आम जन तक पहुंचे नि:शुल्क उपचार और शिक्षा की सुविधा

आज़ादी के समय देश के संविधान निर्माताओं ने शिक्षा और स्वास्थ्य को हर नागरिक का मूल अधिकार माना, लेकिन नीतियों के बदलाव और बाज़ार के बढ़ते दखल ने इस सोच को धुंधला कर दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत का हालिया बयान इस मुद्दे को फिर चर्चा में ले आया है कि शिक्षा और चिकित्सा अब आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही है। नि:शुल्क और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व स्वास्थ्य ऐसा निवेश है जो भारत को एक साथ समृद्धि, समानता और स्थिरता की राह पर ले जा सकता है।
अगर हमें गरीबी, अशिक्षा और बीमारी के चक्रव्यूह से निकलना है तो शिक्षा और स्वास्थ्य को हर नागरिक तक नि:शुल्क और समान रूप से पहुंचना होगा। लेकिन पिछले आठ दशक में, इस सोच की जगह धीरे-धीरे बाज़ार-आधारित नीतियों ने ले ली। सरकारी संस्थान, जिन्हें मज़बूती से खड़ा होना चाहिए था, उन्हें उपेक्षित कर दिया गया। निजी क्षेत्र के लिए दरवाज़े इस तरह खोले गए कि शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा धीरे-धीरे सबसे महंगे कारोबारों में बदल गए। मोहन भागवत का हालिया बयान इस विषय को फिर से राष्ट्रीय बहस के केंद्र में ले आया है। उन्होंने इसी सप्ताह के शुरू में इंदौर में साफ कहा कि शिक्षा और स्वास्थ्य आम आदमी की पहुंच से बाहर होते जा रहे हैं। स्कूल और अस्पताल, जो पहले सेवा और समाज-निर्माण के प्रतीक थे, अब मुनाफाखोरी के केंद्र बन गए हैं। आज हालत यह है कि एक मध्यमवर्गीय पिता अपने बच्चे की पढ़ाई के लिए या अपनी बीमारी के इलाज के लिए घर गिरवी रखने या बेचने तक को मजबूर हो जाता है। यह विडम्बना ही है कि जिन दो चीज़ों से इंसान का जीवन संवर सकता है—शिक्षा और स्वास्थ्य ,वे ही उसकी सबसे बड़ी आर्थिक मुसीबत बन चुकी हैं। अस्पतालों और स्कूलों की संख्या तो बढ़ रही है, नए भवनए, आधुनिक मशीनें और वातानुकूल केम्पस भी दिखते हैं, लेकिन उनकी फीस और खर्च इतने ज्यादा हैं कि आम आदमी वहां कदम रखने से पहले सौ बार सोचता है।
अगर हम शिक्षा और स्वास्थ्य को नि:शुल्क कर दें, तो इसके लाभ केवल सामाजिक ही नहीं, बल्कि आर्थिक रूप से भी क्रांतिकारी होंगे। सबसे बड़ा फायदा होगा गरीबी पर सीधा प्रहार। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में हर साल लगभग 6 करोड़ लोग केवल इलाज के खर्च के कारण गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। अगर स्वास्थ्य सेवा मुफ्त हो जाए तो यह सिलसिला लगभग खत्म हो सकता है। शिक्षा के मामले में भी यही सच है। महंगी फीस के कारण लाखों प्रतिभाशाली छात्र अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं। मुफ्त शिक्षा से यह प्रतिभा व्यर्थ नहीं जाएगी, बल्कि देश के विकास में लगेगी।
यह कदम समाज में समान अवसर सुनिश्चित करेगा। अभी एक अमीर परिवार का बच्चा बेहतरीन स्कूल और हॉस्पिटल का लाभ ले सकता है जबकि गरीब का बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़ता है और बीमार पड़ने पर सरकारी अस्पताल में लंबी लाइन में खड़ा होता है। मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण सेवाएं इस खाई को पाटेंगी। यह केवल नैतिक नहीं बल्कि व्यावहारिक भी है, क्योंकि एक समान अवसर वाला समाज अधिक स्थिर और प्रगतिशील होता है। इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले हमें मौजूदा चुनौतियों का सामना करना होगा। सबसे बड़ी चुनौती है, अत्यधिक व्यावसायीकरण। निजी स्कूलों और अस्पतालों ने सेवा-भाव की जगह मुनाफे को अपना लक्ष्य बना लिया है। शिक्षा के नाम पर हर साल फीस में बेहिसाब बढ़ोतरी होती है। अस्पतालों में मरीज़ से अनावश्यक टेस्ट कराए जाते हैं, महंगे पैकेज बेचे जाते हैं। दूसरी बड़ी चुनौती है, सरकारी निवेश की कमी। भारत में शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का केवल करीब 3.1 प्रतिशत और स्वास्थ्य पर 2.9 प्रतिशत खर्च होता है जबकि विश्व औसत 4 प्रतिशत से अधिक है और विकसित देशों में यह 6-10 प्रतिशत है।  
इस बदलाव के भावनात्मक प्रभाव को समझने के लिए केवल एक दृश्य सोचिए—एक गांव की 12 साल की बच्ची, जो अभी खेतों में मजदूरी करती है अगर उसे मुफ्त और अच्छी शिक्षा मिले, तो वह कल एक इंजीनियर या डॉक्टर बन सकती है। एक गरीब किसान, जो बीमारी में अपने खेत बेच देता है, अगर उसे मुफ्त इलाज मिले तो वह अपना जीवनयापन जारी रख सकता है। ऐसे लाखों जीवन एक नीति से बदल सकते हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए एक स्पष्ट, साहसिक और व्यावहारिक रोडमैप चाहिए।  (अदिति)

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