महिलाओं में दूसरों की रक्षा करने की भी क्षमता होती है 

हम हिन्दू पंचांग के अनुसार श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षा बंधन मनाते हैं। यह पर्व उस बंधन का प्रतीक है जो सुरक्षा देता है। आज भले ही यह पर्व भाई-बहन के रिश्ते तक सीमित हो गया हो, लेकिन पहले ऐसा नहीं था। रक्षासूत्र कोई भी किसी को बांध सकता था। पत्नी, बेटी या मां भी इसे किसी को रक्षा की भावना से बांधती थीं। प्राचीन ऋषि भी अपने पास आशीर्वाद लेने आने वालों को रक्षासूत्र बांधते थे और स्वयं भी बुराइयों से सुरक्षा के लिए इसे धारण करते थे। अब इस दिन बहन अपने भाई की कुशलता और सुरक्षा के लिए राखी बांधती है।
हम अक्सर मान लेते हैं कि पुरुष ही शक्तिशाली होते हैं और स्त्रियों को कमज़ोर, असहाय या निर्बल समझा जाता है। यह भ्रांति तोड़ना आवश्यक है। अगर हम ध्यान से देखें तो पाएंगे कि स्त्रियां स्वयं शक्ति का स्वरूप हैं और वे भी रक्षा कर सकती हैं। केवल शारीरिक बल ही सुरक्षा नहीं देता—नारी आत्मबल, संकल्प, भावनात्मक गहराई और विवेक से रक्षा करती है। भाव विचारों से सूक्ष्म और बलवान होते हैं। हम सूक्ष्म स्तर पर देखें तो अणु में बहुत शक्ति होती है। जो सूक्ष्म है वह बलशाली है।
इच्छा शक्ति, क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति तीनों शक्ति तो देवी ही है। धन की देवी लक्ष्मी जी हैं, तो विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती जी हैं। शक्ति की देवी मां दुर्गा हैं। स्त्री को शक्ति माना गया है। तमिल में कहावत है—शक्ति नहीं, तो शिव शव हो जाता है! शिव का अस्तित्व शक्ति के कारण ही है। भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही नारी को सम्मान और शक्ति का स्थान दिया है। भारतीय संस्कृति में उसे कभी भी कमज़ोर नहीं माना गया।
इसी अडिग संकल्प और पवित्र भावना से स्त्रियां अपने भाई, बहन, बड़ों और समाज की रक्षा करती हैं। रक्षा बंधन के दिन वे राखी बांधकर न केवल आशीर्वाद देती हैं, बल्कि सुरक्षा का भरोसा भी देती हैं। यह बंधन सुरक्षा और विश्वास का प्रतीक बन जाता है। स्त्रियों को कभी अपने आप को असहाय या निर्बल नहीं समझना चाहिए। उनमें एक दिव्य शक्ति है और उनमें अपनी रक्षा ही नहीं, दूसरों की रक्षा करने की भी पूरी क्षमता है। जिस प्रकार एक रस्सी आपको सुरक्षा भी दे सकती है और जकड़ भी सकती है, उसी तरह छोटा मन, जो केवल सांसारिकता में डूबा रहता है, आपको बांध सकता है, लेकिन जब आपका बंधन ज्ञान से होता है, गुरु से होता है, सत्य से और अपने आत्मस्वरूप से होता है, तब वही बंधन मुक्ति का द्वार बन जाता है। हम ऐसे युग में जी रहे हैं जहां समाज और परिवार में मतभेद, तनाव और असहमति आम हैं। ऐसे में असुरक्षा और भय पनपता है। जब परिवार के सदस्य ही एक-दूसरे से डरें, तो वहां शांति कैसे हो सकती है? जब समाज अविश्वास और भय से ग्रस्त हो, तो समरसता और सुखद जीवन दुर्लभ हो जाता है।
इसलिए आवश्यक है कि हम अपने रिश्तों में फिर से अपनापन और प्रतिबद्धता लाएं। जब हम यह भाव दोहराते हैं, ‘मैं तुम्हारे साथ हूं।’ तो परिवार और समाज दोनों सशक्त होते हैं। रक्षा बंधन का यही असली संदेश है कि अविश्वास और दूरी को मिटाकर भरोसे का धागा बांधना।

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