आपात्काल के पचास साल बाद
आपात्काल यानी भारतीय लोकतंत्र का पांच दशक पुराना एक स्याह और शर्मनाक अध्याय... एक दु:स्वप्न... एक मनहूस और त्रासद कालखंड! दस साल पहले यानी भाजपा के सत्ता में आने और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के एक साल बाद आपात्काल के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप-प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश में फिर से आपात्काल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था। हालांकि आडवाणी इससे पहले भी कई मौकों पर आपात्काल को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे थे, मगर यह पहला मौका था जब उनके विचारों से आपात्काल की अपराधी कांग्रेस नहीं, बल्कि उनकी अपनी पार्टी भाजपा हैरान-परेशान होकर बगलें झांक रही थी। वह भाजपा जो कि आपात्काल को याद करने और उसकी याद दिलाने में हमेशा आगे रहती है।
आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर हैं और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपात्काल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकती। बकौल आडवाणी, ‘भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपात्काल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की आशंका से इन्कार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपात्कालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है। आज मीडिया पहले से अधिक सतर्क है, लेकिन क्या वह लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध भी है? कहा नहीं जा सकता। सिविल सोसायटी ने भी जो उम्मीदें जगाई थीं, उन्हें वह पूरी नही कर सकी है।’
आडवाणी का यह बयान यद्यपि दस वर्ष पुराना है लेकिन इसकी प्रासंगिकता तब से अब तक दिनो दिन बढ़ती गई है। आधुनिक भारत के राजनीतिक विकास के सफर में लम्बी और सक्रिय भूमिका निभा चुके एक तजुर्बेकार राजनेता के तौर पर आडवाणी की इस आशंका को अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपात्काल से भी कहीं ज्यादा बुरे दौर से गुज़र रहा है।
यह सच है कि उस आपात्काल के दौरान देश के तमाम विपक्षी नेताओं और हज़ारों कार्यकर्ताओं को आंतरिक सुरक्षा कानून मीसा के तहत जेल में बंद कर दिया गया था। जो लोग गिरफ्तार नहीं किए जा सके थे, उनके परिजनों को प्रताड़ित किया गया था। जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम के नाम पर लाखों लोगों की जबरन नसबंदी कर दी गई थी और सेंसरशिप के जरिये अखबारों के मुंह पर ताला लगा दिया गया था लेकिन उस दौरान कहीं सरकार प्रायोजित दंगे नहीं हुए थे और सांप्रदायिक व जातीय आधार पर लोगों को प्रताड़ित नहीं किया गया था। मगर मोदी राज के अघोषित आपात्काल में यह सब संगठित और सुनियोजित रूप से हो रहा है, जिसमें शासन-प्रशासन की भी पूरी भागीदारी है। दैत्याकार बुलडोजर समूची शासन व्यवस्था का प्रतीक बन गया है, जो कहीं विकास के नाम पर तो कहीं कानून-व्यवस्था के नाम पर कभी भी, किसी के भी कच्चे-पक्के, मकान-दुकान को देखते ही देखते जमींदोज कर देता है।
दूसरी तरफ केंद्र सहित देश के आधे से ज्यादा राज्यों में सत्तारूढ़ या सत्ता में भागीदारी कर रही भाजपा के भीतर भी हाल के वर्षों में ऐसी प्रवृत्तियां मज़बूत हुई हैं, जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों और कसौटियों से कोई सरोकार नहीं है। आपात्काल के दौर में उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चाटुकारिता और राजनीतिक बेहयाई की सारी सीमाएं लांघते हुए ‘इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा’ का नारा पेश किया था। आज भाजपा में तो अमित शाह, जेपी नड्डा, शिवराज सिंह चौहान, देवेंद्र फड़णवीस आदि से लेकर नीचे के स्तर तक ऐसे कई नेता हैं जो नरेंद्र मोदी को जब-तब दैवीय शक्ति बताने में कोई संकोच नहीं करते। वैसे इस सिलसिले की शुरुआत बतौर केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने की थी, जो बाद में उप-राष्ट्रपति बनाए गए।
यह स्थिति सिर्फ सत्तारूढ़ दल की नहीं है। आज देश में लोकतंत्र का पहरुए कहे जा सकने वाले ऐसे संस्थान भी नज़र नहीं आते, जिनकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हो। आपात्काल के दौरान जिस तरह प्रतिबद्ध न्यायपालिका की वकालत की जा रही थी, आज वैसी ही आवाजें सत्तारूढ़ दल के साथ-साथ न्यायपालिका के किसी-किसी कोने से भी सुनाई दे जाती हैं। यही नहीं, सत्तारूढ़ दल की ओर से न्यायपालिका को नसीहत भी दी जा चुकी है कि वे फैसले ऐसे दें, जिन पर अमल किया जा सके। कई महत्वपूर्ण मामलों में तो अदालतों के फैसले भी सरकार की मंशा के मुताबिक ही आ रहे हैं। सूचना के अधिकार को निष्प्रभावी बनाया जा चुका है।
हाल ही में चुनावों के दौरान इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन और मतदाता सूचियों में गड़बड़ियों की गंभीर शिकायतें जिस तरह सामने आई हैं, उससे हमारे चुनाव आयोग और चुनाव प्रणाली की साख पर सवालिया निशान लगे हैं। चुनाव में मिले जनादेश को दलबदल और राज्यपालों की मदद से कैसे तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है, उसका नज़ारा भी हम बीते वर्षों में गोवा, मणिपुर, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि राज्यों में देख चुके हैं। नौकरशाही की जनता और संविधान के प्रति कोई जवाबदेही नहीं रह गई है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो समूची नौकरशाही सत्ताधारी दल की मशीनरी की तरह काम करती दिखाई पड़ती है।
जिस मीडिया को हमारे यहां लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की मान्यता दी गई है, उसकी स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। आज की पत्रकारिता आपात्काल के बाद जैसी नहीं रह गई है। इसकी अहम वजहें हैं बड़े कॉरपोरेट घरानों का मीडिया क्षेत्र में प्रवेश और मीडिया समूहों में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड़। इस मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति ने ही मीडिया संस्थानों को जनविरोधी, सरकार का पिछलग्गू और कुछ हद तक देशविरोधी बना दिया है।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान जो एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई है, वह है सरकार, सत्तारूढ़ दल और मीडिया द्वारा सेना का अत्यधिक महिमामंडन। यह सही है कि हमारे सैन्यबलों को अक्सर तरह-तरह की मुश्किल भरी चुनौतियों से जूझना पड़ता है, इस नाते उनका सम्मान होना चाहिए लेकिन उनको किसी भी तरह के सवालों से परे मान लेना और उनके पराक्रम का खुलेआम चुनावी इस्तेमाल करना तो एक तरह से सैन्यवादी राष्ट्रवाद की दिशा में कदम बढ़ाने जैसा है।
आपात्काल कोई आकस्मिक घटना नहीं बल्कि सत्ता के अति केन्द्रीयकरण, निरंकुशता और व्यक्ति-पूजा की निरंतर बढ़ती गई प्रवृत्ति का ही परिणाम थी। आज फिर वैसा ही नज़ारा दिख रहा है। सारे अहम फैसले संसदीय दल तो क्या, कैबिनेट की भी आम राय से नहीं किए जाते। सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री की चलती है।
आपात्काल के दौरान संजय गांधी और उनकी चौकड़ी की भूमिका सत्ता-संचालन में गैर-संवैधानिक हस्तक्षेप की मिसाल थी, तो आज वही भूमिका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निभा रहा है। संसद को लगभग अप्रासंगिक बना दिया गया है। असहमति की आवाजों को चुप करा देने या शोर में डुबो देने की कोशिशें साफ नज़र आ रही हैं।
आपात्काल के दौरान और उससे पहले सरकार के विरोध में बोलने वाले को अमरीका या सीआईए का एजेंट करार दे दिया जाता था। अब स्थिति यह है कि सरकार से असहमत हर व्यक्ति को पाकिस्तान-परस्त या देशविरोधी करार दे दिया जाता है। आपात्काल मे इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय और संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों का शोर था तो आज विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आवरण में हिंदुत्ववादी एजेंडे पर अमल किया जा रहा है। इस एजेंडे के तहत अल्पसंख्यकों, दलितों व आदिवासियों का तरह-तरह से उत्पीड़न हो रहा है।
आपात्काल के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार ने और कुछ उल्लेखनीय काम किया हो या न किया हो लेकिन संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर फिर तानाशाही थोपे जाने की राह को उसने बहुत दुष्कर बना दिया था। यह उस सरकार का प्राथमिक कर्त्तव्य था जिसे उसने ईमानदारी से निभाया था। लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह ज़रूरी नहीं। वह लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड़ में भी हो सकता है। पिछले एक दशक से देश में यही हो रहा है।