मनोरंजन उद्योग और हम भारत के लोग
भारतीय जन-मानस के भीतर मनोरंजन उद्योग ने लगता है कि काफी पैठ बना ली है। एक ओर तो आर्थिक विकास हुआ है, दूसरी तरफ प्रतिभाशाली भारतीय युवा के लिए एक दरवाज़ा खुल गया है। जिसमें उनकी सम्भावनाओं की परख के लिए पहले से अधिक अवसर मौजूद हैं। धार्मिक और आदर्शवादी फिल्म से यथार्थ का दौर तब आया जब भूमंडलीकरण और उसके बाद परिवार व्यवस्था पर फिल्में बनने लगीं। धीरे-धीरे फिल्में ओ.टी.टी. प्लेटफार्म का स्वरूप ग्रहण करने लगी। फिल्म से दर्शक का पलायन, फिल्म के कलाकारों की भी दिलचस्पी बनी। रोचक संगीत का सहारा लिया गया। अलग रूप से मनोरंजन उद्योग का हिस्सा बनीं।
मनोरंजन उद्योग में फार्मूला पहले भी काम करता था। अब तो ए.आई. के प्रयोग से बुरे को बहुत बुरा और अच्छे को बहुत अच्छा बनाया जा रहा है। देखते-देखते फिल्म उद्योग या मनोरंजन इंडस्ट्री 2.3 ट्रिलियन रुपये की हो चुकी है और करोड़ों लोगों को रोजी-रोटी उपलब्ध करवा रही है।
मनोरंजन उद्योग का दायरा काफी बड़ा है। टी.वी., रियलिटी शो, फिल्म, रेडियो, एनिमेशन, विजुअल इफैक्ट, संगीत, खेल, जिसमें डिजिटल श्रेय अपनी जगह बना चुकी है प्रमुख हैं ही। विज्ञापन, लाइव इवेंट, फेसबुक, इंस्टाग्राम, पत्र, पत्रिका, किताबें सभी कुछ मिलाकर काफी बड़ा मनोरंजन उद्योग है। इससे जन-मानस प्रभावित होता है, कभी उसे दिशा मिलती है कभी दिशा से भटक भी सकता है। प्रभाव सूक्ष्म और व्यापक होता है। मसलन एक रियलिटी शो में मानवीय संबंध बहुत गलत तरह के प्रोजैक्ट होते हैं।
मनोरंजन उद्योग का एकमात्र लक्ष्य होता है किसी भी तरह सामान्यजन के मन-मस्तिष्क को अपहृत कर लिया जाए। इसके लिए बेशक किसी भी हद तक जाना पड़े। सपने सभी के पास होते हैं। मनोरंजन उद्योग अपनी पेशकश में इन सपने को पूरा करने की जुगत लगाता है जो यथार्थ का आभास देते हैं, और यथार्थ होते नहीं। इस तरह लोगों की दिलचस्पी और आरजू बिक जाती है।
भारत के छोटे-छोटे शहरों से लोग सिनेमा को खास अर्थ देने की कोशिश में हैं। वे लीक से हट कर काम कर रहे हैं। गुरमीत मोंगा, रीमा दास, विक्रमादित्य मोरवाने, अलंकृत श्रीवास्तव, नीरज घेवान इसी कोशिश में हैं। ये केवल मनोरंजन पर ज़ोर नहीं देते। सार्थकता की तलाश में रहते हैं और नया विश्लेषण करते हैं। इससे लगता है कि नए रास्ते तलाशे गए हैं और इस दिशा में आगे बढ़ने की ज़रूरत भी है। बाज़ार की फितरत होती है कि मनुष्य को अकेला कर दें, ताकि उसके गम में फंसकर आदमी सोच समझे बगैर उनके जाल में फंसता चला जाए। लोगों को अकेला करके छोड़ा जा रहा है।
मनोरंजन और उद्योग के नए आंकड़े भरोसा देने वाले हैं। भारत अपना 98 प्रतिशत समय मोबाइल या मीडिया एप पर गुजारता है। अब दर्शक केवल दिखाने वालों के भरोसे नहीं है। वह अपनी मर्जी से मनचाहे प्लेटफार्म पर मनचाहा कार्यक्रम चुन सकता है। हिन्दी प्रदेश उर्वर है। सो निराशा का कोई कारण नहीं। आज गलत को जगह नहीं देंगे तो इसे भागना पड़ेगा। वे हमारी दिलचस्पी की परीक्षा ही तो ले रहे हैं।