मनुष्य को महंगी पड़ेगी हिमालय के साथ छेड़छाड़

पर्वतराज हिमालय और विश्व की सबसे ऊंची चोटी से सुसज्जित तथा वन्य प्रदेशों, नदियों और अनमोल प्राकृतिक संसाधनों से हमें मालामाल करता यह पर्वत भारत ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया का रक्षक रहा है और अब भी है। यह न केवल जलवायु और पर्यावरण को संतुलित करता है बल्कि संस्कृति, आध्यात्मिक और आर्थिक रूप से समृद्ध बनाता है, प्राकृतिक आपदाओं से बचाए रखता है और हम निश्चिंत होकर जीवन व्यतीत करते हैं। आज की वास्तविकता यह है कि गलत नीतियों और उससे भी अधिक घोर लालच ने इसे हमारा ही भक्षण करने की स्थिति में ला दिया है। 
सफाया, सफाई और सौंदर्यीकरण के बहाने : अब यह बात बेमानी हो गई है कि वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, सड़कों का निर्माण करने के लिए जंगलों का सफाया करना होता है, पेड़ों से जो क़ुदरती तरीके से पत्ते, टहनियां, फल-फूल धरती पर गिरते हैं, उसे गंदगी समझकर सफाई अभियान चलाते हैं और पर्यटकों को लुभाने के लिए सुंदरता के भोंडे नमूने बना देते हैं। इसके मूल में यह है कि जैसे भी हो कमाई की जाए और रातोंरात अमीर कैसे बना जाएए इसकी योजना सरकार के आश्रय में बना कर अपना उल्लू सीधा करना ही लक्ष्य बन गया है। 
उत्तराखंड हिमाचल प्रमुख रूप से और हिमालय के आँचल में बसे अन्य प्रदेश प्रतिवर्ष तबाही का दृश्य दिखाते हैं, पूरे इलाके ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग जिसके लिए कुछ समय सरकार की तरफ से हायतौबा होती है और आरोप प्रत्यारोप लगाकर जनता को गुमराह करने का सफल प्रयास किया जाता है। यह बात समझते हुए भी अंजान बने रहते हैं कि हिमालय की वनस्पति और वन उसकी मिट्टी यानी जड़ों को जमाए रखने का काम करते हैं। इससे नदियों का जल प्रवाह काबू में रहता है।
इसके विपरीत जैसी करनी वैसी भरनी को सार्थक करते हुए हम बिना रोक-टोक पेड़ों की एक तरह से हत्या करते रहते हैं और प्राकृतिक सुरक्षा कवच तहस नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। परिणाम वही होता है जो पर्यावरण विज्ञानी, शोधकर्ता और हिमालय से मित्र की भांति व्यवहार करने वाले वनवासी बार-बार जिसकी भविष्यवाणी करते रहते हैं। ज़मीन का खिसकना, पहाड़ों का दरकना और नदियों को जिस ओर रास्ता मिले, बहना शुरू हो जाता है। कारवां निकल जाता है और हम देखते ही नहीं रहते बल्कि आँख मूँद लेते हैं और शीर-शराबे के बाद परनाला वहीं बहेगा, की तज़र् पर नए बांधीं, सड़कों और कानूनी या गैर-क़ानूनी, ज़मीन पट्टे पर लेकर या अतिक्रमण अर्थात् जो हाथ आ गई, उस पर कब्ज़ा कर पर्यटन के नाम पर वह सब करते हैं जिससे हिमालय को हमारा भक्षक बनना पड़ता है। 
स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना : हम किस तरह अपने विनाश को आमंत्रित करते हैंए इसका एक व्यक्तिगत अनुभव बताना ज़रूरी है। उत्तराखंड नया नया बना था और नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री थे। वनों को लेकर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होना था। वन विभाग की ओर से इस अवसर पर एक फिल्म बनाने का न्यौता मिला। हल्द्वानी के पास गौला नदी है। इसमें पहाड़ टूटकर गिरते रहते हैं क्योंकि उन्हें रोकने के लिए वनों का सफाया किया जा चुका था। नदी की चौड़ाई का फ़ायदा इस तरह उठाया गया कि उसमें जो चट्टानए पत्थरए बड़े बोल्डर्स और रेत तथा अन्य सामग्री गिरती है उसकी छँटाई हो सके और इसे भवन निर्माण के लिए ठेकेदारों को बेचा जा सके। बहुत शानदार उपलब्धि बताया गया क्योंकि यह प्रदेश की प्रमुख आमदनी का स्रोत था। 
एक और सुझाव की चर्चा करते हैं। सड़कें बहुत ज़रूरी हैं ताकि उन स्थानों तक पहुंचा जा सके जो दुर्गम क्षेत्रों में हैं। इसके लिए विशेषज्ञों ने कहा कि हमें सड़कों को जंगलों के हिसाब से बनाना चाहिए और वही पेड़ काटे जाएं जिनकी आयु पूरी हो चुकी है। उत्तराखंड, हिमाचल या कहीं भी चले जाइए, यह स्पष्ट दिख सकता है कि सड़क बनने या किसी अन्य प्रयोजन से बड़ी भरी संख्या में वे पेड़ काटे गए हैं जो इस क्षेत्र के इकोसिस्टम के लिए आवश्यक थे। वनस्पतिया और दुर्लभ प्रजाति के पौधों को बेदर्दी से नष्ट किया जा रहा था। 
इस तरह का वन विनाश वन संरक्षण के नाम पर हिमालय की गोद में पल रहे सभी पहाड़ी और उत्तर पूर्व के राज्यों में बड़े पैमाने पर हो रहा है। केदारनाथ त्रासदी हो या धराली की आफत ये सब हमारी इस मूल प्रवृत्ति के कारण हैं जिसमें हमें नदियों का रौद्र रूप देखना अच्छा लगता है। शिमला और दूसरे स्थल अब वे नहीं रह गए हैं जो कभी प्रदेश की शान हुआ करते थे। पर्यटन के नाम पर लालच ने इतना वशीभूत कर दिया है कि चमोली में ग्लेशियर टूटने की घटना एक सामान्य बाढ़ दिखाई देती है। यही नहीं, नदियों से जलीय जीवों जैसे मछली की प्रजातियां अब तेज़ी से घट रही हैं। डॉलफिन की घटती संख्या इसका उदाहरण है। 
हिमालय की रक्षा : हिमालय हमारा रक्षक है क्योंकि यह वन, जल, जैव विविधता और प्राकृतिक संसाधनों का सबसे बड़ा स्रोत है। अनियंत्रित विकास, अनावश्यक दोहन और पर्यावरण को नज़रंदाज़ करने से भू-स्खलन, जलवायु परिवर्तन और जबरदस्त बाढ़ जैसी आपदाएं अब स्थानीय लोगों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिए मुसीबत बन रही हैं। यदि इसे भक्षक बनने से रोकना है तो तत्काल विज्ञानियों, पर्यावरणविदों और स्थानीय समुदायों विशेषकर वनवासियों के साथ मिलकर नई परियोजनाओं को शुरू करना होगा। इस दिशा में प्रयास शुरू हैं जैसे कि उत्तराखंड के मुख्य मंत्री पुष्कर सिंह धामी ने चारधाम में किए जाने वाले निर्माण पर फिलहाल रोक लगा दी है।
निष्कर्ष यह है कि विकास करें, बांध, सड़कें और पर्यटन स्थल बनायें लेकिन वनों और वन्य प्राणियों के साथ सहयोग करके क्योंकि जीने का अधिकार उनका भी है। उनके क्रोध का भाजन बनने के लिए जंगलों को चिढ़ाना कहां की अकलमंदी है। कुदरत का मुक़ाबला करने के बजाय उसके साथ ताल मिलाकर चलना ही बेहतर है वरना जंगल का फौव और जंगली जानवरों का शिकार बनने से बचा नहीं जा सकता। उन्हें छेड़ेंगे तो वो हमे नहीं छोड़ेंगेए बस यही हमारे सुरक्षित रहने का उपाय है। 

#मनुष्य को महंगी पड़ेगी हिमालय के साथ छेड़छाड़