जो कभी विश्व बैंक और विदेशी सहायता पर निर्भर था, आज विश्व मंच पर एक आत्मनिर्भर और दूसरों की मदद करने वाला देश बन चुका है। संकट के समय में जो देश कभी सहायता के लिए दूसरों की ओर देखता था, वही आज प्राकृतिक आपदाओं और वैश्विक संकट में दूसरे देशों की मदद करने के लिए अग्रिम पंक्ति में खड़ा दिखाई देता है। यह परिवर्तन देश की जनता की मेहनत, कर व्यवस्था में पारदर्शिता और विकास के प्रति सामूहिक समर्पण का परिणाम है, परन्तु देश में प्रगति के समानांतर एक चिंताजनक प्रवृत्ति भी उभर रही है जिसे ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कहा जाता है। जैसे-जैसे राज्यों में विधानसभा चुनाव करीब आते हैं, राजनीतिक दल मुफ्त की सुविधाओं का वादा करके वोट बटोरने की कोशिश में लग जाते हैं। झारखंड का उदाहरण लें, जहां हेमंत सोरेन सरकार ने ‘मइया सम्मान योजना’ के तहत महिलाओं को 1000 रुपये प्रति माह देने की योजना शुरू की, वहीं भाजपा ने भी अपनी रणनीति बदलते हुए 2100 रुपये का वादा किया, फिर आगे चल कर चुनावी समीकरणों के दबाव में हेमंत सोरेन की यह राशि 2500 रुपये तक पहुंच गई।
इसी तरह महाराष्ट्र और दिल्ली में भी भाजपा द्वारा मुफ्त योजनाओं की घोषणाएं की गईं जिससे उन्हें चुनावी सफलता मिली। पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार भी मुफ्त बिजली और मुफ्त की सुविधाओं के वादों से बनी थी। यह प्रवृत्ति एक गंभीर प्रश्न उठाती है कि क्या मुफ्त की योजनाएं देश के आत्मनिर्भरता के मार्ग में बाधाएं तो नहीं बन जाएंगी।
मुफ्त योजनाएं तात्कालिक रूप से जनसमर्थन जुटाने का सरल तरीका भले ही हों, लेकिन लंबे समय में यह देश की आर्थिक मज़बूती, नीति निर्माण के लिए घातक साबित हो सकती हैं। अगर समय रहते इस प्रवृत्ति पर चिंतन नहीं किया गया तो भावी पीढ़ियों को इसका गंभीर खमियाजा भुगतना पड़ सकता है।
हमारे देश की बदलती तस्वीर देखकर आज हर भारतवासी गर्व करता है, चाहे चंद्रयान की सफलता हो या कोरोना काल में वैक्सीन का आत्मनिर्भर निर्माण हो या फिर दुनिया भर में भारत की बढ़ती साख, लेकिन इस सबके बीच एक ऐसा ‘राजनीतिक संक्रमण’ फैल रहा है, जो इस प्रगति की नींव को खोखला कर सकता है, वह है मुफ्तखोरी। आज राजनीतिक दलों द्वारा की जा रही मुफ्त की रेवड़ियां वोट बटोरने का एक सियासी हथियार बन चुकी हैं। साथ ही वोट मांगने का अब तरीका यह हो गया है कि ‘तुम्हें क्या चाहिए, हम देंगे।’ इस एक प्रकार की ‘राजनीतिक रिश्वत’ कहा जा सकता है। 
लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जब सरकारें मुफ्त की सुविधाएं देती हैं तो उनका बोझ अंतत: आम नागरिकों पर टैक्स या महंगाई के रूप में पड़ता है। यह एक छलावा है, जिसमें लोग पाते कम हैं, लेकिन खोते ज़्यादा हैं। यह भी सच है कि मुफ्त की योजनाओं के कारण देश के  कुछ राज्यों की आर्थिक हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि कर्मचारियों को वेतन तक देने के लिए कज़र् लेना पड़ रहा है, मगर फिर भी वहां की सरकारें चुनाव जीतने के लिए मुफ्त की नई-नई योजनाओं की घोषणाएं करती रहती हैं। यह प्रवृत्ति आर्थिक आत्महत्या जैसी है, जिसमें तात्कालिक लाभ के लिए भविष्य को दांव पर लगाया जा रहा है। जहां मतदाता का मूल्यांकन किसी नीति, विकास कार्य या प्रशासनिक योग्यता के आधार पर होना चाहिए, वहीं आज उसकी कसौटी बन चुकी है कि कौन कितनी चीज़ें मुफ्त में देगा? (अदिति)

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