नेताओं को जनता के प्रति दृष्टिकोण बदलने की ज़रूरत

किसी भी राजनीतिक नेता के लिए ज़रूरी है कि वह अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं की भावनाओं का ध्यान रखते हुए उनका दुख-सुख साझा करे। जो नेता पार्टी के संघर्ष के दौरान कार्यकर्ताओं के सहयोग से आगे बढ़ा हो, उसे सत्ता में आने के बाद भी अपने कार्यकर्ताओं का धन्यवादी बना रहना चाहिए, परन्तु वर्तमान राजनीति में पदार्थवाद के हावी होने के कारण अधिकतर नेता पहले जैसे नहीं रहे, वे समय की चमक के प्रभाव में अपनी बाहरी रूप को उभारने में लगे हुए हैं। यह बड़ा दु:खांत है कि सत्ता प्राप्त करने के बाद बहुत-से नेताओं के व्यवहार में बहुत ज़्याता अंदर आ जाता है, उनकी साफगोई, सादगी तथा सहानुभूति वाला रवैया सिर्फ चुनावों तक ही रहता है। चुनावों में जीत प्राप्त हो जाने के बाद उनका रवैया तथा बोलचाल का तरीका बदल जाता है। जो नेता चुनावों से पहले बुज़ुर्गों के पांव छू कर अपनापन तथा सम्मान भी दिखाते हैं, चुनाव जीतने के बाद वे अपने समर्थकों को मिलने से भी आनाकानी करने लगते हैं। ऐसे नेता चुनाव से पहले तो अपने क्षेत्र में लोगों के साथ दुख-सुख बंटाने के लिए प्रत्येक घर तक पहुंच करते हुए बैठकों में पूरे जोश से शामिल होने की कोशिश करते है, परन्तु चुनाव जीत जाने के बाद ऐसे नेता अपना फूलों के हार से स्वागत करवाने, अपने नाम के बड़े-बड़े नींव पत्थर रखने या फिर मंचों से भाषण करने तक सीमित होकर हर जाते हैं। उन्हें मिलने के लिए आने वाले लोगों को पहले की भांति इनके घरों, दफ्तरों के द्वारा खुले नहीं मिलते, अपितु उन्हें मिलने के लिए इनकी रिहायशों तथा कार्यालयों के आगे बैठे कर्मचारियों की स्क्रीनिंग से निकलने के बाद पी.ए. के माध्यम से अपनी पहचान करवा कर ही नेताजी तक पहुंच होती  है। एक दिहाड़ीदार श्रमिक, दुकानदार या कोई कर्मचारी अपनी फरियाद सत्ता के अहंकार से अपनी तासीर बदलने वाले ऐसे नेताओं को आसानी से सुना नहीं सकते। यदि इनमें के किसी की फरियाद सुन भी ली जाए तो उनके मामले का समाधान कभी भी कई-कई चक्कर लगाए बिना नहीं होता।  
चुनाव जीतने वाले नेताओं का लोगों की फरियादें सुनने की बजाय अपने मोबाइल की ओर होता है और वे अक्सर निजी सचिव (पी.ए.) को बात सुनने के लिए कह देते हैं या फिर फरियादी को पूरी व्यथा वाला आवेदन देने को कह देते हैं। इस प्रकार बहुत-से आवेदन फाइलों में ही पड़े रह जाते हैं। यदि नेताओं की जीत से पहले और बाद की सम्पत्ति पर नज़र डाली जाए तो ज़मीन-आसमान का अंतर स्पष्ट दिखाई देगा। बहुत-से नेताओं की कुर्सी पर बैठते ही सम्पत्ति कई गुणा बढ़ जाना, उनकी तासीर बदल जाने की निशानी है। ऐसे नेताओं का लक्ष्य कोई मिशन या जन-कल्याण नहीं रह जाते, फिर भी वे एक-दूसरे से बड़ा होने की दौड़ में लग जाते हैं। ऐसे नेता फिर लोगों को अपील करने या दलील देने का बजाय अपने पैसे के बल पर पुन: भ्रमित करने की उम्मीद भी लगाए रखते हैं। एक बार मंत्री साहिब किसी के घर बैठ कर अफसोस कर रहे थे, मृतक पार्टी का टकसाली कार्यकर्ता था और मंत्री साहिब उक्त बुज़ुर्ग के संस्कार पर नहीं पहुंच सके थे। इसलिए वहां बहुत-से पार्टी कार्यकर्ता आए हुए थे और बुजुर्ग द्वारा पार्टी के लिए किए गए संघर्ष तथा उसके योगदान बारे बातें चल रही थीं। इसी दौरान मंत्री का पी.ए. फोन लेकर आया तो आगे मंत्री ने फोन पकड़ कर जवाब दिया, ‘बस थोड़ा-सा राह में फंस गए थे, हम आपके पास ही आ रहे हैं।’ मंत्री साहिब के मुंह से अचानक निकले ये शब्द सुन कर सभी हैरान रह गए कि एक टकसाली कार्यकर्ता के अफसोस के लिए दो पर रुकने को भी फंसे होना महसूस किया जा रहा है, ऐसी सोच तथा रवैया बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। 
ऐसा बहुत कम देखने को मिला है कि जब किसी मुद्दे या गलती के लिए किसी नेता ने नैतिकता के आधार पर ज़िम्मेदारी लेते हुए अपनी कुर्सी छोड़ी हो। यदि कोई नेता इस्तीफा देने का ढोंग करता भी है तो सुनियोजित साज़िश के तहत पार्टी हाईकमान उसका इस्तीफा स्वीकार ही नहीं करती। कुछ दिनों के बाद वही नेता उसी तासीर से अपने लाभ की पूर्ति के लिए जुट जाता है और ऐसी प्रक्रिया में नेताओं के भीतर नैतिकता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। 
 

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