आत्म-निर्भरता ही है अमरीकी चुनौती का जबाव
आज देश एक ऐसे मुहाने पर खड़ा है जहां एक ओर पाकिस्तान से संघर्ष के हालात बने हुए हैं, चीन के बारे में निश्चित नहीं है कि वह कब क्या कर बैठेगा, रूस पुराना साथी है, लेकिन उसके अपने हित हैं और अमरीका ने धमकी दी है कि उसकी बात न मानी तो परिणाम अच्छे नहीं होंगे। ऐसे में एक ही रास्ता बचता है कि देश को अपना सुरक्षा कवच तैयार करना होगा जिसके मूल में केवल और केवल अपने बल, अपनी बुद्धि और विद्या से समस्त विकारों का अंत करना और आत्मनिर्भर होना है। याद कीजिए कभी विदेशी अनाज पर हमारी निर्भरता और आज एक बड़ी आबादी का मुफ्त अनाज देकर भरण पोषण, तब कैसे कोई हम पर अपनी धौंस जमा सकता है।
आर्थिक युद्ध : जहां तक आर्थिक युद्ध का संबंध है, कब और कहां से कौन-सा प्रतिबंध, आर्थिक नाकाबंदी, अर्थव्यवस्था में गिरावट हमारा मनोबल कम करने के लिए शुरू हो जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता। यह वास्तविकता है कि यदि ट्रम्प टैरिफ लागू हो जाता है और भारत सरकार ने तुरंत वैकल्पिक उपाय नहीं किए तो हमारे निर्यात पर असर पड़ेगा, जिन औद्योगिक इकाइयों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, वे उत्पादन में कटौती और कर्मचारियों की छंटनी जैसे कदम उठा सकते हैं। निर्यात पर निर्भर क्षेत्रों में नौकरियों पर संकट आना तय हैं, सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग (एमएसएमई) सेक्टर और असंगठित क्षेत्रों में विशेषकर ग्रामीण तथा छोटे शहरों के कारीगर बेरोज़गार हो सकते हैं। आयातित उत्पादों का इस्तेमाल करने वालो को अधिक दाम देने होंगे और यदि अपनी आदत नहीं बदली तथा देश में ही बनी वस्तुओं का इस्तेमाल करने में रुचि नहीं दिखाई तो यह वर्ग निराशा के भंवर में गोते खा सकता है और आवश्यक नहीं कि वह उबर कर आ सके क्योंकि भारत में निर्मित वस्तुओं की कीमत और गुणवत्ता पर उसका भरोसा नहीं है।
‘मेक इन इंडिया’ का ढोल तो बहुत पीटा गया लेकिन कौशल विकास न होने से स्थानीय ब्रांड्स लोकप्रिय न हो सके जिसका सबसे बड़ा कारण सरकार द्वारा बनाये नियमों का लचीला न होना और उनके पालन के लिए अधिकारियों पर आश्रित रहना है। विडम्बना यह है कि ये अधिकारी बिना अपना सेवा शुल्क लिए कोई भी काम बिना रुकावट के पूरा ही नहीं होने देते। आज के आधुनिक सुविधाओं से लैस संचार साधनों के कारण यह बात कि हमारे यहां नौकरशाही का बोलबाला है और कथित रिश्वतखोरी के बिना काम करना संभव नहीं, इसलिए वे देश जो हमसे व्यापार करना भी चाहें तो संकोच करते हैं, इसलिए जब तक इस हालत में सुधार नहीं होता तो चाहे हम तीसरी अर्थव्यवस्था बनने की ओर बढ़ने के लिए कितने ही गाल बजाते रहें, सामान्य भारतीय की वर्तमान स्थिति और अधिक गिरावट की ओर जाने से रुकने का कोई संकेत नहीं मिल सकता।
देश को ट्रम्प टैरिफ से बचाने के लिए कृषि उत्पादों के लिए अमरीका के लिए बाज़ार खोलने से इंकार किया जाना कुछ हद तक सही हो सकता है, लेकिन पूरा सच नहीं है। कृषि क्षेत्र में आधुनिक तकनीक का अभाव और सरकार की उदासीनता किसान की आमदनी बढ़ने ही नहीं देती। जो अमीर किसान विदेशों से आधुनिक मशीनरी ख़रीद कर खेती करते हैं उन्हें छोड़कर सामान्य कृषक अभी भी सामंती युग में ही जी रहा है। उसके पास संसाधन नहीं हैं, इसलिए वे अपनी ज़मीन पर स्वयं खेती करने के बजाय आज भी उसे बटाई पर देने की बात करता है। कृषि कानूनों से कुछ उम्मीद बंधीं थी लेकिन वे इतने अव्यावहारिक थे कि उन्हें वापिस लेना पड़ा।
विश्व ताकतों के बीच फंसा भारत : जहां तक अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य है, आज हम दो वैश्विक ताकतों अमरीका और रूस के बीच फंसे हुए हैं और तीसरी ताकत चीन के निशाने पर हैं। यह मानकर चलिए कि इनमें से कोई भी भारत का साथ इसलिए नहीं देगा कि हम पर मेहरबान है या सहायता करना चाहता है, बल्कि इसलिये देगा कि हम बदले में उसे अपने यहां किन क्षेत्रों में घुसने और व्यापार करने के लिए सहमत होते हैं। यह एक तरह से भय और आतंक का मनोविज्ञान है जिसका इस्तेमाल यह तीनों महाशक्तियां कर रही हैं।
वर्तमान संदर्भ में सामान्य व्यक्ति के लिए एक ही रास्ता है कि वह अपनी बचत बढ़ाए, अनावश्यक खर्च में कटौती करे और स्थानीय उत्पादों के इस्तेमाल में रुचि पैदा करे। सरकार के लिए यह कि वह कौशल विकास को कागज़ों पर नहीं, वास्तविक धरातल पर उतारे और आत्म-निर्भर बनने का संकल्प नहीं बल्कि स्पष्ट लक्ष्य और समय तालिका तय करे, तब ही सुनिश्चित किया जा सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में हमारा क्या स्थान है। विश्व में अपने लिए एक वैकल्पिक बाज़ार बनाना होगा, अपने उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार जिसकी पहली शर्त है वरना वैश्विक अर्थव्यवस्था में हम पीछे रह जाएंगे।
क्रय शक्ति नहीं है : हमें इस खुशफहमी से बाहर निकलना होगा कि हमारी आबादी सबसे अधिक है तो दुनिया के लिए बहुत बड़ा बाज़ार हैं। सच यह है कि हमारी क्रय शक्ति यानी खर्च करने की क्षमता बहुत कम है, इसलिए कोई क्यों अपना बेहतरीन उत्पादन हमें बेचने में अपने संसाधन लगाएगा। अभी हम अपने ही देश में बने उत्पादों को खरीद नहीं सकते और महंगे कह कर सस्ते विदेशी सामान खरीद लेते हैं तो कैसे उनसे प्रतियोगिता कर सकते हैं। महंगाई कम होने का दावा इसलिए खोखला साबित होता है क्योंकि हमारी जेब में रोज़ाना की ज़रूरतें पूरी करने के बाद कुछ बचता ही नहीं है कि हम कुछ नया खरीद सकें, बल्कि स्थिति यह है कि जो पुराना सामान है, उसे ही जब तक वह पूरी तरह से अनुपयोगी न हो जाए, तब तक उसका इस्तेमाल करने में ही समझदारी समझते हैं। देश में विदेशी कबाड़ जमा करने की मन:स्थिति से निकलना ही होगा क्योंकि तब ही दूसरे देश अपना श्रेष्ठ उत्पादन हमारे खरीदने के लिए लायेंगे। आत्मनिर्भरता का एक ही मतलब है और यह यह कि हम सबसे बढ़िया सामान बनायें और सबसे बढ़िया खरीदें, मोलभाव कीमत पर नहीं, गुणवत्ता को ध्यान में रखकर हो, यही हमारी प्राथमिकता है।
युद्ध कोई भी हो, भयभीत होकर नहीं लड़ा जा सकता। जीत के लिए साम, दाम, दंड और भेद सब कुछ ज़रूरी है, लेकिन ध्यान यह रखना है कि हमारी लड़ाई में कोई दलाल न आने पाए जो हमारा हितैषी होने का स्वांग भरे लेकिन फायदा शत्रु पक्ष का करने में रुचि रखता हो। ऐसे लोग देश में ही नकली मुखौटों के रूप में सामने आते रहते हैं, उनकी पहचान करना ज़रूरी है।