अव्वल आने की होड़ में छात्रों की आत्महत्याएं चिन्ताजनक
यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं चुनौतीपूर्ण है कि हमारी छात्र प्रतिभाएं आसमानी उम्मीदों, टॉपर संस्कृति के दबाव व शिक्षा तंत्र की विसंगतियों के चलते आत्मघात की शिकार हो रही हैं। हाल ही में लगातार हो रही छात्रों की दुखद आत्महत्याएं जहां शिक्षा प्रणाली की अतिश्योक्तिपूर्ण प्रतिस्पर्धा पर प्रश्न खड़े करती हैं, वहीं विचलित भी करती हैं। इनमें राजस्थान स्थित कोटा के नीट के परीक्षार्थी और मोहाली स्थित निजी विश्वविद्यालय में फोरेंसिक साईंस का एक छात्र भी शामिल है। पश्चिम बंगाल के आईआईटी खड़गपुर में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के तीसरे वर्ष के छात्र मोहम्मद आसिफ कमर का शव उनके हॉस्टल रूम में फंदे से लटका मिला। भुवनेश्वर के कीट में कम समय में दूसरी नेपाली छात्रा की मौत से विश्वविद्यालय की छवि और भारत के विदेशी छात्रों को आकर्षित करने के प्रयासों पर सवाल उठ रहे हैं। नीट के पेपर के तनाव में नूपुर द्वारा नीट पेपर के एक दिन पहले फांसी लगाकर जान देना एवं मौत को गले लगाना हमारी घातक प्रणालीगत विफलता एवं टॉपर संस्कृति की आत्महत्या सोच को ही उजागर करता है। निश्चित रूप से छात्र-छात्राओं के लिये घातक साबित हो रही टॉपर्स संस्कृति में बदलाव लाने के लिए नीतिगत फैसलों की सख्त ज़रूरत है। राजस्थान सरकार की ओर से प्रस्तावित कोचिंग संस्थान (नियंत्रण और विनियमन) विधेयक इस दिशा में बदलावकारी साबित हो सकता है। लेकिन केन्द्र सरकार को भी ऐसे ही कदम उठाने होंगे ताकि छात्रों में आत्महत्या की समस्या के दिन-पर-दिन विकराल होते जाने पर अंकुश लग सके। यह शिक्षा शास्त्रियों, समाज एवं शासन व्यवस्था से जुड़े हर एक व्यक्ति के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।
कोचिंग संस्थानों की बढ़ती बाढ़ एवं गलाकाट प्रतिस्पर्धा में छात्र किस हद तक जानलेवा घातकता का शिकार हो रहे हैं, यह दुखद ही है सुनहरे सपने पूरा करने का ख्वाब लेकर कोटा गए 15 छात्रों ने इस साल आत्महत्याएं की हैं। विडंबना यह है कि बार-बार चेतावनी देने के बावजूद कोचिंग संस्थानों के संरचनात्मक दबाव, उच्च दांव वाली परीक्षाओं, गलाकाट स्पर्धा, दोषपूर्ण कोचिंग प्रथाओं और सफलता की गारंटी के दावों का सिलसिला थमा नहीं है। यही वजह है कि हाल ही में केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण यानी सीसीपीए ने कई कोचिंग संस्थानों को भ्रामक विज्ञापनों और अनुचित व्यापारिक प्रथाओं के चलते नोटिस दिए हैं। दरअसल, कई कोचिंग संस्थान जमीनी हकीकत के विपरीत शीर्ष रैंक दिलाने और चयन की गारंटी देने के थोथे एवं लुभावने वायदे करते रहते हैं। नि:संदेह, इस तरह के खोखले दावे अक्सर कमजोर छात्रों और चिंतित अभिभावकों के लिये एक घातक चक्रव्यूह बन जाते हैं। छात्रों को अनावश्यक प्रतिस्पर्धा के लिये बाध्य करना और योग्यता को अंकों के जरिये रैंकिंग से जोड़ना कालांतर में अन्य छात्रों को निराशा के भंवर में फंसा देता है। वास्तव में सरकार को ऐसा पारिस्थितिकीय तंत्र विकसित करना चाहिए, जो विभिन्न क्षेत्रों में रुचि रखने वाले युवाओं के लिये पर्याप्त संख्या में रोज़गार के अवसर पैदा कर सके। वास्तव में हमें युवाओं को मानसिक रूप से सबल बनाने की सख्त ज़रूरत है, तभी भारत सशक्त होगा, विकसित होगा।
पारिवारिक दबाव, शैक्षणिक तनाव और पढ़ाई में अव्वल आने की महत्वाकांक्षा ने छात्रों के एक बड़े वर्ग को गहरे मानसिक अवसाद में से गुजरने को विवश कर दिया है। युवाओं को भी सोचना होगा कि ज़िंदगी दोबारा नहीं मिलती। इसे यूं ही तनाव में आकर न गंवाएं, बल्कि ज़िंदगी में आने वाली कठिनाइयों का डटकर मुकाबला करें। पढ़ाई में असफल रहने के कारण कुछ बच्चों पर मानसिक दबाव बढ़ रहा है। हर परिवार की अपने बच्चों से अनेक अपेक्षाएं होती हैं। अधिकतर युवा जिंदगी में आने वाली समस्याओं को बर्दाश्त नहीं कर पाते और वे अपनी बात किसी से साझा तक नहीं करते। प्रतिभागियों को बताया जाना चाहिए कि कोई भी परीक्षा जीवन से बड़ी नहीं होती। छात्रों की आत्महत्या की घटनाएं तथाकथित समाज एवं राष्ट्र विकास एवं शिक्षा की विडम्बनापूर्ण एवं त्रासद तस्वीर को बयां करती हैं।
वैसे छात्रों की आत्महत्या कोई नई बात नहीं है। ऐसी खबरें हर कुछ समय बाद आती रहती हैं। रिकॉर्ड बताते हैं कि पिछले एक दशक में कोचिंग संस्थानों में ही नहीं, आईआईटी जैसे संस्थानों में भी 52 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। यह संख्या इतनी छोटी भी नहीं कि ऐसे मामलों को अपवाद मानकर इसे नज़रअंदाज कर दिया जाए। बेशक ऐसे हर मामले में अवसाद का कारण कुछ अलग रहा होगा। वे अलग-अलग तरह के दबाव होंगे, जिनके कारण ये छात्र-छात्राएं आत्महत्या के लिए बाध्य हुए होंगे। ऐसे संस्थानों में जहां भविष्य की बड़ी-बड़ी उम्मीदें उपजनी चाहिएं, वहां अगर दबाव और अवसाद अपने लिए जगह बना रहे हैं और छात्र-छात्राओं को आत्महत्या करने को विवश कर रहे हैं तो यह एक काफी गंभीर मामला है। शैक्षणिक दबावों के चलते छात्रों में आत्महंता होने की घातक प्रवृत्ति का तेज़ी से बढ़ना हमारे नीति-निर्माताओं के लिये चिन्ता का कारण बनना चाहिए। क्या विकास के लम्बे-चौड़े दावे करने वाली भारत सरकार ने इसके बारे में कभी सोचा? क्या विकास में बाधक इस समस्या को दूर करने के लिये सक्रिय प्रयास शुरू हुए?
यह माना जाता है कि देश की सबसे प्रखर प्रतिभाएं इन्हीं कोचिंग संस्थानों में पहुंचती हैं, जहां लगातार हो रही आत्महत्या की खबरें यह भी बताती हैं कि कोचिंग संस्थानों में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। साथ ही वे बहुत से बच्चों और उनके अभिभावकों के सपनों को तोड़ते हैं लेकिन उनकी उम्मीद की सांसों को छीन लेते हैं। बहुत ज़रूरी है कि कोचिंग संस्थान अपनी कार्यशैली एवं परिवेश में आमूल-चूल परिवर्तन करें ताकि छात्रों पर बढ़ते दबावों को खत्म किया जा सके। इन दबावों के कारण ही कुछ छात्र आत्महत्या जैसा कदम उठाने को मजबूर हो जाते हैं। जब छात्रों में अव्वल आने की मनोवृत्ति, कैरियर एवं ‘बी नम्बर वन’ की दौड़ सिर पर सवार होती है किन्तु उसे पूरा करने के लिये साधन, क्षमता, योग्यता एवं परिस्थितियां नहीं जुटा पाते हैं, तब कुंठित, तनाव एवं अवसादग्रस्त व्यक्ति को अन्तिम समाधान आत्महत्या में ही दिखता है।