बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे लेखक राजेन्द्र कृष्ण

हालांकि धुन सुनने के बाद राजेन्द्र कृष्ण को गाना लिखने के लिए निर्माता एक माह का समय देते थे, लेकिन वह अपनी ही रफ्तार से गाने लिखते थे। राजेन्द्र कृष्ण कृष्ण 29 दिन मौज मस्ती में गुज़ारते और फिर 30वें दिन अपने बिस्तर के एक कोने पर बैठकर दोपहर तक गाना लिख दिया करते थे। उन्हें 1964 में आयी फिल्म ‘शहनाई’ के लिए गाना लिखना था, सिचुएशन उन्हें समझा दी गई थी कि लीड जोड़ी विश्वजीत व राजश्री के बीच रोमांटिक पलों को व्यक्त करना है। गाने की धुन संगीतकार रवि बना चुके थे और निर्माता निर्देशक एसडी नारंग को शूट पूरा करने की जल्दी थी। लेकिन राजेन्द्र कृष्ण को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि गाने के बोल कहां से और कैसे शुरू किये जाएं। 
राजेन्द्र कृष्ण हमेशा की तरह कागज़ कलम लेकर अपने बिस्तर के एक कोने पर उकडू बैठे हुए थे। बात कुछ बन नहीं पा रही थी। तभी उनकी पत्नी नहाकर कमरे में लौटीं। उनके बाल पूरी तरह से सूखे नहीं थे। उन्होंने शरारतन अपने बालों को अपने पति की ओर झटक दिया। पानी की कुछ बूंदें राजेन्द्र कृष्ण के कागज़ पर भी जा गिरीं। इस मंज़र से बेसाख्ता उनके मुंह से मिकला ‘न झटको ज़ुल़्फ से पानी, ये मोती टूट जायेंगे’ और यही पंक्ति कालजयी गीत का मुखड़ा बन गई, जिसे मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज़ देकर अमर कर दिया। फिल्म रिलीज़ होने पर यह गाना ज़बरदस्त हिट हुआ और आज भी रोमांटिक पलों के दौरान लोग इसे गुनगुनाते हैं। 
शायर, गीतकार व पटकथा लेखक राजेन्द्र कृष्ण का जन्म गुजरात के ज़िला जलालपुर जट्टन (जो अब पाकिस्तान में है) में 6 जून 1919 को दुग्गल परिवार में हुआ था। जब वह आठवीं कक्षा में थे, तभी से उनकी दिलचस्पी उर्दू शायरी में हो गई थी। शिक्षा पूरी करने के बाद वह शिमला की नगरपालिका में क्लर्क हो गये, जहां उन्होंने 1942 तक नौकरी की, लेकिन उनका मन अपने दफ्तर के काम में नहीं लगता था, वह ऑफिस में भी पूर्वी व पश्चिमी लेखकों को पढ़ते रहते और शायरी करते रहते थे। वह फिराक गोरखपुरी व एहसान दानिश की शायरी को विशेषरूप से पसंद करते थे और उनके दीवाने थे। उन्हें निराला भी पसंद था। उन दिनों दिल्ली व पंजाब के अखबार त्यौहारों पर विशेष संस्करण निकाला करते थे और शायरी के मुकाबले भी आयोजित किया करते थे। राजेन्द्र कृष्ण नियमित रूप से इनमें हिस्सा लिया करते थे। 
क्लर्क की नौकरी छोड़कर राजेन्द्र कृष्ण बॉम्बे (अब मुंबई) के फिल्मोद्योग में पटकथा लेखक बनने के लिए आ गये। काफी संघर्ष के बाद उन्हें ‘जनता’ (1947) की पटकथा और ‘ज़ंजीर’ (1947) के गाने लिखने का अवसर मिला, लेकिन उनकी पहचान बनी मोतीलाल व सुरैय्या की फिल्म ‘आज की रात’ (1948) से, जिसकी उन्होंने पटकथा भी लिखी थी और गाने भी। गांधीजी की हत्या के बाद राजेन्द्र कृष्ण ने ‘सुनो सुनो ए दुनिया वालो, बापू की ये अमर कहानी’ गीत लिखा, जिसकी धुन हुसनलाल भगतराम ने बनायी थी और गाया मोहम्मद रफी ने था। यह गाना ज़बरदस्त हिट हुआ और राजेन्द्र कृष्ण ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा, विशेषकर इसलिए भी कि ‘बड़ी बहन’ (1949) व ‘लाहौर’ (1949) में लिखे उनके गाने भी बहुत सफल रहे थे और ‘चुप चुप खड़े हो, ज़रूर कोई बात है’ तो आज तक सुना जाता है। 
एक दिलचस्प बात यह है कि अपने दौर में राजेन्द्र कृष्ण हिंदी सिनेमा के सबसे रईस लेखक थे। इसका कारण यह था कि उन्होंने घुड़दौड़ में 4,600,000 रूपये का जैकपॉट जीता था, जोकि 1970 के दशक में बहुत ही बड़ी रकम थी। गौरतलब है कि फिल्म ‘खानदान’ (1965) के गीत ‘तुम्हीं मेरे मंदिर, तुम्हीं मेरी पूजा’ के लिए राजेन्द्र कृष्ण को फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ गीतकार का अवार्ड मिला था। उन्होंने लगभग 100 फिल्मों में गीत या पटकथा या डायलॉग या यह तीनों चीज़ें लिखीं। उनकी अंतिम फिल्म ‘आग का दरिया’ 1990 में रिलीज़ हुई थी, जिसके उन्होंने गाने लिखे थे। राजेन्द्र कृष्ण के दर्जनों गाने आज भी लोगों की ज़बान पर हैं- वो पास रहे या दूर (बड़ी बहन), ये ज़िंदगी उसी की है (अनारकली), शाम ढले खिड़की तले (अलबेला), मेरे पिया गये रंगून (पतंगा), मेरा दिल ये पुकारे आजा (नागिन), जहां डाल डाल पे सोने की (सिकंदर-ए-आज़म), ए दिल मुझे बता दे (भाई भाई), यूं हसरतों के दाग (अदालत), कौन आया मेरे मन के द्वारे (देख कबीर रोया), इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा (छाया), तेरी आंख के आंसू पी जाऊं (जहांआरा), मेरे सामने वाली खिड़की में (पडोसन), जो उनकी तमन्ना है (इंत़काम) आदि। 
राजेन्द्र कृष्ण का 23 सितम्बर 1987 को मुंबई में निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद एचएमवी ने उनके 12 गानों का एलपी निकाला था। उन्हें अपनी पब्लिसिटी पसंद नहीं थी, लो-प्रोफाइल रहते थे और यही वजह है कि जो लोग उनके गाने सुनना आज भी पसंद करते हैं, उनमें से अधिकतर नहीं जानते कि वह दिखायी कैसे देते थे। उनकी प्रोफेशनल तस्वीरें भी बहुत कम हैं।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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