उत्तराखंड में उतरी जल-प्रलय
देश के एक प्रमुख पर्वतीय प्रांत देव-भूमि उत्तराखंड में विगत दिवस बादल फटने की एक अभूतपूर्व एवं भयावह घटना ने पूरे देश को दहलाया है। प्रदेश के उत्तराकाशी स्थित गंगोत्री के पथ पर हिमालयी गांव धराली के क्षेत्र में घटित हुई इस प्राकृतिक दुर्योग घटना में पानी, पत्थरों एवं मलबे का उठा सैलाब उसके पथ में जो भी कुछ आया, उसे बहा ले गया। एक पूरे का पूरा गांव बह गया। अनेक होटल और बड़े-बड़े बहु-मंज़िला भवन ज़मींदोज़ हो गये। सेना का एक बड़ा कैम्प भी मलबे के नीचे ध्वस्त हो गया। इस क्षेत्र के चार लोगों के मारे जाने की पुष्ट सूचना है, तो दर्जनों अन्य लोग लापता हैं। सैनिक कैम्प के आठ-दस जवानों के भी लापता होने की सूचना है। इनमें से अधिकतर के मारे जाने अथवा मलबे के नीचे दबे होने की आशंका है। अतएव मृतकों की संख्या बढ़ जाने की बड़ी सम्भावना है। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार आकाशभेदी गर्जना और चीख-चिल्लाहट के बीच आकाश-मार्ग से उतरी इस भयंकर प्रलय ने केवल 34 सैकेंड में मानवीय सांसों से स्पन्दित एक पूरे क्षेत्र को ताश के पत्तों की भांति ध्वस्त कर दिया। इस मानवीय त्रासदी के बड़ा होने का एक अंदेशा इसलिए भी है कि प्रभावित क्षेत्र धराली में मेला सजा था। इसी कारण इस प्रलय के दौरान आम लोगों को सम्भलने अथवा बचने का मौका ही नहीं मिला। पहाड़ी मलबा खीर गंगा नदी में गिरने से वहां एक झील जैसा क्षेत्र बन गया। इस घटना के बाद प्रदेश के हर्षिल हैलीपैड के निकट भी एक बड़ी झील उभर आई है। वर्ष 1978 में भी इस क्षेत्र में बनी एक बरसाती झील ने उत्तरकाशी में भारी विनाश ढाया था। केदारनाथ यात्रा को स्थगित कर दिये जाने से इस क्षेत्र के लोगों को 2013 की प्राकृतिक आपदा की घटना भी अवश्य याद आई होगी। धराली में भारी मलबा गिरने का एक कारण यह भी रहा कि सम्पूर्ण उत्तरकाशी के ऊपरी क्षेत्र में अढ़ाई घंटे के काल में तीन जगह बादल फटे।
मौनसूनी जल-प्रलय की यह घटना कितनी गम्भीर है, इसका पता इस बात से भी चल जाता है कि केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने प्रदेश की इस आपदा से बचाव हेतु भरसक सहायता का आश्वासन दिया है। उन्होंने केन्द्र सरकार की ओर से बचाव कर्मियों के सात दल प्रभावित क्षेत्र में भेजने के निर्देश दिए हैं। प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्करसिंह धामी ने बचाव हेतु वायु सेना से मदद मांगी है। वायु सेना ने अपने हैलीकाप्टरों को तैयार रहने हेतु कहा है। इस आपदा की गर्जना मीलों दूर तक सुनाई दी।
बेशक उत्तराखंड के लोग ऐसी प्राकृतिक आपदाओं से अपरिचित नहीं हैं। प्रत्येक ऐसी आपदा के बाद वे जीने हेतु नये आशियाने तलाश कर लेते हैं, किन्तु इस त्रासदी ने जो विनाश ढाया है, उससे उभरने में इस क्षेत्र के लोगों को समय लगेगा। वर्ष 1952 में भी ऐसे ही एक बड़ी आपदा के समय पौड़ी ज़िला के दूधातोली में सतपुली गांव का नामो-निशान मिट गया था। वर्ष 1954 में रुद्रप्रयाग का डडुवा गांव भी बादल फटने की घटना के बाद मलबे में दब गया था। वर्ष 1975 के बाद से तो जैसे बादल फटने की घटनाएं आम हो गई हैं। प्रत्येक वर्ष 15-20 ऐसी घटनाएं दर्ज की जाती हैं। सन् 2013 की केदारनाथ त्रासदी ऐसे दौर की सर्वाधिक त्रासद घटना रही है।
हम समझते हैं कि इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं के बार-बार घटित होने के पीछे नि:संदेह मानव-हस्तक्षेप बड़ी हद तक उत्तरदायी माना जा सकता है। पर्वतीय अंचलों से वृक्षों की बेतहाशा कटाई, वनों एवं पर्वतों पर आवासीय क्षेत्र बढ़ने और पर्वतों के समतलीकरण ने ऐसी आपदाओं को स्वयं मानव निमंत्रण दिया है। वनों की घटती संख्या के कारण बादल उच्च पर्वतों से टकरा कर फट जाते हैं, और फिर नंगे पर्वत टूट कर बिखर जाते हैं जो अन्तत: भारी मलबे का रूप धारण कर लेते हैं। मौसम विभाग के सूत्रों के अनुसार पर्वतीय प्रदेशों में वृक्षों, वनों एवं पर्वतों का रकबा घटते जाने से वर्षा-दिवसों में कमी आई है किन्तु बादलों में पानी की मात्रा बढ़ी है। इस कारण बादलों के फटने की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। इन सूत्रों के अनुसार बरसाती मौसम अब चार की बजाय दो मास तक ही सिमट कर रह गया है जिससे सात दिनों का पानी तीन दिनों में ही बरस जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार टिहरी बांध बनने से भी बादल फटने की घटनाएं बढ़ी हैं। नदी क्षेत्रों और वर्षा के पानी के निकासी पथों पर मनुष्य के बढ़ते अतिक्रमण ने स्थिति को और गम्भीर होने में मदद की है। हम समझते हैं कि बेशक स्थितियों की ऐसी भीषणता से बचने की बड़ी आवश्यकता है। बांधों का बनना बहुत आवश्यक है किन्तु पेड़ों का लगाया जाना भी उतना ही ज़रूरी है। वनों और पर्वतों का अतिक्रमण हर हालत में रोका जाना होगा। प्रकृति के दर तक मानवीय हस्तक्षेप पर भी रोक लगानी होगी। ऐसे निरोधक पग उठा कर ही मानव को इस प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले विनाश से रोका जा सकता है।