पहाड़ों पर हो रहा विकास कहीं विनाश न सिद्ध हो !

पहाड़ों पर जिस तरह से बिना सोचे समझे प्रकृति से खिड़वाड़ किया जा रहा है उसका साक्षात प्रमाण धराली है। लगातार विकास के नाम पर जिस तरह से अनदेखी कर इस देवभूमि को विनाश की तरफ धकेला जा रहा है। वह इस बात का संकेत है कि अपनी क्षणिक सुख की प्राप्ति व धनप्राप्ति के लिए हम अपने ही विनाश की तैयारी कर रहे है। देव भूमि में अब दर्शन और साधना की जगह मौजमस्ती का महौल बनता जा रहा है।
 गत 5 अगस्त 25 को उत्तरकाशी के जिस धराली गांव में बादल फटने और फिर तीव्र वेग के जल-प्रलय की आपदा आई थी। ऐसी आपदाएं 1864, 2013 और 2014 में भी आ चुकी हैं। अब सवाल यह कि आखिर पहाड़ इतने खौफनाक और खतरनाक क्यों होते जा रहे हैं? क्या पहाड़ में आवास दूभर हो गया है? लगातार भू-स्खलन और बाढ़ की घटनाएं क्यों बढ़ती जा रही हैं? क्या हिमालय पर्वत के हिस्से भी दरकने और बड़े-बड़े पत्थरों के रूप में गिरने लगे हैं? इन घटनाओं और आपदाओं में बारिश और बादल फटने की घटनाएं ‘कुदरत का कहर’ मानी जा सकती हैं। इसके अलावा घर, दुकान, मंदिर, इमारतें, होटल आदि का जमींदोज होना, नतीजतन मौत के आंकड़े बढ़ते रहने की आपदाएं ‘मानव-निर्मित’ हैं। यह हमारा नहीं, मौसम और भूगर्भ वैज्ञानिकों का विश्लेषण है। विकास के नाम पर पहाड़ खोदे जा रहे हैं। पहाड़ों को चीरकर सुरंगें बनाई जा रही हैं। रेल की पटरी बिछाई जा रही है। यही नही नदी-नालों के किनारे अथवा उन्हीं के भीतर होटल, रिजॉर्ट की बहुमंजिला इमारतें खड़ी की जा रही हैं। उत्तराखंड में ही जिस 50,000 वर्ग हेक्टेयर जंगल नष्ट कर वहां पक्की इमारतें बना दी गई हैं। उत्तरकाशी के प्रलय में धराली में आई आपदा ने देश-दुनिया को गहरे तक आहत किया है। मलबे और बाढ़ के पानी के सैलाब ने जिस तरह घरों, होटलों व बगीचों तथा खेत-खलिहानों को तबाह किया, उसने आम लोगों को भयभीत किया। 
पहाड़ की भौगोलिक जटिलताओं व बचाव के संसाधन पहुंचाने में देरी से राहत कार्य बाधित हुआ है। नि:संदेह, हादसे से जुड़ा पहलू यह भी है कि तंत्र की अनदेखी व खीरगंगा के विस्तार क्षेत्र की आशंकाओं को नज़रअंदाज करके जो निर्माण किया गया, वह सैलाब की जद में आया। ऐसे में फिर सवाल यह है कि वे कौन से कारण थे कि बेहद तीव्र वेग से आये सैलाब ने लोगों को भागने तक का मौका नहीं दिया। हालांकि, मरने वालों की वास्तविक संख्या सामने नहीं आयी है, लेकिन सैलाब की भयावहता को देखकर अंदाजा लगाना कठिन नहीं है कि जनधन की बड़ी हानि हुई होगी। अब असली सवाल यह है कि ये आपदा कैसे आयी। आजकल ऐसे हादसों की साधारण व्याख्या होती है कि हादसा बादल फटने से हुआ लेकिन धराली में आपदा की वजह बादल फटना मानने को वैज्ञानिक तैयार नहीं हैं। वैज्ञानिक इस वजह से बादल फटने के तर्क को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं क्योंकि मौसम विभाग के अनुसार 4-5 अगस्त को उस क्षेत्र में महज आठ से दस मिमी बारिश ही हुई थी। वैज्ञानिक मानक के अनुसार बादल फटने की घटना तब होती है जब उस इलाके में 100 मिमी से अधिक बारिश हुई हो। दरअसल, धराली गांव के पीछे डेढ़-दो किलोमीटर लंबा और बेहद घना जंगल है। दोनों तरफ ऊंचे व तीव्र ढलान वाले पहाड़ हैं। जिस खीरगंगा में फ्लैश फ्लड आया है, वो उन्हीं घने जंगलों से होकर गुजरती है। वैज्ञानिक एक तर्क पर विचार कर रहे हैं कि कहीं घने जंगलों वाले इलाके में भूस्खलन की वजह से पानी का प्रवाह रुक गया होगा, जिसके बाद अस्थाई झील टूटने से आपदा आई होगी। वैज्ञानिकों के इन तथ्यों को नकारा नही जा सकता। 
दरअसल, वैज्ञानिक पहले भी आशंका जताते रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते बढ़ते तापमान की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। पिघली बर्फ के पानी से बनी झीलें कालांतर भूस्खलन या बादल फटने के बाद टूट जाती हैं और सैलाब तेज़ ढलान पर उतरकर तबाही लाता है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2013 की केदार घाटी में आई आपदा भी चोराबारी झील के टूटने से निकले सैलाब की वजह से हुई थी। दूसरी विडंबना यह भी है कि ग्लोबल वार्मिंग व बढ़ते तापमान की वजह से ऊंचे पहाड़ों में बारिश की प्रकृति में कुछ वर्षों से बदलाव आया है। सामान्यत: तीन चार हजार मीटर की ऊंचाई पर पहले बर्फबारी होती थी, बारिश नहीं। लेकिन अब लगातार होती बारिश से ग्लेशियर टूट रहे हैं। जो कालांतर अस्थायी झील पर गिरते हैं तो झील का पानी पहाड़ों के तीव्र ढलान पर तेजी से बहता है। जब उसके साथ मलबा, पत्थर व मिट्टी मिल जाती है तो उसकी धार मारक हो जाती है। खैर धराली की घटना को देखते हुए अब उत्तराखंड सरकार और केन्द्र सरकार को वैज्ञानिकों की सलाह के आधार पर विकास कार्यों के साथ किसी अनहोनी की दशा में लोगों के जीवन बचाने की सूरक्षा योजना पर काम करना होगा, क्योंकि देवभूमि में धराली जैसे तमाम गांव और स्थान है जो आपदाकाल में बिल्कुल असुरक्षित है।

#पहाड़ों पर हो रहा विकास कहीं विनाश न सिद्ध हो !