दो देशों के युद्ध में ‘चौधरी’ बनता तीसरा मुल्क
जब धरती की छाती पर युद्ध के नाल बजते हैं तो केवल वे दो मुल्क नहीं कांपते जो एक-दूसरे के विरुद्ध शस्त्र उठाते हैं। कांपती है मानवता, कांपती हैं सीमाएं और सबसे अधिक उभरती है एक तीसरी परछाईं, वह देश जो स्वयं युद्ध के मैदान में नहीं उतरता पर हर दिशा, हर निर्णय, हर विनाश में उसका हित छिपा होता है। वह युद्धरत पक्षों का ‘मध्यस्थ’, ‘मित्र’ या ‘शांति-स्वर’ कहलाता है परंतु उसके पीछे छिपा होता है सत्ता का वह लालच, जो रक्त की धाराओं में अपना विस्तार खोजता है। इतिहास की गहराइयों में झांके, तो पाएंगे कि दो विश्व युद्धों ने दुनिया को केवल विभाजित नहीं किया, उसने सत्ता की परिभाषा बदल दी। निर्णायक वही नहीं रहा जो मैदान में लड़ा, बल्कि वही हुआ जो अपने विचारों, संधियों और वित्तीय सहायता से बना।
युद्ध यूरोप की गलियों में भड़का। ब्रिटेन, फ्रांस, रूस एक ओर, जर्मनी और ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य दूसरी ओर। प्रारंभ में अमरीका तटस्थ रहा, मानो वह युद्ध से परे था। पर भीतर ही भीतर वह लोहे और बारूद का व्यापारी बनता गया। 1917 में जर्मनी के एक संकेत (ज़मिरमन टेलीग्राम) और समुद्री हमलों ने अमरीका को अवसर दिया और वह उतर आया युद्ध के नाम पर दुनिया के निर्णायक मंच पर। शांति के बाद वुडरो विल्सन ने ‘लीग ऑफ नेशंस’ की बात की और अमरीका ने स्वयं को विश्व का नियंता बताना आरंभ किया। यह शांति नहीं थी, यह प्रभुत्व की शुरुआत थी। युद्ध दूसरों ने लड़ा मगर उसका साहित्य और संविधान अमरीका की मेज पर लिखा गया।
दूसरे महायुद्ध ने केवल जर्मनी और जापान को नहीं तोड़ा, उसने दुनिया को दो हिस्सों में बांट दिया। एक ओर अमरीका, दूसरी ओर सोवियत संघ। युद्ध की विभीषिका के बाद अमरीका ने मार्शल प्लान के नाम पर यूरोप को फिर खड़ा किया पर हर ईंट पर उसका नाम उकेरा गया। उधर रूस ने पूर्वी यूरोप में लाल झंडे गाड़े और विश्व शीत युद्ध के दो छोरों में बंट गया पर आश्चर्य यह कि युद्ध समाप्त हो गया था, फिर भी नियंत्रण, भय और गठबंधनों का नया खेल शुरू हो गया। युद्ध का मैदान भले शांत था पर ‘चौधरी’ बनने की होड़ और भी तीव्र थी। इस बार बंदूकें पीछे थीं पर डॉलर, विचारधाराएं और सैन्य गठबंधन (नाटो, वारसा) आगे।
रूस और यूक्रेन की जंग, गाज़ा पट्टी का संघर्ष, या ताइवान की ओर चीन की निगाहें। हर बार तीसरा कोई देश, अपने ‘शांति प्रस्ताव’, ‘हथियार आपूर्ति’ और ‘राजनयिक दवाब’ के साथ उपस्थित होता है। अमरीका, चीन, रूस ये आज भी वही भूमिका निभा रहे हैं जो पहले अमरीका अकेले निभाता था। युद्धरत राष्ट्रों के जख्मों पर मरहम नहीं, बल्कि रणनीतिक निवेश किया जाता है। हथियार बेचे जाते हैं, ऋण दिए जाते हैं, और बदले में अधिकार छीन लिए जाते हैं। आज ‘शांति’ भी एक व्यवसाय बन चुकी है, और ‘चौधरी’ वही है जो उस व्यवसाय का सबसे बड़ा व्यापारी है।
भारत का स्वभाव ऐतिहासिक रूप से गुटनिरपेक्ष रहा है पंचशील, बुद्ध का दर्शन, गांधी का सत्य। पर बदलती दुनिया में भारत अब केवल दर्शक नहीं, बल्कि धीरे-धीरे निर्णायक बनने की ओर बढ़ रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत ने न तो पक्ष लिया, न ही विरोध पर ऊर्जा समझौतों से लेकर वैश्विक मंचों पर दखल तक, भारत ने संकेत दे दिया कि उसके अंदर भी ‘चौधराहट’ है। वह भी ‘तीसरे देश’ की भूमिका में उतरने की तैयारी में है लेकिन भारत का ‘चौधरी’ बनना तभी सार्थक होगा, जब वह युद्ध से नहीं, समझ से, हथियार से नहीं, विचार से नेतृत्व करे।
जब दो राष्ट्र एक-दूसरे पर बंदूकें ताने होते हैं, तब तीसरा राष्ट्र मंच पर उतरता है। हाथ में सफेद झंडा और जेब में सौदे। वह शांति का पुजारी बनता है, पर उसकी नज़रें जमीन, सत्ता और संसाधनों पर होती हैं। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों ने दुनिया को यही सिखाया कि युद्ध का अंतिम निर्णायक कभी भी केवल बंदूक नहीं होती, बल्कि वह होता है जो निर्णय की चाबी अपने हाथ में रखता है। आज भी वही कथा नए किरदारों के साथ दोहराई जा रही है।
युद्ध अगर आग है, तो तीसरा देश उस पर अपनी रोटियां सेंकता है कभी मध्यस्थ बनकर, कभी मित्र बनकर, कभी शांति का प्रचारक बनकर। पर वह सबसे ज्यादा ताकतवर वही बनता है जो युद्ध में नहीं लड़ता बल्कि युद्ध को संभालता, नियंत्रित करता और अपने पक्ष में मोड़ देता है। यही है ‘चौधरी’ की भूमिका। एक ऐसी कुर्सी, जो खून के रंग से सजाई जाती है पर जिस पर बैठने वाला स्वयं द़ाग से दूर दिखता है।