चौरासी का चार  

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अखबारों में श्रीमती गांधी की तस्वीर छपी थी, भुवनेश्वर में उनकी सभा की। अखबारों ने उनके एक वक्तव्य को काफी प्रमुखता से छापा था। आकाशवाणी के लगभग सभी बुलेटिनों में उनकी चिर-परिचित आवाज़ में इस संवाद को बार-बार सुनाया जा रहा था, ‘मैं आज यहां हूँ, कल शायद यहां ना रहूं। मुझे चिंता नहीं है मैं रहूं या ना रहूं, मुझे इस बात का गर्व है कि मैंने अपना पूरा जीवन अपने लोगों की सेवा में बिताया है। मैं अपनी आखिरी सांस तक ऐसा करती रहूंगी और मैं जब मरूंगी तो मेरे खून का एक-एक कतरा भारत को मज़बूत करने में लगेगा।’ उनकी बोलती तस्वीर, इस संवाद के साथ, वीडियो बिना देखे ही, दिमाग में धंस गई।
वेंगसरकर 94 रन की नाबाद पारी और भारत के 210 रन के अजेय स्कोर पर संतुष्ट सा पैवेलियन वापस लौटा था, पर शीघ्र स्वदेश वापसी की खबर से जैसे सेन्चुरी पूरी ना होने का दर्द एकदम से छलक आया और गहराकर उसके चेहरे पर उतर आया था। वो उदासी जो सामने से दिख नहीं रही थी, उस दुखी चेहरे का एक चित्र उकेर गया। मायूसी के भारी बोझ से बिल्कुल नीचे को लटका हुआ एक चेहरा, मानो अब सेन्चुरी ठोकने का दूसरा मौका शायद फिर मिलने वाला नहीं है।  
कुछ क्षण पहले तक श्रवण की उपस्थिति बिल्कुल वैसी ही थी जैसी किसी अन्य दिन होती। पतले कद-काठी का, नाटा सा श्रवण, कंधों से झूलता हुआ कुर्ता, घुटनों को ढंकता, करीब-करीब पिंडलियों को छूता हुआ, बाजूएं कुहनी के ऊपर तक मुड़े हुए। कुछ भी विलक्षण तो नहीं था उसकी आकृति में, जो अमिट हो सके पर एक ही पल में उसकी वह आकृति हाथ में झूलती संजय की उस पांचवीं रोटी के साथ फ्रीज हो गई, दशकों बाद भी मानस पटल पर सजीव, बिल्कुल जीती जागती, जैसे अभी संजय की प्लेट में वह पांचवीं रोटी डालेगा।
मैं स्वयं इंदिरा गांधी द्वारा लिए गए कई निरंकुश और असंवैधानिक फैसलों को भूल नहीं पाया था। मसलन एक वर्ग विशेष के युवाओं की जबरन नसबंदी, संविधान की प्रस्तावना में उन शब्दों का समावेश, जिनका मुखर विरोध संविधान सभा में अन्य कई सदस्यों के साथ बाबा साहब अम्बेडकर तक ने किया था, और लोकसभा का कार्यकाल पांच साल से बढ़ाकर छ: साल करना, वह भी पूरे विपक्ष को जेल में बंद कर और सेंसर से पत्र-पत्रिकाओं का मुंह बंद कर। फिर भी मैं उस क्षण निष्प्राण सा जड़वत हो गया। एक पल को समय ठहर सा गया था, उस क्षण, उस पल, अशोक विहार के उस ‘ईटिंगजॉइन्ट’ में। देश स्तब्ध था और देशवासी मर्माहत। मेरी स्थिति भी कोई बेहतर नहीं थी। 
चौरासी में आठ से चिपके चार की मानिंद ये चार चित्र भी चौरासी से चिपक गए, कभी अलग न होने के लिए। जब ये चार चित्र चौरासी से चिपक रहे थे तब चौरासी को शायद ही पता था कि आने वाले चार दिन उस चौरासी से उसी तरह जुडने वाले हैं, जैसे बिना इन चार के चौरासी का वजूद अधूरा रह जाता। चौरासी पर काले धब्बे छोड़ते हुए, ये चार दिन कभी ना मिटने के लिए। और उन चार दिनों की तरह ही वे चार चेहरे भी, जो बरसों तक बार-बार सिर उठाते रहे हैं। 
पलक झपकते ही चेतना वापस लौटी और आत्मा किसी अज्ञात आसन्न भय से कांप उठी। श्रीमती गांधी आपातकाल की तमाम ज्यादतियों के बावजूद अपनी लोकप्रियता हासिल कर सत्ता में वापस लौटी थीं। वो भी जनता को सिर्फ ‘आधी रोटी’ खिलाने के वादे के साथ। मनुष्य भूख में दार्शनिक बन जाता है, ऐसा सुना था। उन्नीस सौ सतहत्तर-अस्सी में देख रहा था। उस दरम्यान जनता भर पेट खाने लगी थी। सरकारी राशन की दुकानें बिना किसी राज्यादेश के ही बंद हो चलीं थी। कारण बाजार में गेहूं, चीनी, घासलेट सब सस्ती मिल रही थीं। राशन की दुकानों से भी कम कीमत पर। कोटा-परमिट राज दम तोड़ता दिख रहा था। साथ ही कोटेदारों का समाज पर प्रभाव और उनकी पकड़ भी। इनकी तरह के तमाम ‘विशेषाधिकार प्राप्त सुविधाभोगी वर्ग’ का सत्ता-सुख खतरे में पड़ गया था। 
पेट भरे होने से जनता की दम तोड़ती दार्शनिकता छटपटाने लगी थी। प्रबुद्ध और दार्शनिक बनने की शर्त पेट की भूख से है। उसे तो ‘आधी रोटी’ ही चाहिए थी। पेट की भूख बनी रहेगी, तभी तो अंदर की दार्शनिकता फूट-फूट कर बाहर आएगी। जनता की ऐसी दार्शनिकता ‘सुविधा भोगी’ वर्ग को उनके खोए विशेषाधिकार की पुनर्प्राप्ति की उम्मीद देती है। तभी तो उनके दिल की बात जनता की जुबान चढ़ कर बोलने लगी थी, ‘आधी रोटी खाएंगे.....’। और ‘आधी रोटी’ का प्रॉमिस तो सिर्फ इंदिरा जी की कांग्रेस ने किया था। इस दार्शनिक अवाम की लोकप्रिय नेता को कुछ हो जाए और अवाम चुप बैठ जाए! ऐसा भला हो सकता था क्या? अवाम चुप भी बैठ जाए पर उसके नाम पर खेलने वाले राज नेताओं की कमी भी तो नहीं थी। ये राजनेता अपना गेम खेल कर श्रेय अवाम को देने का हौसला रखने वाले होते हैं, उदारमना। ‘आधी रोटी’ वाला स्लोगन भी तो राजनेताओं से ही आया था, पर कुछ इस रूप में कि जनता चीख रही है, ‘आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को ले आएंगे’। काम खुद करें और उदारता से श्रेय आम जनता को दे दें, यही तो उनका बड़प्पन है। अवाम फिर सोचता फिरे कि राज नेताओं का वो कृत्य श्रेय पाने वाला है, या अवाम के चेहरे पर ना मिटने वाला कालिख!
खबरें जब उड़ती हैं तो उनकी गति सामान्य से अधिक होती है। अशोक विहार की उस खाद्य-स्थली पर ही किसी आगंतुक ने श्रीमती गांधी पर गोलियों की बौछार करने वाले बॉडी गार्ड्स के पहले एक शब्द ‘सिख’ जोड़ दिया था कि प्रधानमंत्री पर यह हमला उनके ‘सिख बॉडीगार्ड्स’ ने किया है। यह सुनते ही मन पीछे मुड़ गया, लगभग साढ़े चार-पांच महीने पहले। 
मैं गर्मी की छुट्टियों में जमशेदपुर में अपनी सिस्टर के वहां से लौट रहा था। मेरी बस जमशेदपुर से पटना के रास्ते में थी। 9-10 जून चौरासी की बात होगी। रांची से आगे यात्रियों के खाने के लिए किसी लाइन होटल पर बस रुकी थी। ड्राइवर ने घंटे भर का समय दिया था। बस हजारीब़ाग होकर जाने वाली थी। तभी पता चला कि पास के रामगढ़ कैंटोनमेंट की सिख रेजीमेन्ट ने बगावत कर दी है। ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ के विरोध में सिख समुदाय में काफी रोष है। उसी का नतीजा है कि देश के लिए मर मिटने वाली सिख रेजीमेन्ट आज बगावत पर उतर आई। मसलन बस को अब हजारीब़ाग वाला रूट छोड़ना होगा।   (क्रमश:)

#चौरासी का चार