कहानी-परछाई

गांव के एक सिरे पर एक पुराना, मटमैला सा मकान था। कच्ची दीवार, खपरैल की छत और आंगन में एक बूढ़ा पीपल। इसी घर में रहते थे दीनानाथ जी, उम्र कोई अस्सी के पार, सफेद बाल, कांपते हाथ, और आंखों में थकी हुई सी उम्मीद। कभी ये घर हंसी-ठिठोली का गवाह रहा था। दीनानाथ जी की पत्नी, अब इस दुनिया में नहीं रहीं, पर उनकी यादें हर कोने में बसी थीं।
दीनानाथ जी ने ज़िंदगी भर मेहनत की। कभी किसान, कभी मज़दूर, कभी अध्यापक।
इकलौता बेटा रमेश, जिसे उन्होंने हर हाल में पढ़ाया-लिखाया, अब शहर में एक बड़ी पोस्ट पर कार्यरत था।
शुरुआत में सब कुछ ठीक था। रमेश छुट्टियों में आता, साथ बैठकर खाना खाता, पुराने किस्से सुनता। पर जैसे-जैसे समय बीता, रमेश की व्यस्तता बढ़ती गईं और दीनानाथ जी की ज़रूरतें। उसके लिए बोझ बन गईं।
एक दिन रमेश ने कहा, ‘बाबा, अब आपको शहर आ जाना चाहिए, यहां अकेले क्या करेंगे?’
जब रमेश ने पिता को गांव से शहर बुलाया, तो पहली नज़र में यह एक बेटे का फर्ज लगा।
पर हकीकत कुछ और थी... अंदर ही अंदर रमेश को ये डर सता रहा था कि कहीं गांव में अकेले रहकर बाबा को कुछ हो गया, तो लोग क्या कहेंगे? ‘इतना बड़ा अफसर बन गया, लेकिन बूढ़े बाप को अकेला छोड़ दिया’। ऐसी बातें उसके सोशल स्टेटस को चोट पहुंचा सकती थीं।
उसे ये भी लगा कि पिता का शहर में होना अब एक दायित्व-सिंबल बन सकता है। एक दिखावा कि वो अपने बुजुर्गों की कितनी कद्र करता है।
कहने को उसने दोस्तों से कहा, ‘अब बाबूजी हमारे साथ रहेंगे, हमने तो हमेशा उन्हें अपने सिर का ताज माना है...’ लेकिन असलियत में, उसके लिए बाबूजी अब एक संवेदनशील बोझ थे। जिसे समाज के डर से उठाया गया था, प्रेम से नहीं।
दीनानाथ जी आंखों में चमक लिए बेटे के साथ जाने को तैयार हो गए। उन्हें लगाए बेटा बुला रहा है, अब शायद फिर से वही अपनापन मिलेगा। लेकिन शहर आकर उन्हें समझ आया कि वो सिर्फ एक जिम्मेदारी बन चुके थे।
जब दीनानाथ जी शहर पहुँचे, तो उन्होंने हर बात में अपनापन खोजा। हर कोने में अपने बेटे की याद तलाशने लगे। पर यहां रिश्ते दीवारों पर नहीं, कैलेंडर और समय-सारिणी में टिके थे। बेटा अब समय पर ऑफिस जाता था, बहू व्यस्त रहती थी, और पोती मोबाइल में गुम।
और पिता? वो तो बस उस घर में ‘हों’। इतना ही काफी समझा गया।
छोटे से कमरे में उन्हें एक कोने में बिस्तर मिल गया। टीवी की आवाज़ में उनकी बात कोई सुनता नहीं और मोबाइल की स्क्रीन में डूबे परिवार को उनकी कहानियां अब बोरियत लगती थीं।
एक शाम, पोता राघव, जो कभी उनके कंधों पर चढ़कर चांद को छूने की कोशिश करता था, कह बैठा।
‘दादा जी, ये पुराने कपड़े मत पहना करो, मेरे दोस्त हंसते हैं।’
दीनानाथ जी मुस्कुरा दिए, जैसे कुछ टूटा हो अंदर। उन्होंने सिर हिलाया और चुपचाप मुस्कुरा दिए।
एक सुबह, दीनानाथ जी ने रमेश से कहा, ‘बेटा, पिछले कुछ दिनों से सांस लेने में दिक्कत हो रही है... शायद डॉक्टर को दिखा लेना चाहिए।’
रमेश ने घड़ी देखी, और बोला, ‘बाबा अभी तो ऑफिस के लिए लेट हो रहा हूँ... और वैसे भी, आप तो ठीक ही लग रहे हो। ऐसी छोटी-छोटी बातों के लिए डॉक्टर कहां जाते हैं।’
दीनानाथ जी ने हल्की सी मुस्कान ओढ़ ली, जैसे खुद को ही समझाने की कोशिश कर रहे हों, ‘हां... हां बेटा, ठीक कह रहे हो। शायद मैं ही ज्यादा सोच गया।’
लेकिन आंखें कुछ और कह रही थीं। जैसे उम्मीद की डोर धीरे-धीरे टूट रही हो।
पास बैठी बहू ने भी कहा, ‘बाबूजी, अस्पताल जाने के बाद रिपोर्ट्स करवानी पड़ती हैं, वो सब झंझट आपके लिए नहीं ठीक।’
रमेश वहीं बैठा था, लेकिन चुप रहा।
दीनानाथ जी कुछ पल वहीं खड़े रहे। चेहरे पर हल्की सी मुस्कान ओढ़े, पर आंखों में कुछ टूट रहा था। उन्होंने धीरे से अपनी आंखें पोंछी, ताकि आंसू बहू को न दिखें, और अपने कमरे की ओर बढ़ गए।
कमरे का दरवाजा बंद करते वक्त उन्होंने देखा कि दीवार पर टंगी वो तस्वीर, जिसमें उन्होंने नन्हें रमेश को गोदी में उठाया था। अब भी वहीं थी। उनकी आंखों से आंसू नहीं गिरे, बस रुक कर ठहर गए। जैसे मन ही मन से कहा हो, ‘बुजुर्गों की आंखों में आंसू नहीं होते, सिर्फ स्मृतियों की नमी होती है...’
कमरे की हल्की सी रौशनी में उन्होंने अपने पसीने से भीगी कमी? बदलते हुए बुदबुदाया,
‘कभी मेरा हाथ थाम कर तू डॉक्टर के पास भागा करता था रमेश... आज मैं ही बोझ बन गया हूँ तुझ पर।’
वो खिड़की के पास जाकर बैठ गए, जहां हवा तो चल रही थी लेकिन किसी ने ‘अपनापन’ बंद कर दिया था।
रात में उन्होंने अपनी पुरानी डायरी खोली, जहां उन्होंने अपने बेटे के लिए कविता लिखी थी।
उसकी पहली मुस्कान, पहला स्कूल का दिन, पहली जीत। सब दर्ज था वहां।
लेकिन अब उनके शब्द पढ़ने वाला कोई नहीं था।
कमरे की धुंधली रोशनी में, उनकी परछाई दीवार पर थरथरा रही थी।
वो परछाई, जो अब किसी की ज़िंदगी का उजाला नहीं रही... सिर्फ एक मौजूदगी है, जो नज़र आती है, पर महसूस नहीं की जाती।

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