मेरे हिस्से का 1947

मेरे लिए 1947 को याद करना ‘पुट्ठे तवे ते रड़ी’ हुई रोटी को चबाना है। इस वर्ष मुझसे मेरे ननिहाल का इलाका ही नहीं छूटा जिसमें चमकौर की गढ़ी, फतेहगढ़ साहिब, समराला, माछीवाड़ा और सरहिंद भी पड़ते थे और ए.एस. हाई स्कूल खन्ना भी जहां मैंने मिडल तक की शिक्षा प्राप्त की थी, वह भी छूट गया था। इसी से ही जुड़ी हुई थी चार साहिबज़ादों की शहीदी (कविशरी भाषा) बंदा बहादुर का ‘लोहे का सुहाग’ बन कर सरहिंद को मटियामेट करना। अब मेरा प्रवेश होशियारपुर के मध्य अपने दादके के इलाके में हो जाना था, जिसके निकट गुरु गोबिंद सिंह जी का आनंदपुर साहिब में पड़ता होने से इतिहास और मिथिहास के पक्ष से इसकी पदवी कम नहीं थी। इस वर्ष का एक महत्व यह भी था कि इसने मेरे ननिहाल और दादके की भूमि में से ब्रिटिश शासकों को भाजड़ देना था।
बुरी बात यह अखंड हिन्दुस्तान के दो टुकड़े हो जाने थे। मुस्लिम बहुल वाला पाकिस्तान और ़गैर-मुस्लिम बहुमत वाला भारत। यह भी कि इस बंटवारे का शिकार पांच दरियाओं के पंजाब ने भी हो जाना था। इससे बनने वाले पाकिस्तान में से ़गैर-मुस्लिम लोगों के पैर हटाए गए और भारत में से मुस्लिम आबादी के। इस बंटवारे ने जानी और माली नुकसान का रूप धारण कर दोनों तरफ घल्लुघारा बना देना था, किसी को याद भी नहीं था। इसने जो रूप धारण किया वह और भी अनोखा था। इस बर्बादी का अंतिम रूप यह बना कि अपने या पड़ोसी गांव के निवासी तो बच गये और कम दूरी वाले इसका शिकार हो गये। हमारे गांव में एक नारा यह भी पढ़ा गया कि जो मुसलमान पाकिस्तान नहीं जाना चाहते, वह अपना धर्म परिवर्तन कर यहां रह सकते हैं। धर्म परिवर्तन की शर्त भी आसान ही थी। हिन्दू बनने वाले पुरुषों ने अपने सिरों पर पीला पटका सजाया था और महिलाओं ने पीला दुपट्टा। इस तरह मुसलमानों की ज़ाहिर हुई पहचान का परिणाम अत्यंत भयानक था। यदि मैंने अपने गांव का प्रमाण देना हो तो बाहर के गांव वालों ने हमारे गांवों के दो दर्जन पुरुषों का कत्ल कर दिया और आधा दर्जन बहू-बेटियों को उठाकर ले गए। दरिंदों की संख्या इतनी थी कि हमारे गांव वालों की कोई नहीं चली।
हम मूक दर्शक थे या मुर्दों को जलाने वाले। हमने उनकी मसीत के निकट साझी चिता बनाई और लांबू लगा दिया। उनके धर्म परिवर्तन के भागी होने के कारण हम उनको मुस्लिम रीति-रिवाज के अनुसार दफना नहीं सकते थे। वह हमारे थे। धर्म परिवर्तन से पहले भी और अब भी। हमारे गांव की जिन महिलाओं को लुटेरे साथ ले गए थे, उनमें से एक रुई पिंजने वाली गेंदे भराई की बेटी थी और एक उसकी बहू। लगभग एक महीने बाद उन्हें यह पता चल गया कि उनको उठाकर ले जाने वाले भी निकट के गांवों से थे। उन्होंने आपस में मिलने की इच्छा प्रकटाई तो उठाने वालों ने किसी एक के घर 8-10 दिन इकट्ठे रहने की प्रथा बना दी।
वे सुबह से ही अपने मालिकों की रसोई संभाल लेतीं। घर वालों को इतनी आज्ञाकारी दासियां और कहां से मिलनी थीं? इकट्ठी हो जाने के बाद उन्होंने यह भी पता लगाया कि हमारा गांव (जो उनका भी उतना ही है) कितना दूर है और वहां कैसे जा सकती हैं। उनका अपना घर देखने को दिल कर आया। निर्धारित योजना अनुसार वे एक दिन सुबह घर से निकल कर नये मालिकों के घर वापिस जाने के स्थान पर अपने पुश्तैनी गांव रिसालदार ताया के घर चली गईं। वे इस घर के सभी सदस्यों को जानती थी। रिसालदार ने भी दिलासा दिया कि उनका बाल भी बींका नहीं होने देंते। इसलिए भी कि उनके मुस्लिम परिजनों के धर्म परिवर्तन के समय ताये रिसालदार का कहना माना गया था।
वैसे भी सभी गांव वालों को पता था कि वे बीबीयां अपने मालिकों को बताए बिना आ गई थीं। यह भी कि नये मालिक उनका पीछा कर सकते हैं परन्तु इस बार सभी गांव वालों का फैसला था कि उनको किसी भी हालत में सफल नहीं होना देना। यही हुआ। वे घोड़ी लेकर आ गये। जब उन्होंने गांव के बाहर खेलते लड़कों से गेंदे भराई का घर पूछा तो एक लड़का उनको भराई के घर में दाखिल करके बाहर के कुंडी लगा आया और फिर रिसालदार के घर खबर दे गया। ताया रिसालदार की बात मानकर मेरे गांव वालों ने उन दरिंदों को मार मुकाया और उनकी घोड़ी थाने पहुंचा दी।
1947 में मेरी आयु 13 साल की थी। यह सब कुछ देखकर मैं सचमुच ही डर गया था। आज के दिन मुझे यही लगता है कि उन्होंने हमारे हाथ से हिन्दू बने लोगों की हत्या की थी तो हमने उनका बदला ले लिया था।
अंतिका
(पंद्रह अगस्त/मास्टर अमरीक सिंह)
पंदरां अगस्त इक ऐसा ही दिहाड़ा सी, 
देश सी आज़ाद, साडा हो गया उजाड़ा सी ।
घर बार छड्ड ऐसे सफर ते चल पये,
दुखां ते मुसीबतां दे हार साडे गल पये।
रुल-खुल अप्पड़े सां असीं हिन्दुस्तान विच,
रह गया असाडा सब कुझ पाकिस्तान विच।
बन गये शरणार्थी ऱिफयूजी वी कहाये सां,
हिंद विच नवीं दूजी कौम वी कहाये सां।

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