फिर अराजकता की ओर बढ़ सकता है सीरिया
जिस देश ने बीते दशक में क्रूरता का सबसे भयावह चेहरा देखा, वहां एक बार फिर अशांति की परछाइयां गहराने की आशंका हैं। अमरीकी सेना की वापसी से सीरिया में अराजकता फिर से बढ़ने के आसार है। सेना के सीरिया से हटने के बाद इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकवादी समूहों के फिर से मज़बूत होंगे। इसके अलावा तुर्की और सीरियाई सरकार के बीच संघर्ष बढ़ सकता है क्योंकि तुर्की सीरियाई कुर्दों के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है।
गत दिसम्बर की शुरुआत में जैसे ही बशर अल-असद की सत्ता का अंत हुआ तो उम्मीद जगी थी कि देश में लोकतंत्र और स्थायित्व आएगा। एक नए दौर की शुरुआत होगी, लेकिन अब साफ होता जा रहा है कि यह सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं था बल्कि एक और भयंकर संक्रमण काल का प्रवेश द्वार था। असद के जाने के बाद सीरिया में जो सत्ता का शून्य पैदा हुआ, वह तेज़ी से अराजकता में बदलता जा रहा है और इसी अराजकता की दरारों से झांक रहा है वही पुराना डरावना चेहरा—इस्लामिक स्टेट यानी आईएसआईएस।
सीरिया में अमरीका की सैन्य मौजूदगी अब नाम मात्र की रह गई है। उत्तर-पूर्वी सीरिया में अमरीका ने अपने दो प्रमुख सैन्य अड्डों अल-ओमर और ताल बायदर से सैनिकों को हटा लिया है। अब इन ठिकानों पर न निगरानी कैमरे हैं, न गश्ती दस्ते। बस बची हैं सीरियन डेमोक्रेटिक फोर्सेस (एसडीएफ ) की कुछ छोटी टुकड़ियां जो खुद को निहत्था और असहाय पा रही हैं। इन अड्डों पर कभी अमरीका का स्पष्ट दबदबा था। इन्हीं से आईएसआईएस की कमर तोड़ी गई थी। अब जब ये लगभग खाली पड़े हैं तो सवाल उठता है कि क्या आईएसआईएस की वापसी का रास्ता खुद अमरीका ने खोल दिया है?
यह सवाल अब और तीव्रता से पूछा जा रहा है कि क्या अमेरीका ने एसडीएफ को बीच रास्ते में छोड़ दिया? वही एसडीएफ जिसे अमरीका ने खड़ा किया था, प्रशिक्षित किया था और आईएसआईएस के खिलाफ सबसे आगे रखा था। एसडीएफ आज खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। इसके कमांडर मजलूम अब्दी का कहना है कि हमने अमरीका पर विश्वास किया, उनके निर्देशों पर युद्ध लड़ा, लेकिन अब वही अमरीका हमें अधर में छोड़कर जा रहा है। यह पहली बार नहीं है जब अमरीका पर ऐसा आरोप लगा हो। अफगानिस्तान, यूक्रेन और अब सीरिया, तीनों ही उदाहरण हैं जहां अमरीका ने रणनीतिक ज़रूरत के समय साथ निभाया और फिर अपने हित सधते ही कदम पीछे खींच लिए। दुनिया अब सवाल कर रही है कि क्या अमरीका सिर्फ तब तक साथ देता है जब तक उसे राजनीतिक और सैन्य लाभ मिलता है?
सीरिया में अमरीका की वापसी से जो खालीपन पैदा हुआ है, उसे भरने के लिए अब रूस, ईरान और तुर्की जैसे देश तैयार बैठे हैं। रूस असद शासन का पुराना समर्थक रहा है और अब वहां की स्थिति पर अपनी पकड़ और मजबूत कर रहा है। ईरान समर्थित मिलिशिया समूह भी अब फिर से उत्तर-पूर्वी सीरिया में सक्रिय होने लगे हैं। वहीं तुर्की शुरू से एसडीएफ को कुर्द विद्रोहियों के रूप में देखता है और लगातार उनकी गतिविधियों को सीमित करने की कोशिश में जुटा है। बहरहाल एसडीएफ तीन दिशाओं से दबाव में है—आईएसआईएस की वापसी, तुर्की का सैन्य दबाव और अमरीका का साथ छोड़ना। ऐसे में यह सवाल लाज़िमी है कि क्या एसडीएफ इस सबके बीच अकेले टिक पाएगा? इतिहास गवाह है कि जब-जब सुरक्षा बल किसी संकटग्रस्त क्षेत्र से हटे हैं, वहां चरमपंथी संगठनों ने अपनी जड़ें और मजबूत की हैं। सीरिया की वर्तमान स्थिति उसी दोहराव की ओर इशारा कर रही है। इस्लामिक स्टेट जो कभी ख़त्म मान लिया गया था, अब फिर से दमिश्क, रकक्का, हामा और डेर-एज़-ज़ोर जैसे शहरों में सक्रिय होता दिख रहा है। उसने सीरियाई शासन के पतन के बाद सरकारी हथियार डिपो से गोला-बारूद लूट लिए थे। एसडीएफ कमांडर अब्दी ने चेताया है कि आईएसआईएस अब फिर से हथियारों से लैस है और आतंक के पुराने नेटवर्क दोबारा सक्रिय कर रहा है।
संयुक्त राष्ट्र ने सीरिया की स्थिति पर चिंता तो जताई है, लेकिन ठोस कदम उठाने की दिशा में कोई पहल नहीं हुई है। जब यूक्रेन पर हमला होता है, तब अंतर्राष्ट्रीय समुदाय सक्रिय हो जाती है, लेकिन सीरिया जैसे देशों में जब मानवीय संकट लौटता है, तो सिर्फ ‘चिंता’ जताई जाती है, कार्रवाई नहीं होती। वहां के आम नागरिक इसकी कीमत चुकाते हैं। बीते दो महीनों में ही सीरिया में 1 लाख से ज्यादा लोग फिर से विस्थापित हुए हैं। स्कूल बंद हैं, अस्पतालों में दवा नहीं है, बिजली और पानी की आपूर्ति ठप पड़ी है। (अदिति)