पहले हमला करो और करवाओ, फिर शांति के दूत बन जाओ
मध्य-पूर्व की लड़ाई ने खोली सबकी पोल
डोनाल्ड ट्रम्प ने बहुत बड़े-बड़े दावों के साथ पिछली 20 जनवरी को राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी। उनका सबसे बड़ा दावा था कि वे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके सभी युद्धों को ़खत्म कर देंगे। क्या विडम्बना है? हालत यह हो गई है कि अब वे पहले युद्ध करवाते हैं और फिर उस ़खत्म करने की एक्टिंग करते हुए नज़र आते हैं। मध्य-पूर्व में उन्होंने पहले इज़रायल से ईरान पर एकदम झूठे कारण से हमला करवाया, और फिर उस हमले में स्वयं भी भागीदारी की, और अब वे युद्धविराम का श्रेय लेते नज़र आ रहे हैं। उनकी इस हरकत से राष्ट्रपति बुश (सीनियर) की याद आ गई। उन्होंने सद्दाम हुसैन के नेतृत्व वाले इराक पर यह तर्क देकर हमला किया था कि उसके पास रासायनिक हथियार हैं। इराक पर कब्ज़ा कर लेने के बाद इसकी पोल खुली। वहां कोई रासायनिक हथियार नहीं मिला। अमरीका ने बेशर्मी के साथ केवल एक सॉरी बोल कर अपनी इस ऐतिहासिक हरकत से किनारा कर लिया लेकिन बुश में सॉरी कहने की दम तो थी। ट्रम्प के पास इतना नैतिक बल भी नहीं है। उन्होंने तो उस देश पर हमला करवाया और किया है जो उनके साथ अरसे से समझौता वार्ता कर रहा था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के इतिहास में शायद है ऐसा लज्जाजनक कृत्य किसी और ने किया हो।
क्या मध्य-पूर्व में 12 दिन तक लड़े गये मिसायलों और बमों के युद्ध में असली झगड़ा केवल 408 किलोग्राम यूरेनियम का था? हम जानते हैं कि 1984 से लगातार कोशिश करते-करते ईरान इस यूरेनियम को केवल 60 प्रतिशत तक ही एनरिच या परिष्कृत कर पाया था। एटम बम बनाने के लिए यह आंकड़ा 90 प्रतिशत तक पहुंचना ज़रूरी है। इसीलिये अमरीका की इंटेलिजेंस च़ीफ तुलसी गैबार्ड ने ट्रम्प की डांट खाकर बयान बदलने से पहले स्वीकार कर लिया था कि ईरान बम बनाने से काफी दूर है। ़खास बात यह है कि अभी कुछ दिन पहले तक ट्रम्प का घोषित मकसद ईरानी यूरेनियम के एनरिचमेंट की सीमा तय करने का था। इसके लिए उनके और ईरान के बीच पांच दौर की बातचीत हो चुकी थी। बस एक दौर और होना था जिसके बाद दोनों के बीच एटमी संधि हो जाती लेकिन तब अचानक इज़रायल ने ईरान पर हमला क्यों कर दिया? और इस हमले के बाद ट्रम्प ने अचानक एनरिचमेंट की सीमा आरोपित करने का लक्ष्य बदल कर ईरान के पूरे परमाणु कार्यक्रम को तबाह करने का इरादा क्यों बना लिया? कहना न होगा कि अमरीका पर पूरी तरह से निर्भर इज़रायल उससे बिना पूछे मध्य-पूर्व की राजनीति को बदल डालने वाला कदम उठाने की जुर्रत नहीं कर सकता था।
यहीं एक और ज़रूरी सवाल है। अमरीका के बी-2 बमवर्षक विमानों ने ईरान के तीन भूमिगत एटमी संयत्रों (़फोर्डो, इस़्फहान और नतांज़) पर 14 जीबीयू-57 नामक नये किस्म के बंकरतोड़क बम बरसाये। उसके पास ऐसे केवल 20 बम थे। अब बचे कुल छह। क्या अमरीका के पास इस तरह की कोई गारंटी थी कि बाकी छह बम और डालने के बाद ईरान का परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह से खत्म हो जाएगा? विशेषज्ञों में इस बात पर सहमत हैं कि अमरीकी बमबारी में केवल संयत्रों को नुकसान हुआ है जिसकी भरपायी 3-4 साल में हो सकती है। सेटेलाइट की तस्वीरें बताती हैं कि ईरान ने ट्रकों में भर कर पहले ही भरपूर यूरेनियम को हटा लिया था। क्या अमरीका की सीमाओं को ईरान के सिर्फ एक हमले (़कतर के सैन्य अड्डे पर) ने उजागर नहीं कर दिया है? इन सभी सवालों का एक संभव जवाब इस युद्ध के शुरू होने और बंद होने की उस अंतरकथा में छिपा हुआ है जो अभी तक टुकड़ों-टुकड़ों में ही सामने आ रही है।
यह अंतरकथा मनोवैज्ञानिक भी है और तथ्यात्मक भी। इसके मर्म में इज़रायल, ईरान और मध्य-पूर्व के मुसलमान देशों के सत्ताधारियों पर हावी राजनीतिक असुरक्षा की भावना है। इसने डोनाल्ड ट्रम्प के मन की बेचैनियों के साथ जुड़ कर हाहाकारी अंदेशों वाले युद्ध को जन्म दिया। युद्ध से पहले इज़रायल के बेंजामिल नेतनयाहू की हालत तो यह थी कि वे भ्रष्टाचार के इलज़ामों और बढ़ती हुई अलोकप्रियता से जूझ रहे थे। सत्ता में टिके रहने के लिए उन्होंने दो कट्टरपंथी पार्टियों का सहारा लिया जिनके नेता इतामार बेन-गिव्र और बेज़ालाल स्मोट्रिच ने उन्हें ़िफलिस्तीनी समस्या के राजनीतिक हल का विकल्प अपनाने ही नहीं दिया। इन कट्टपंथियों का कहना है कि वेस्ट बैंक की ज़मीन तो स्वयं ईश्वर इज़रायल के नाम आबंटित कर रखी है। इसलिए इस समस्या का हल तो केवल ़फौजी नाकेबंदी ही है। नेतनयाहू जानते हैं कि अगर सत्ता गई तो उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल जाना पड़ेगा।
ईरान के धार्मिक और राजनीतिक नेता अयातुल्ला अली खामनेई की सरकार भी बहुत बड़े पैमाने पर और अरसे से अलोकप्रियता का सामना कर रही थी। अपनी गिरती साख बचाने के लिए उन्हें भी युद्ध की आवश्यकता थी। उनके सत्ता से हटने का मतलब था 55 साल पुरानी इस्लामिक क्रांति का खात्मा। वे इतिहास में एक ऐसे अयातुल्ला की तरह नहीं दर्ज होना चाहते थे, जिसने इस्लामिक रिपब्लिक के सपने को नष्ट कर दिया हो। इसलिए उन्होंने मज़हबी शैली में खुदकुशी की हद तक जाने का फैसला कर लिया। अगर ट्रम्प की राजनीतिक और सैन्य सीमाओं की पोल न खुल गई होती तो अमरीकी वायुसेना रात भर में पूरा ईरान तबाह कर सकती थी। ईरान के पास वायुसेना नाम की चीज़ न के बराबर ही है। उसे आ़िखरी बार नब्बे के दशक में एक ़फाइटर जेट मिला था।
कुवैत, बहरीन, ़कतर, यूईए, सऊदी अरब जैसे मुसलमान देशों के शासक अमरीकी पिट्ठू होने के साथ-साथ पूरी तरह से तेल पर निर्भर निरंकुश तंत्रों का संचालन कर रहे हैं। जैसे ही ईरान ने कतर और इराक के सैन्य अड्डों पर मिसाइलें बरसाईं, उनके हाथ-पैर फूल गये। उनके पास इस तरह के युद्ध में भाग लेने का न तो कलेजा है, और न ही सैन्य क्षमता। इसलिए उन्होंने अमरीका पर दबाव डाला कि युद्ध ़खत्म होना उनके लिए ज़रूरी है।
जिन लोगों ने सरवेंटिस का विश्वविख्यात उपन्यास ‘डॉन कियोटे’ पढ़ा है, वे जानते हैं कि खोखली तीसमारखाई का क्या हश्र होता है। डोनाल्ड ट्रम्प डॉन कियोटे जैसे बेचैन, पटरी से उतरे हुए और मुगालते में रहने वाले किरदार ही हैं। वे एक ही हमले में इतिहास की गति बदल देना चाहते थे। इसलिए उन्होंने पहले कोई हिसाब-किताब नहीं लगाया। सोचा तक नहीं कि ईरान मध्य-पूर्व में अमरीका के सैन्य अड्डों पर हमला कर सकता है, और होरमुज़ गलियारा बंद करके दुनिया के बाज़ार की कमर तोड़ने की नौबत ला सकता है। इसलिए ईरान पर हमला करते ही उन्हें चीन से निवेदन करना पड़ा कि वह ईरान को होरमुज़ गलियारा बंद न करने के लिए समझाये। वे दुनिया के चौधरी बनने चले थे, और आज महज़ एक श़ेख़ीखोर बन कर रह गये हैं। मध्य-पूर्व के युद्ध ने सबकी पोलें खोल दी हैं। सबसे ज्यादा तो उसने स्वयं युद्ध की ही पोल खोल दी है कि उसके पीछे छुप कर राजनीतिक अक्षमता के परिणामों से नहीं बचा जा सकता।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।