वैश्विक तपिश के लिए विकसित देश अधिक ज़िम्मेदार

वैश्विक तपिश (ग्लोबल वार्मिंग) या धरती की उष्णता की जब भी कहीं चर्चा होती है तो निश्चित तौर पर अमरीका, इंग्लैंड, फ्रांस, इटली, कनाडा, इज़रायल, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड तथा पश्चिम एशिया के सम्पन्न देश इसके लिए ज़िम्मेदार पाये जाते हैं। इन देशों में इस्तेमाल की जा रही वातानुकूलित मशीनें, कल कारखाने, मोटर वाहन एवं अन्य ऐसी मशीनें जिनसे कार्बन डाईऑक्साइड एवं दूषित हवा वायुमंडल में फैलती है, ही वैश्विक तपिश को बढ़ाते हैं। इसका खमियाजा दक्षिण एशिया, दक्षिण अफ्रीका और छोटे-छोटे देशों को भुगतना पड़ता है। वैश्विक तपिश के उपाय के लिए आयोजित बड़े-बड़े सम्मेलनों में यही बड़े देश अपनी ज़िम्मेदारी छोटे-छोटे देश पर डाल कर निवृत्ति हो जाते हैं जबकि सारा किया-कराया इन्हीं देशों का होता है और छोटे-छोटे देश को इसके लिए नियमन पालन की ज़िम्मेदारी सौंप जाती है। भारत जैसे विकासशील देश में आबादी अधिक होने से देश में पेट्रोल, डीज़ल से चलने वाली गाड़ियों और वातानुकूलित यंत्रों यानी एसी की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है, जिससे वातावरण में उष्णता बढ़ती जा रही है। इसके अलावा वनों का विनाश एक गम्भीर समस्या बन गया है। फैक्टरियों से निकलने वाले धुंए से वातावरण विषैला हो गया है और हो रहा है, जिस कारण लोगों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। वनों की कटाई के साथ-साथ कंक्रीट के जंगल धीरे-धीरे गांव की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में शुद्ध वायु की कमी, कम बारिश और जलावयु परिवर्तन के कारण धरती के तापमान में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इसी कारण देश के कई शहरों में तापमान 48 से 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, जो पशु-पक्षियों व  लोगों के लिए असहनीय हो जाता है। 
वैज्ञानिकों के अनुसार वैश्विक तपिश पूरे विश्व के लिए बड़ी समस्या बन गई है। वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी के पास वैश्विक तपिश से बचने के लिए कुल मिलाकर 10 से 15 वर्ष ही शेष है। वैज्ञानिकों की यह बातें और रहस्योद्घाटन मानवता को डराने वाला ज़रूर है, परन्तु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके उपायों की जो घोर अनदेखी की जा रही है, वह अत्यंत चिंतनीय है। 
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिकों के शोध के अनुसार जीवाश्म ईंधन के जलने से वैश्विक तपिश का तापमान तेज़ी से बढ़ा है। वैज्ञानिकों की चेतावनी तथा दिए गए प्रमाण के बाद भी अनेक देश जो कार्बन उत्सर्जन के बड़े ज़िम्मेदार हैं, जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को बंद करने या कम करने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। भारत के अतिरिक्त अमरीका तथा अन्य यूरोपीय देशों जिसमें ब्रिटेन सहित 32 देशों ने जो कार्बन उत्सर्जन एवं जीवाश्म ईंधन के उपयोग के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं, ने सम्मेलन कर इस पर चिंता ज़रूर जताई है, परन्तु इसमें स्पष्ट तौर पर विकसित देशों की दादागिरी दिखाई देती है। यह छोटे व गरीब देशों पर सारी ज़िम्मेदारी लादने का काम कर रहे हैं। विश्व के कुल देशों में से लगभग 50 देश ऐसे हैं जो जीवाश्म ईंधन का उपयोग कर पृथ्वी को धधकाने के कार्य का 60 प्रतिशत तक हिस्सेदारी रखते हैं। 
चीन जो सबसे बड़ा कार्बन का उत्सर्जक  है, ने पर्यावरण पर हुए सम्मेलनों में हिस्सेदारी तो दूर, उसकी तरफ  ध्यान देना भी उचित नहीं समझा। इंटरनेशनल पॉल्यूशन कंट्रोल कमिटी ने चेतावनी दी है कि धरती के तापमान की वृद्धि को डेढ़ डिग्री तक रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन में 43 से 50 प्रतिशत तक कटौती करनी होगी। 2010 से लेकर 2021 तक दुनिया का औसत वार्षिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन मानव इतिहास में सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है जो सर्वाधिक खतरे के निशान से भी ऊपर है। फलस्वरूप जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाली वैश्विक तपिश को रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन को लगभग शून्य पर लाना होगा और इस कार्य के लिए पूरी दुनिया को ऊर्जा क्षेत्र में बड़े बदलाव लाने होंगे। जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल में भारी कमी लानी होगी। विगत 3 वर्षों में अक्षय ऊर्जा स्रोतों में, जैसे सौर एवं पवन ऊर्जा साथी स्टोरेज बैटरी की लागत में आश्चर्यजनक गिरावट आई है, जो लगभग गैस तथा कोयले की कीमत के बराबर हो गए हैं। वैज्ञानिकों ने कहा है कि वर्ष 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को शून्य स्तर पर लाना होगा, अगर ऐसा नहीं किया तो पृथ्वी को तबाह होने से कोई नहीं रोक सकता है। भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो भारत मोटे तौर पर ग्रीन हाउस गैसों के कुल वैश्विक उत्सर्जन में सहित 6.8 प्रतिशत का हिस्सेदार है। 2013 से 2021 के बीच देश के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की मात्रा 17 फीसदी बढ़ी है, राहत की बात यह है कि अब भी भारत का उत्सर्जन स्तर जी-20 देशों के औसत स्तर से बहुत नीचे है। देश में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी 11 प्रतिशत है। भारत की कुल ऊर्जा आपूर्ति में जीवाश्म ईंधन आधारित प्लांटों का योगदान 74 प्रतिशत है। 
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