जातिगत जनगणना के अहम पहलू
भारत में जाति-आधारित आंकड़ा संग्रह का एक लंबा इतिहास है, जिसमें वर्ष 1931 तक की जातियों की सूचना शामिल है। वर्ष 1951 के बाद जातिगत आंकड़ों का संग्रह बंद करने का निर्णय लिया गया ताकि इस विभाजनकारी दृष्टिकोण से बचा जा सके और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया जा सके। हालांकि, बदलती सामाजिक-राजनीतिक गतिशीलता और सटीक सूचना की आवश्यकता को देखते हुए जातिगत जनगणना का नए सिरे से आह्वान किया जा रहा है। जाति जनगणना के विरोधियों का तर्क है कि जाति-आधारित भेदभाव अवैध है और जातिगत जनगणना जाति व्यवस्था को सबल ही करेगी। उनका मानना है कि लोगों को उनकी जातिगत पहचान के आधार पर वर्गीकृत करने के बजाय सभी नागरिकों के लिये व्यक्तिगत अधिकारों और समान अवसरों पर ध्यान केंद्रित करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। आलोचकों का तर्क है कि इससे समाज में भ्रम, विवाद और विभाजन की वृद्धि की स्थिति बन सकती है। यद्यपि जातिगत जनगणना के पक्ष और विपक्ष, दोनों में ही प्रबल तर्क मौजूद हैं, सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने और संसाधनों के समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिये ओबीसीएस एवं अन्य समूहों की आबादी पर सटीक आंकड़े का होना आवश्यक है। जातिगत जनगणना सकारात्मक कार्रवाई नीतियों की प्रभावशीलता की निगरानी करने और भारतीय समाज की एक व्यापक तस्वीर प्रदान करने में भी मदद कर सकती है। नीति निर्माताओं के लिये अधिक न्यायसंगत और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण करने के लिये दोनों पक्षों के तर्कों पर सावधानीपूर्वक विचार करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
बहरहाल मोदी सरकार ने जातिवार जनगणना कराने का अप्रत्याशित निर्णय ले लिया। इसके पहले 1931 में अंग्रेजों ने ऐसी जनगणना कराई थी। हालांकि इसकी समय-समय पर मांग होती रही। मनमोहन सरकार ने कुछ क्षेत्रीय दलों के दबाव में 2011 में सर्वेक्षण की शक्ल में सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना कराई, लेकिन गलत आंकड़ों के कारण उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया। पिछले कुछ समय से राहुल गांधी जातिवार जनगणना की मांग पर बहुत जोर दे रहे थे। वे इस मामले में सपा, राजद जैसे दलों को भी पीछे छोड़ रहे थे। यह इसलिए हैरान करने वाला था, क्योंकि कांग्रेस कभी भी जातिगत जनगणना के पक्ष में नहीं रही। जनगणना के साथ जातिवार गणना में कोई बुराई नहीं, लेकिन खतरा यह है कि सामाजिक न्याय की बात करने वाले नेता जातिगत जनगणना के जरिये सामाजिक खाई को निश्चित तौर से बढ़ावा देंगे। वैसे भी बिना जातिये जनगणना के जातिगत मतभेद भारत में आम है। कई राजनैतिक दल जातिगत आधार पर ही क्षेत्रीय राजनीति में टिके हुए है। यह खतरा वास्तविक है, क्योंकि कई दल जाति विशेष की बात ही नहीं करते, उन्होंने खुद को कुछ विशेष जातियों के हितैषी दल के रूप में ही उभारा है। वे साफ तौर पर कुछ जातियों को दूसरी जातियों के खिलाफ खड़ा करते हैं। यह सामाजिक न्याय नहीं, अन्याय है। यह राजनीति जातीय विभाजन और जातीय वैमनस्य को बढ़ाती है। ऐसी राजनीति सामाजिक एकजुटता को कमजोर कर सकती है। ऐसा न होने पाए, इसके लिए कुछ जतन करने ही होंगे। आरएसएस ने अवश्य इसका समर्थन किया। तब कांग्रेस और कुछ क्षेत्रीय दल जाति आधारित जनगणना पर जोर देने में लगे हुए थे। सबसे ज्यादा जोर राहुल गांधी दे रहे थे, जबकि नेहरू से लेकर नरसिंह राव तक ने इसकी ज़रूरत नहीं समझी। यह तय है कि जातिगत जनगणना कराने के फैसले पर जहां कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल इसका श्रेय लेंगे, वहीं भाजपा इसे सामाजिक न्याय केंद्रित अपनी पहल बताएगी।
अब यक्ष प्रश्न यह है कि जाति आधारित जनगणना सामाजिक न्याय में सहायक बनेगी या फिर जातिवादी राजनीति के नए दरवाजे खोलेगी? यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि जातिगत जनगणना के आंकड़ों का उपयोग किस तरह किया जाता है। चूंकि जाति भारतीय राजनीति की एक सच्चाई है, इसलिए सैद्धांतिक तौर पर यही उचित दिखता है कि जब सामाजिक कल्याण की योजनाओं के क्रियान्वयन में जातियां एक आधार बनती हैं, तब फिर इसके स्पष्ट आंकड़े होने ही चाहिए कि किस जाति के कितने लोग हैं और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति क्या है। अभी तक अनुसूचित जातियों-जनजातियों की तो गिनती होती रही, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी की नहीं। अब सभी जातियों की गिनती होगी। यह गिनती मुस्लिम, ईसाई और अन्य समुदायों में भी होनी चाहिए, क्योंकि कोई दावा कुछ भी करे, जाति और उसके आधार पर विभेद सब जगह है। इससे भी ज्यादा आवश्यक, बल्कि अनिवार्य यह है कि जातिगत जनगणना जातिवाद की राजनीति का हथियार न बने और वह भारतीय समाज को विभाजित न करने पाए। इस अंदेशे को दूर करने के कुछ ठोस उपाय होने ही चाहिए कि जाति आधारित जनगणना जातीय विभाजन का कारण न बनने पाए। यह अंदेशा इसलिए है, क्योंकि यह किसी से छिपा नहीं कि कई राजनीतिक दल खुले रूप से जाति की राजनीति करते हैं। वे अमुक-अमुक जातियों का नेतृत्व करने के लिए केवल जाने ही नहीं जाते, बल्कि ऐसा दावा भी करते हैं। जाति आधारित जनगणना का लाभ है तो हानि भी। इससे बेहतर और कुछ नहीं कि जातिगत जनगणना वंचितों-पिछड़ों के उत्थान में सहायक बने, लेकिन यदि वह विभाजन को बल देती है तो देश की एकजुटता प्रभावित करती है तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं होगा।