ट्रम्प की शर्तें : भारत का आत्म-सम्मान

भारत को लेकर ट्रम्प जिस तरह के बयान दे रहे हैं, उन्हें न तो हैरतअंगेज़ माना जाएगा न ही असंयत। अभूतपूर्व भी नहीं। भारत के लिए ऐसा उतार-चढ़ाव कतई नया हो, ऐसा भी नहीं है, लेकिन जो महत्त्वपूर्ण बात उभर कर आई है, वह यह कि भारत अपने आत्म-सम्मान के साथ खड़ा है और अडिग है। महाकवि का एक दोहा है-‘बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर, पंछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर’। ट्रम्प अगर अमरीका को इसी तरह महान बनाना चाहते हैं तो भारत को झुक कर ट्रम्प की शर्तों को अंधाधुंध स्वीकार करना सम्भव नहीं। ऐसा अच्छी तरह से बता दिया गया है। बात आज की नहीं है, 1990 की शुरुआत से ही भारत की अमरीका के साथ साझेदारी लगातार तो रही है, लेकिन एक सावधानी के साथ। माना कि शीत युद्ध के बाद अमरीका एक महा-शक्ति के रूप में उभरा लेकिन एशिया की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं रहा, लेकिन एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरे चीन ने अमरीका को चकित कर दिया। अमरीका के लिए भारत एक लोकतांत्रिक देश ही नहीं, चीन से सीमाएं भी सांझी कर रहा था, लेकिन दिक्कत यह रही अमरीका भारत के साथ बराबरी के रिश्ते रहे नहीं। लेन-देन का माध्यम ही बनाया। पिछले कुछ समय में भारत-पाकिस्तान के रिश्ते को एक ही तराज़ू के पलड़े में रख कर देखा, तो भारत को बुरा ही लगना था, क्योंकि पाकिस्तान आतंकवाद का पालन-पोषण कर रहा था जिसका पूरा नुकसान भारत को झेलना पड़ रहा था।
ट्रम्प के अमरीका में भी विरोध होने लगे हैं। 20 अप्रैल, 2025 को अमरीका में सात सौ से भी ज्यादा जगहों पर ट्रम्प के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों में अमरीका के तीन जन-संगठनों महिला  मार्च, ब्लैक लाइव्स मैटर और अमरीकन सिविल लिबर्टीज़ यूनियन ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। मानवाधिकार अभियान वकालत समूह के अध्यक्ष कैली राबिन्सन कहते हैं-हम जो हमले देख रहे हैं, वो सिर्फ राजनीतिक नहीं हैं। वे व्यक्तिगत भी हैं। वे हमारी किताबों पर प्रतिबन्ध लगाने की कोशिश कर रहे हैं। वे एच.आई.वी. रोकथाम निधि में कटौती कर रहे हैं, वे हमारे शिक्षकों, हमारे परिवारों और हमारी ज़िन्दगी को शिकार बना रहे हैं।
2005 के परमाणु समझौते ने विश्वास के बढ़े हुए स्तर का संकेत दिया। ऐसा लगा कि अमरीका भारत को चीन के विरुद्ध संतुलन बनाने वाले देश के रूप में देख रहा है, लेकिन ट्रम्प के आने के बाद चीज़ें तेज़ी से बदली हैं। वह सौदेबाज़ी के लिए अधीर नज़र आये। उन्हें लगा कि भारत सहित तमाम देश दबाव में उनके सामने झुक जाएंगे। लगा कि भारत टैरिफ और कूटनीति के क्षेत्र में वाशिंगटन के आगे झुक कर पेश आएगा। यह उनकी बड़ी गलतफहमी साबित हुई। भारत अमरीका के साथ तभी साझेदारी कर सकता है जब कोई उसके राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध न हो।
क्वाड में भारत की भूमिका स्पष्ट है। हिन्द महासागर में उसके सहयोगी रुख के बावजूद ट्रम्प भारत पर दबाव बनाने की कोशिश में रहे हैं। मसलन व्यापार की शर्तें, बाज़ार पर पहुंच, तकनीकी नीति। ऑपरेशन सिंदूर पर भी उन्होंने अपनी पकड़ दिखानी चाही, लेकिन भारत ने इस आक्षेप को प्रत्येक मंच पर रद्द  किया है। ट्रम्प ज़रूर इससे व्यक्तिगत स्तर पर आहत हुए हैं। भारत ने डंके की चोट पर कहा कि पाकिस्तान के साथ युद्ध-विराम का फैसला किसी भी बाहरी दबाव में नहीं लिया। ईरान को लेकर भी इन्होंने दबाव बनाने की हर सम्भव कोशिश की, परन्तु क्या यह अकल्पनीय नहीं कि ईरान परमाणु गतिविधियों को विकसित न करने के लिए प्रतिबद्ध होगा, जबकि सभी खाड़ी अरब देश ऐसा कर रहे हैं और जब बमों का ़खतरा भी है।

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