रक्षा के संकल्प का पर्व है रक्षाबंधन
भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का महान पर्व है रक्षाबंधन। रक्षाबंधन का प्रारंभ कब हुआ इस विषय में कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता, लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव देवताओं पर भारी पड़ते नज़र आने लगे, देवेंद्र हारने लगे। तब इंद्र घबराकर बृहस्पति जी के पास गए। बृहस्पति जी के निर्देशानुसार इंद्र पत्नी ने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति की हाथ पर बांध दिया। संयोग से यह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। जन विश्वास यह बना कि देवासुर संग्राम में इंद्र इसी धागे की मंत्र शक्ति से ही विजयी हुए। ऐसा माना जाता है कि उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन रक्षाबंधन का धागा बांधने की प्रथा प्रारंभ हुई, जो आज तक विभिन्न नाम और रूप से पूरे देश और जहां भी देशवासी दूर देशों में बसे हैं, वहां तक चली आ रही है।
इतिहास के शानदार पृष्ठों से भी राखी का संबंध है। राजपूताने की राखी वैसे तो बहुत प्रसिद्ध है और कई वीर गाथाएं इसके साथ जुड़ी हैं, परन्तु महारानी कर्मवती के धागे की कथा विशेष प्रसिद्ध है। मेवाड़ की रानी कर्मवती पर जब बहादुर शाह ने आक्रमण कर दिया तो वीरता से शत्रुओं का सामना करती हुई कर्मवती ने हुमायूं को राखी भेज कर मदद की प्रार्थना की। हुमायूं ने राखी की लाज रखी, यद्यपि तब तक महारानी कर्मवती हज़ारों वीरांगनाओं के साथ जौहर कर चुकी थी।
दक्षिण भारत के धर्म ग्रंथों और महाभारत में भी किसी न किसी रूप में राखी का उल्लेख है। स्वतंत्रता संग्राम का राखी से जुड़ा विशेष प्रसंग सन 1905 के बंग-भंग आंदोलन से है। जब लॉर्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन का फैसला कर ही लिया तब पूरा बंगाल एकमत से बंग-भंग के विरुद्ध खड़ा हो गया और तब जन-जागरण के लिए रक्षाबंधन का ही सहारा लिया गया। श्री रवीन्द्र नाथ टैगोर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबंधन त्यौहार को बंगाल निवासियों के आपसी भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस पर्व का देश की आज़ादी के लिए उपयोग किया। 16 अक्तूबर, 1905 को बंग-भंग की घोषणा के दिन रक्षाबंधन की योजना साकार हुई और इसी धागे के सहारे आमजन गंगा स्नान करके सड़कों उतर आए।
आज अधिकतर लोग, परिवार और बहनें रक्षाबंधन को भाई बहन के प्यार का पर्व मान कर ही मनाते हैं। कहा जाता है कि कच्चे धागों से पक्के रिश्ते बनते हैं। कोई अपरिचित भी राखी बंधवा दे तो वह जीवन भर के लिए भाई-बहन का रिश्ता निभाते हैं। इस दिन बहनें अपने भाई की कलाई पर रक्षा सूत्र बांध कर आशीर्वाद देती हैं और भाई भी अपनी बहनों को उपहार आदि देकर जीवन भर यह संबंध प्यार और संरक्षण से निभाने का प्रण लेते हैं, परन्तु धीरे-धीरे यह त्यौहार प्यार के साथ औपचारिकता भी बन गया और महंगे उपहार देने-लेने और दिखावे का एक साधन बन गया। विवाहिता लड़कियों के माता-पिता को तो राखी पर भी मोटा उपहार ही देना पड़ता है। जो भी है यह भारत की पहचान है। भाई-बहन के संबंधों को सशक्त करता धागा है, त्यौहार है।
पंजाब में आतंकवाद से जूझने वाली पुलिस फोर्स के सैकड़ों जवानों को एक ही दिन राखी बांधी गई। इस राखी के बदले कोई छोटे-मोटे उपहार नहीं मिले, अपितु यह वचन मिला कि अगले रक्षाबंधन तक आतंक पर नकेल पड़ जाएगी। सच ही सिद्ध हुई वीर वाणी और 1993 की राखी आतंक पर नकेल पड़ने के बाद ही मनाई गई। 1970 में अमृतसर के किला गोबिंदगढ़ में सेना के जवानों के साथ भी राखी मनाई गई। सेना के साथ रक्षाबंधन मनाने का क्रम सौभाग्य से आज तक चल रहा है। अंग्रेज़ों के विरुद्ध जितने अभियान स्वतंत्रता के लिए चलाए गए, उसमें पहला बंग-भंग ही है जो लॉर्ड कर्जन के अत्याचारों के बाद भी सफल हुआ और बंगाल का विभाजन रुक गया।
आज देश की बेटियां भी सेना में सशक्त प्रहरी हैं। सीमा सुरक्षा बल और देश के अन्य सभी बलों में सेवा कर रही हैं। राखी बांधते समय ध्यान रखना होगा कि यह रक्षाबंधन है, भारत का बेटा या बेटी जो भी शस्त्र हाथ में लिए देश की रक्षा के लिए सिर देने को तैयार बैठा है, उन सबके लिए राखी है, केवल बहन की राखी भाई के लिए नहीं, बहादुर बहनों के लिए भी है। आइए राष्ट्र रक्षा के संकल्प के साथ राखी मनाएं। हमारी राखी पिछले पचास वर्षों से वीर भाई-बहनों के हाथ पर बंधकर शान से मुस्कुरा रही है।
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