माई री, मैं कासू कहूं पीर
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
बरसात तो शुरू हो ही चुकी थी। एक दिन मैं ड्यूटी से लौटा तो रामपुर के थानेदार का बुलावा आया और मैं बिना आगे-पीछे सोचे पुलिस स्टेशन चला गया। छोटा-सा शहर और गिने-चुने अधिकारी। आपस में मेल-मिलाप इतना तो रखते ही थे।
थानेदार ने चाय का कप पकड़ाकर हंसते हुए कहा, ‘शर्मा जी! कितने पेड़ कटवा लिए शीशम के? भई माना कि आप जंगल के राजा हैं पर आदमी तो विश्वास के लगाने थे न!’
‘मतलब? कौन से पेड़, कब कटवाये मैंने....?’
‘सचमुच, आपको कुछ नहीं पता? पर शीशम के पेड़ काटकर लाने वाले चिरानी आपके रिश्तेदारों के आरे पर से पकड़े गये हैं। उनका कहना है कि पेड़ आपके कहने पर काटे हैं, इसलिए आपको तकलीफ देनी पड़ी। आप दोस्त हैं तो मामला यहीं निपटा लेते हैं।’ मैं हैरान था।
वहां से मैं सीधा आरे पर गया तो देखा, सुनीता के पिता वहीं बैठे थे। गांव से पिता जी को भी बुलवा लिया गया था। उन्हें देखते ही मैं सारा माजरा समझ गया। पकड़े गये चरानी (लकड़ी चीरने वाले) उनके नौकर ही थे। मेरे पास कोई चारा नहीं था, नौकरी भी जाती और हरे पेड़ काटने पर जेल भी होती। वन विभाग का रेंजर ही चोरी से पेड़ कटवा रहा है, यह समाचार भी अखबारों में छपता। मैंने हथियार डाल दिये और सुनीता जी फिर मेरे घर में विराजमान हो गईं, पर मैंने अपने ससुर के सामने एक शर्त भी रख दी और वो यह कि वह घर में तो रहेगी पर मेरे सामने नहीं आयेगी। मेरे ससुर इस बात को मान गये। उन्हें लगा होगा कि पास रहने पर शायद हमारे रिश्ते सुधर जायेंगे। वैसे रामपुर में अभी इस घटना के बारे में किसी को भी पता नहीं था, पर कब तक बात छुपती?
घर में खलासी भी था और मेरे व्यवहार में भी बड़ा फर्क आ गया था। समझौते के अनुसार अब सुनीता दूसरे कमरे में रहती थी और मेरे ड्यूटी पर जाने के बाद ही बाहर निकलती थी पर मुझे उसके घर में होने का अहसास ही बहुत कष्ट दे रहा था। धीरे-धीरे बात फैलने लगी, सुनीता ने शायद शहर में कुछ लोगों से सम्पर्क भी बना लिए थे। राहुल! तुम्हें सुमेर तो याद होगा न।’ अचानक वह राहुल की ओर मुड़ता हुआ बोला।
‘वह सुमेर ओबराय? वह हमारे साथ ही तो पढ़ता था।’ विनोद बोल पड़ा था, ‘हाँ, हाँ! सब याद है। पर वह कहां से आ गया बीच में?’
‘बताता हूँ! तब तुम लोगों को रजनी भी याद होगी।’
‘हां, हम लोगों से एक साल जूनियर थी।’ जवाब राहुल ने ही दिया।
‘तो हुआ यों कि सुमेर साहब बमय रजनी जंगलातियों के जंगल में मंगल करने आ पहुँचे। हालांकि मैंने उन दोनों को सरकारी रेस्ट हाउस में ठहरा दिया था, पर मेरे लिए यह घटना जानलेवा बन गई। सुनीता ने अपने पिता को इसकी सूचना दे दी थी और वे तुरन्त ही रामपुर पहुंच गये। अब तक जिस बात को लोग दबी जुबान से कह रहे थे अब वह चर्चा आम हो चुकी थी और रजनी का संबंध सीधा-सीधा मेरे साथ जोड़ा जाने लगा। इतना ही नहीं, मेरे खिलाफ चरित्रहीनता और पत्नी प्रताड़ना का केस भी दर्ज हो गया। हालांकि सुमेर के इस तरह आने की तो मुझे सपने में भी उम्मीद नहीं थी और न ही मुझे उन दोनों के चक्कर का कुछ पता था फिर भी शायद कोई पुण्यकर्म सामने आ गया। मैं नौकरी से त्यागपत्र दे चुका था और बैंक से अपने पैसे भी निकाल चुका था। बस मुझे कार्यालय से त्यागपत्र के मंजूर होने का इंतज़ार था। पर अब दो-दो झूठे केस। जान आफत में थी, उधर सुनीता का बाप भी अपने रिश्तेदारों के घर जमा हुआ था और मुझे हर वक्त यह डर लगा रहता कि अब पता नहीं कौन सा नया केस बना देंगे।’ राहुल और विनोद सांस रोके उसकी बातें सुन रहे थे।
‘फिर...?’
‘फिर ये कि मेरी बीट के एक गार्ड को जब सारी बात का पता चला तो उसने मुझे मनाली में अपने पुरखों के एक उपेक्षित पड़े मकान की चाबी दे दी और एक रात में बिना किसी खास सामान के घर से निकल आया। बस पीठ पर एक पिट्ठू बैग लिए पैदल ही सतलुज को झूले पुल से पार कर के तत्ता पानी, सिरयोल सर, बंजार होता हुआ कई दिनों में मनाली के उस टूटे-फूटे मकान में पहुंच गया। कुछ दिन बाद वह गार्ड भी आ गया और मेरी व्यवस्था करके वापस चला गया। इधर मेरी दाढ़ी भी बढ़ गई थी जो मेरे छिपने में सहायक थी। लोग मुझे बाबा जी कहने लगे जो मेरे लिए ठीक ही था। घर के साथ खाली पड़ी जमीन पर मैंने एक सहायक की मदद से साग-सब्जी उगानी शुरू कर दी। थोड़े पैसे थे ही और थोड़ा पुस्तक ज्ञान भी साथ था, वहीं पर मैंने खरगोश पालने शुरू कर दिये। शुरू-शुरू में मैंने खरगोश ही बेचे। कुछ लाभ होने पर मैंने बाल वाले खरगोश लाने शुरू किये। कुल्लू की भेड़ों की ऊन से शालें वैसे भी तो बहुत ही प्रसिद्ध हैं। सो मेरा ध्यान खरगोश के बालों की शॉल की तरफ गया। अब तुम देख ही रहे हो।’
‘और तुम्हारे परिवार वाले, मां-बाप?’ राहुल ने उसे फिर टोका।
‘दो साल बाद मैं अपने गांव गया तो, पर अपने घर से दूरी बनाकर। पिता जी से मिला तो पता चला कि जब मेरे ससुराल वालों को मेरा पता नहीं चला तो वे सुनीता को ले गये। क्वार्टर का सामान अधिकारियों ने मेरे पिता जी को दे दिया था। अब मुझे ज्यादा परेशानी नहीं थी। सबूतों के अभाव में मेरे खिलाफ केस भी खारिज हो चुके थे। मेरे न रहने पर पिता जी ने मेरे ससुराल वालों पर मुझे प्रताड़ित करने और मेरे गुम होने का केस कर दिया था जिससे वे अपने जाल में खुद ही फंस गये थे। पर अब तक मेरा काम ठीक चलने लग गया था। बाकी तो सब तुम्हारे सामने ही है।’
‘यह सितार तो तेरी पुरानी ही दिखती है।’ विनोद ने सितार की ओर देखते हुए कहा।’
‘हां! पिता जी क्वार्टर से सामान ले आए थे न, तो मैंने सितार उठा ली। भला हो इसका कि मेरे पुराने साथी फिर मिला दिये।’ फिर उसने भीतर की ओर देखते हुए आवाज़ लगाई, ‘राम बहादुर! अरे भाई शाम हो रही है, चाय नहीं पिलानी क्या आज? मेरे दोस्त क्या सोचेंगे? जल्दी से चाय लाओ।’ राम बहादुर जैसे पहले ही चाय लिए हाज़िर था। इतने सालों में उसने भी आज पहली बार साहब को हंसते और उनके पास इस तरह किसी को वार्तालाप करते हुए देखा था। (समाप्त)