मोदी की चीन यात्रा पर दुनियाभर की लगी हैं निगाहें
अभी आधिकारिक पुष्टि में समय है, पर संसार भर में चर्चा है कि प्रधानमंत्री मोदी बरसों बाद चीन जा रहे हैं। 31 अगस्त से 1 सितंबर 2025 तक वे तिआनजिन में शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ के शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेंगे। भारतीय उत्पादों पर 50 प्रतिशत तक टैरिफ बढ़ाने के और भविष्य में इसमें भी वृद्धि के अमरीकी फैसले के बीच यह खबर मार्के की है। विदेशी खासकर चीन के अखबारों में तो इसे लेकर अलग ही स्तर पर चर्चा है। एक ने तो इस पर एक विस्तृत संपादकीय ही लिख डाला है। कतिपय पश्चिमी मीडिया इसे अमरीकी असर को संतुलित करने का प्रयास बता रही है, तो कुछ मानते हैं कि भारत, रूस और चीन ट्रम्प के खिलाफ एक रणनीतिक जाल बुन रहे हैं, क्योंकि इसके बाद पुतिन का भारत दौरा आसन्न है। ब्रिक्स के तीन बड़े भागीदार भारत, रूस और चीन तीनों मिलकर डॉलर की हवा फुस्स कर सकते हैं। यह ट्रम्प की टैरिफ टेरर का माकूल जबाव होगा।
यह यात्रा ट्रम्प को दबाव में लायेगी, साफ हो जाएगा कि भारत की स्वतंत्र विदेशनीति, बहुपक्षीय सहयोग को बढ़ावा देने और अमरीका जैसी किसी एक ताकत के आगे न झुकने की है। भारत का अमरीका के अलावा चीन, रूस से भी दोस्ती बनाए रखना, अमरीका को यह संदेश देता है कि भारत किसी एक सर्वशक्तिमान की बजाय बहुध्रुवीय विश्व चाहता है। जाहिर है भारतीय विदेशनीति का यह नजरिया अमरीका के भू-राजनीतिक और आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधक होगा। ट्रम्प के सामने यह भी उजागर हो जायेगा कि वॉशिंगटन का भारत को चीन-विरोधी रणनीति में शामिल करने की कोशिश रंग नहीं लाने वाली क्योंकि यह नीति भारत की स्वतंत्र विदेश नीति से मेल नहीं खाती जिस पर वह अडिग है।
शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन 10 देशों से बना यूरेशियन सुरक्षा और राजनीतिक समूह है। इसमें चीन, रूस, ईरान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, पाकिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान और बेलारूस के साथ भारत भी शामिल है। इसकी 25वीं बैठक में क्षेत्रीय सुरक्षा, आतंकवाद और व्यापार जैसे मुद्दों पर चर्चा होगी, कुछ समझौते हो सकते हैं। भारत-चीन रिश्तों में स्थिरता, संवाद बढ़ाने पर चर्चा के साथ यहां शी जिनपिंग और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मोदी अनौपचारिक मुलाकात भी संभव है। मगर यह यात्रा मुख्यत: एससीओ शिखर सम्मेलन के लिए है। न तो भारत ने और न ही चीन ने अभी तक प्रधानमंत्री मोदी की किसी द्विपक्षीय बैठक की आधिकारिक पुष्टि की है। यह तो चीन के सकारात्मक रुख पर निर्भर करेगा पर कूटनीतिक आंकलन कहते हैं कि मौके की मांग के अनुरूप इसकी संभावना प्रबल है।
ऐसा होता है तो ट्रेड वार और टैरिफ विवाद के बीच भारत को पश्चिमी देशों के साथ सहयोग बढ़ाने की स्थिति में रूस के साथ संबंधों को संतुलित करने, वैश्विक मंच पर अपने कूटनीतिक प्रयास का भी मौका रहेगा। मोदी चीन और रूस के साथ एक त्रिपक्षीय बैठक के जरिये रूस की ताकत का इस्तेमाल कर चीन और भारत के बीच के रिश्ते सुधारने का प्रयास कर सकते हैं। यह यात्रा भारत को क्षेत्रीय सुरक्षा, आतंकवाद और व्यापार सहयोग जैसे मुद्दों पर अपनी राय रखने का अवसर प्रदान करेगी। भारत-चीन संबंधों में स्थिरता लाने, तनाव कम करने और विश्वास बहाली की दिशा में बेहतर उपकरण साबित होगी।
प्रधानमंत्री की चीन यात्रा संबंधी पूरा कार्यक्रम सार्वजनिक किए जाने में अभी समय है, एक क्षीण आशंका यह भी है कि प्रधानमंत्री चीन से मौजूदा सियासी रिश्तों, सीमा विवाद, ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान को उसकी खुली मदद वगैरह को देखते हुए चीन न जाएं। विपक्षी भी हल्ला मचा सकते हैं कि चीन देश के सीमावर्ती क्षेत्रों में आक्रामक गतिविधियों में लिप्त है, वह अरुणाचल प्रदेश को ‘दक्षिण तिब्बत’ बताता है, भारतीय मानचित्रों को गलत ढंग से दर्शाता है, देश की संप्रभुता को कभी गंभीरता से नहीं लेता। उस चीन में जाना, यह उसके खिलाफ प्राणोत्सर्ग करने वाले शहीदों की स्मृति का अपमान है। यह राष्ट्रीय सुरक्षा और जनता की भावना के प्रतिकूल है।
चीन को दिए कूटनीतिक अवसर से उन पर ‘देश के दुश्मनों से दोस्ती’ का आरोप लग सकता है। वहां प्रमुख पाकिस्तानी नेताओं की संभावित उपस्थिति भी काफी जटिलता पैदा कर सकती है। उन्होंने विगत सात वर्षों से चीन यात्रा से परहेज ही किया है। इस बार और सही। पर इस तरह के पूर्वानुमान ध्वस्त होने की कई वजहें भी हैं। असल में यह चीन और भारत के बीच बातचीत और सहयोग का दौर शुरू करने का समय है। दुनिया की एक-तिहाई से ज्यादा आबादी रखने वाले दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं अपना वैश्विक प्रभाव रखती हैं। इनके रिश्ते पूरी दुनिया के लिए अहम हैं। सीमाई विवाद और मतभेद अपनी जगह पर, इसके इतर हाल में दोनों के बीच संबंधों में नरमी के कई उल्लेखनीय संकेत मिले हैं।
इस साल जून से अब तक भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस. जयशंकर चीन की यात्रा कर चुके हैं। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। दोनों देशों ने सीमा विवाद को बाकी के मामलों और रिश्तों में बाधा न बनने देने का वादा किया है। इसी साल जून में दोनों ने ट्रेड और इकोनॉमिक्स के क्षेत्र में चिंता के खास मुद्दों को हल करने के लिए वार्ता पर सहमति जताई। दोनों पक्षों ने 2020 से निलंबित सीधी हवाई सेवाओं को फिर से शुरू करने की कोशिशें तेज़ करने के बारे में भी सहमति जतायी है। मतलब संकेत बहुत सकारात्मक हैं, तो प्रधानमंत्री मोदी की इस चीन यात्रा के आसार प्रबल हैं और यह यात्रा संपन्न होती है, तो यह संबंध सुधारने का एक अच्छा मौका होगा।
ऐसे में बेहतर होगा कि दोनों देश स्वीकारें कि वे एक-दूसरे के विकास के अवसर हैं, खतरा नहीं। वे प्रतियोगी नहीं बल्कि सहयोगी हैं। अगर भारत इस यात्रा को अवसर मानकर चीन को अपनी नीतियों में बदलाव करने को सहमत करें और बेकार की बाधाएं हटाने पर राजी करे, तो संबंधों में काफी प्रगति हो सकती है। प्रधानमंत्री साहसिक निर्णयों, अप्रत्याशित चालों के लिए जाने जाते हैं। विदेश यात्रा के लिये प्रसिद्ध प्रधानमंत्री मोदी क्या सभी किन्तु परंतु को दरकिनार कर पूरी शान से देश का प्रतिनिधित्व करने चीन जायेंगे? वे उन सियासी विश्लेषणों को भी धता बताते हुए, वर्तमान संबंधों की विसंगतियों को परे रखते हुये चीन जाएंगे। वे न सिर्फ इस आयोजन में हिस्सा लेने जाएंगे, वरन देश हित के कुछ महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा करके लौटेंगे। उम्मीद है कि प्रधानमंत्री मोदी व्यवहारिक सहयोग योजनाओं और संबंध सुधारने की सच्ची भावना के साथ चीन जाएंगे और भारत चीन रिश्तों में सकारात्मक बदलाव के सूत्रधार बनेंगे।
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