हमारे जैसा कोई नहीं, बन्धु
‘यह भूली दास्तां लो फिर याद आ गई।’ पुराने गाने सुन कर सिर घुमना लगभग वैसा ही है, जैसे किसी उजड़ी हवेली के पुराने तख्तपोश को सिंहासन मान, उस पर पुराना गाव-तकिया लगा उस पर पसर, हुक्का गुड़गुड़ाते हुए, हम फरमायें जी हां, ‘नहीं क्योंकि ऐसे अंदाज़ में केवल फरमाया जाता है’। यहां अब कहने की जुर्रत किसे पास है। कोई न कुछ कहता है, न किसी के पास उसे सुनने की फुर्सत है, साहिब!
यह फुर्सत क्यों नहीं रही, हम आपको बता नहीं सकते। सिवा इसके कि आम लोगों के पास अब यही अन्दाज़ रह गया है, कि ‘ज़िन्दगी झण्डवा, फिर भी घमण्डवा।’ झण्डवा कह देने पर आपको सिर मुंडे लोग याद आने लगते हैं, जो अपनी बढ़ती हुई गंजी चांद पर उल्टा उस्तरा फिरवा लेते हैं, और फिर अपने तिरोहित सौन्दर्य पर गर्व से सीना तान कर उसका उत्सव मनाने के लिए निकल जाते हैं।
जी हां, आपको यह खबर तो होगी कि इस देश के लोगों को एक वैश्विक सर्वेक्षण में दुनिया के परम सन्तुष्ट लोगों के देशवासी के रूप में गिना गया है। इस देश के लोग दुनिया के सबसे खुश लोगों के देश में गिने जाते हैं, फिनलैंड के बाद। अजब विरोधाभास है बन्धुवर यहां। आम लोगों की खुशहाली का सूचकांक टटोलो, तो अपना देश उसमें बहुत निचले पायदान पर नज़र आता है, लेकिन यह खुशी कहां से आ गई? देश खुश और सन्तुष्ट कैसे नज़र आ गया? कैसे इसके सूचकांक पर शासन करने लगा? कठिन नहीं। वसल जो नहीं हो, उसे मिल गया मान लो। बिल्कुल नई उपलब्धि यह मिली है कि हमने अपनी बढ़ती हुई कीमतों पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया। क्या हुआ जो सोना एक साल में उन्तीस प्रतिशत महंगा होकर लखटकिया हो गया। हमें सोने से क्या लेना? हमारे पास तो तांबे का एक छल्ला भी नहीं, इसलिए हम कह देते हैं, कि हम तो छल्ले माला पहनने में विश्वास नहीं रखते। यह काम हमने ऊंची अटारियों वालों के लिए सुसक्षित कर दिया है। हम तो उधर जा रहे हैं, सस्ते राशन की दुकान के बाहर कतार लगाने। देश गौरवान्वित है। हां, देश गौरवान्वित है कि हम हर बरस देश की अस्सी करोड़ आबादी को सस्ता राशन प्रदान करने का रिकार्ड बना रहे हैं। इस रिकार्ड को बनाये रखने का हमारा पूरा-पूरा संकल्प है। आज़ादी के सौ वर्ष पूरा करने के साथ हम दुनिया के विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आ जाएंगे। वैसे भी आजकल हम अपने आपको विकासशील देश कहने से परहेज़ करते हैं, बल्कि अपने विकसित होते जाने के जागरण सप्ताह मनाते रहते हैं।
हमारे नेताओं की यात्राएं प्राय: जागरण या जन-चेतना पद-यात्राएं होती हैं। इनसे कोई नया जागरण या चेतना पैदा हो गई हो, ऐसा तो हमें नज़र नहीं आया। हमें नमक सत्याग्रह के लिए महात्मा गांधी जी की दांडी यात्रा याद आ जाती है, जिसने जन-जन में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष की भावना पैदा कर दी थी। भावना तो अब भी पैदा होती है, लेकिन यही कि ‘अपने जैसा कोई नहीं’। जो सच मेरे पास है, वह किसी और के पास नहीं। यही क्यों, सच तो मेरे ही पास है। तुमने जो कहा, वह झूठ है।
इसलिए अब जन-चेतना यात्राओं के मुकाबले होने लगे हैं। हर यात्रा अगर आपकी शोभायात्रा में तब्दील हो जाये तो बात ही क्या है। आजकल नारों के लिए जुमलेबाज़ किराये पर लिये जाने की योजना बन रही थी। भला हो इन कृत्रिम मेधा के आविष्कारों का। एक बटन दबाओ, जुमलों की बारात सामने आने लगती है। अब इन जुमलों में एकरसता पैदा हो जाये, तो शिकायत न कीजियेगा क्योंकि मेधा तो वही जुमला निकालेगी न जिस कच्चे माल की धरती उसे प्रदान करोगे। अब धरती अगर संकीर्ण स्वार्थ की होगी, आपाधापी की होगी, छीन-झपट की होगी, तो सिवा आपके योगदान के उसमें से किसी साधारण-जन की चिन्ता की मुखर मांग कैसे निकल सकती है?
अब जब हमें अपनी और अपने परिवार की कुर्सियों का विरासती हलवा बांटने से ही फुर्सत नहीं, तो भला बरसों से फुटपाथ पर उपेक्षित बैठा जन-मानस इसमें अपने लिए कोई जगह कैसे पा सकता है? इन सबचेतना यात्राओं की परिणति विजय यात्राओं में होती है। कठिनाई यह है कि जन-संघर्ष के नाम पर यह पीरों का संघर्ष बन जाता है। यहां संघर्ष बलिदानी कोई नहीं, सभी कुर्सी छीन वीर बनना चाहते हैं। राष्ट्र निर्माण की आस्था को मुखर नारों की नुमायश में रख दिया जाता है, और आगे बढ़ने का रास्ता सिद्धांतहीनता और घर भरने के नये आदर्शों के साथ चलता है।
आज कौन है जो भ्रष्टाचार पर शून्य स्तर पर भी सहन करने की घोषणा से नहीं चलता, लेकिन बरसों बीत गए, महाभ्रष्ट देशों के सूचकांक में अपना दर्जा वही है। जन-प्रतिनिधियों की जमात अपनी पारी खत्म करते करते रंक से राजा हो जाती है। साधारण मकान से प्रासाद हो जाती है, साइकिल से आयातित कार हो गये। एक उद्घोषणा अब ढिंढोरा बन गई लगती है, कि दुनिया की महाबलि आर्थिक शक्तियों में तरक्की करते हुए हम पांचवें स्थान से चौथे स्थान तक पहुंच गये। एक दो बरस में तीसरा स्थान हमारा होगा। आज़ादी के पचहत्तर वर्ष मनाये तो कायाकल्प घोषणाओं की शुरुआत का अमृत बंटा था। अब सौ बरस पूरे होते-होते हम अपनी विकासशील देशों की कतार को छोड़ कर विकसित देश के सिरमौर हो जाएंगे। प्रवेश धमाकेदार होगा। हम अपनी खोई हुई पहचान प्राप्त कर लेंगे, दुनिया का गुरुदेव हो जाने की। एक ऐसा गुरुदेव कि जिसके चेले चाटों में सीटीबाज़ चेलों की बारात सजी है। दर्शक दीर्घा में खड़े हैं देश के करोड़ों पददलित लोग, जिनका काम अब रियायती राशन की दुकानों के बाहर अनुकम्पा के इंताज़र में खड़ा रहना हो गया है। देश गर्वित है कि उसने आज भी अस्सी करोड़ लोगों में रियायती राशन बांटने का रिकार्ड टूटने नहीं दिया, बल्कि अब तो अनुकम्पित लोगों की यह संख्या अस्सी करोड़ पार कर गई। चीन को पछाड़ आबादी के लिहाज़ से दुनिया का सबसे बड़ा देश बन गए हैं न हम। अब जब आबादी बढ़ेगी, तो इन अनुकम्पित लोगों की संख्या भी बढ़नी चाहिए। बिना काम किए भर पेट अनाज पाने वाले लोगों का रिकार्ड तो बना रहना चाहिए, बन्धु!