लावारिस कुत्तों संबंधी अदालती निर्देश
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नई दिल्ली और इसके आस-पास के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रों में लावारिस कुत्तों को लेकर दिल्ली सरकार और नगर निकायों को लगाई गई कड़ी फटकार देश भर में लावारिस कुत्तों और इनके काटने से होने वाले रैबीज़ रोग संबंधी समस्या की गम्भीरता को ज़ाहिर करने के लिए काफी है। सर्वोच्च न्यायालय की दो जजों की एक विशेष पीठ ने न केवल इस समस्या को अत्यधिक गम्भीर करार दिया है, अपितु सरकार को लावारिस कुत्तों के बधियाकरण और पर्याप्त टीकाकरण हेतु समुचित व्यवस्था करने और इस कार्य की सम्पन्नता के लिए पर्याप्त संख्या में कर्मचारियों की नियुक्ति करने का भी निर्देश दिया है। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्देश बेशक पहले चरण फिलहाल लगभग 5000 लावारिस कुत्तों के हेतु आश्रय गृह बनाये जाने को लेकर है, किन्तु बहुत सम्भव है कि यह निर्देश निकट भविष्य में पूरे देश के लिए एक उदाहरण-स्वरूप सिद्ध हो सकता है। सर्वोच्च अदालत का यह निर्देश इसलिए भी बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि विगत कुछ वर्षों में देश भर में न केवल सड़कों-गलियों में लावारिस कुत्तों की तादाद बढ़ी है, अपितु कुत्तों के काटे जाने से होने वाली मौतों और रैबीज़ रोगियों की संख्या में भी उसी अनुपात से वृद्धि हुई है। माननीय न्यायाधीशों की इस इतनी बड़ी टिप्पणी की गम्भीरता और महत्त्व को इस एक वाक्य से भी समझा जा सकता है कि कोई भी व्यक्ति या संस्था यदि इस कृत्य की सम्पन्नता के पथ पर बाधा बनते हैं तो उनके खिलाफ भी कड़ी कार्रवाई की जाएगी। सर्वोच्च अदालत ने कुत्तों के लिए दिल्ली के अतिरिक्त नोएडा, गाज़ियाबाद एवं गुरुग्राम में जितनी जल्दी हो सके, पर्याप्त संख्या में आश्रय स्थल बनाये जाने हेतु भी कहा है।
नि:संदेह यह एक अत्यावश्यक क्रिया थी जिसकी चिरकाल से अपेक्षा लगी थी, किन्तु हम समझते हैं कि अदालत का यह फैसला एक सही उपचार होने के बावजूद समस्या के एक पक्ष को दर्शाता है। देश में सदियों से सड़कों-गलियों में घूमते कुत्ते समाज का एक अभिन्न अंग बने रहे हैं। बेशक समाज के लोगों को कुत्ता काटे जाने से बचाना ज़रूरी है, किन्तु कुत्तों को एकदम से पूरे मानव समाज से अलग-थलग कर देना भी कदाचित न्याय-संगत नहीं होगा। बेशक देश के विभिन्न राज्यों में कुत्तों के काटे जाने से होने वाले रैबीज़ रोग को लेकर भी व्यापक स्तर पर बड़ी चर्चा होने लगी थी। नि:संदेह रैबीज़ एक ऐसा घातक रोग है जिसके एक बार प्रकट हो जाने पर इसके उपचार का कोई साधन अथवा उपाय नहीं बचता है। रैबीज़ का अन्तिम चरण मृत्यु ही है। विगत कुछ वर्षों से रैबीज़ रोगियों की संख्या भी निरन्तर बढ़ती जा रही थी। लावारिस कुत्तों की समस्या को लेकर भी, देश के विभिन्न राज्यों में बड़ा वावेला मच रहा था किन्तु बड़ी संख्या में कुत्ता काटने की घटनाएं होने अथवा लोगों के मारे जाने की घटनाएं होने के बावजूद किसी भी सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही थी। समस्या का एक बड़ा त्रासद पक्ष यह भी होने लगा था कि छोटे-बड़े बच्चे, महिलाएं और वरिष्ठ जन ऐसी घटनाओं का मुख्य शिकार होने लगे थे। कई घटनाओं में कुत्ते बच्चों-किशोरों को नोच-नोच कर खा गये, और कई बार कुत्तों द्वारा लोगों के घरों के बाहर से भी नवजात बच्चों को मुंह में दबोच कर उठा ले जाने की घटनाएं समाचार पत्रों की सुर्खियां बनीं। सम्भवत: इसीलिए सर्वोच्च अदालत ने अपनी टिप्पणी में कुत्तों से बच्चों को बचाये जाने का विशेष आह्वान करते हुए कहा कि कथित पशु-प्रेमियों के हठ के समक्ष हम बच्चों को मरने के लिए नहीं छोड़ सकते। अदालत की यह एक टिप्पणी भी बड़े मायने रखती है कि लावारिस कुत्तों को एक बार पकड़ कर, पुन: उन्हें किसी अन्य गली-मोहल्ले में न छोड़ा जाए अपितु उन्हें समाज से दूर करने के पुख्ता उपाय किये जाएं।
हम समझते हैं कि इस समस्या के प्रति सरकारों की उपेक्षा और लापरवाही के कारण अदालती हस्तक्षेप की सम्भावना अपने आप बन गई थी। एक तो इस देश में यह प्रथा बन गई है कि सरकारें अदालतों की लाठी से ही हांकी जाने लगी हैं। लावारिस कुत्तों द्वारा बच्चों और महिलाओं को आसानी से अपना शिकार बनाने की घटनाओं के प्रति देश और समाज की अपीलों के बाद ही अन्तत: सर्वोच्च अदालत को ऐसा कठोर निर्णय लेने हेतु विवश होना पड़ा। अब इस मामले में भी ऐसा ही हुआ है। उच्चतम न्यायालय का अधिकारियों को एक सप्ताह के भीतर एक हैल्पलाईन बनाये जाने का निर्देश भी यह स्पष्ट करता है कि दिल्ली सरकार के लिए लापरवाही अब सम्भव और सरल नहीं होगी। हम यह भी समझते हैं कि बेशक यह फैसला अभी दिल्ली की सीमाओं के भीतर तक सीमित है, किन्तु यह एक ऐसा निर्णय है जो भविष्य में पूरे देश के लिए एक नज़ीर बनेगा। बहुत शीघ्र देश के अन्य राज्यों जहां-जहां यह समस्या बेहद गम्भीर है, की सरकारों को भी इसी तर्ज पर इस समस्या से निपटने की पहल करना होगी। हम समझते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला अन्तत: ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ जैसा सिद्ध हो सकता है, किन्तु ऐसा करते समय कुत्तों के प्रति प्रशासन में मानवीय दृष्टिकोण बने रहना भी ज़रूरी है।