क्या रंग दिखायेगी भारत और चीन की यह जुगलबंदी ?
तियानजिन में हो रही शघाई सहयोग संगठन (एसीओ) समिट की जो फोटो मैसेजिंग पिछले दो दिनों के अंदर हुई है, उसने यकायक पूरी दुनिया की कूटनीति में भूचाल ला दिया है। पिछले 48 घंटों में यूरोप के विभिन्न देशों और अमरीका के बीच जो फन घनघना रहे हैं, जो खुसुरफुसुर से लेकर सीधे सपाट समीकरणों के अंदाज़ में संवाद हो रहे हैं, उनके बहुत कुछ मायने हैं और यकीन मानिये इनके बिल्कुल श्याम-श्वेत अर्थ मत निकालिए। राष्ट्रवाद अपनी जगह है और हम जानते हैं कि सोशल मीडिया का राष्ट्रवाद किस तरीके से उत्साह में अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मार लेने की सलाह देता है। इसलिए पिछले 24 घंटों से सोशल मीडिया में जारी विश्लेषणों पर कतई ध्यान मत दीजिए। दुनिया के लिए वाकई बड़ा कूटनीतिक संकट खड़ा हो गया है। धीरे-धीरे और चुपके से आकार लेने वाली कोई नई विश्व व्यवस्था अपनी धुंधली तस्वीर निर्मित करने के पहले ही संकट में पड़ सकती है। अगर न्यूयार्क टाइम्स और कुछ यूरोपीय अखबारों की मानें तो अमरीकी नौकरशाहों और यूरोपीय यूनियन के नौकरशाहों के बीच पिछले 24 घंटे में दो दर्जन से ज्यादा रणनीतिक संवाद हुए हैं और इनकी सबसे भयावह आशंका यह है कि कहीं ट्रम्प को खुश करने के लिए या उसकी घुड़की के चलते यूरोपीय यूनियन तो हमसे आंखें तरेरने की नहीं भूमिका बना रहा?
इससे भी चिंताजनक खबरें जो छन छनकर आ रही हैं, वे ये हैं कि ट्रम्प के दबाव में यूरोपीय यूनियन के कई देश, भारत ही नहीं, भारत की कारपोरेट कंपनियों पर भी प्रतिबंध लगाने की गुस्ताखी कर सकते हैं। इसलिए हमें दो कदम आगे और एक कदम पीछे की रणनीति बिल्कुल नहीं भूलनी चाहिए, क्योंकि इतिहास में एक नहीं कई बार चीन से हम धोखा खा चुके हैं और रूस भी अब वह रूस नहीं रहा, जो सोवियत संघ के जमाने में था। सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि भारतीय कारपोरेट जगत पर जो करीब कुल मिलाकर 15 से 17 लाख करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कज़र् है, वो सब डॉलर में है और ऐसे में हिंदी चीनी भाई-भाई नारा तो ठीक है, पर हमें ऐसे भी उत्साह में आने की ज़रूरत नहीं है कि एक झटके में एक डॉलर, सौ रुपये के बराबर हो जाए, क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो अमरीकी टैरिफ के चाबुक का जो असर हम पर अभी तक नहीं हुआ, उससे कई गुना ज्यादा डॉलर के विरुद्ध कमज़ोर रुपया हमारी हालत पतली कर सकता है।
हालांकि एसीओ सम्मेलन अभी वास्तविक और स्थायी रणनीति नहीं तय करेगा, न कर सकता है बल्कि फोटो मैसेजिंग और फैमिली फोटो कूटनीति ही कर सकता है। लेकिन तियानजिन से आ रही जिन तस्वीरों को हम सॉलिडैरिटी मंच का हिस्सा मान रहे हैं, वह यूरोपीय यूनियन और अमरीका की नज़रों में भारत और चीन की ग्लोबल साउथ पर कब्जा करने की रणनीति भी मानी जा सकती हैं। इसलिए बहुत फूंक-फूंक कर कदम उठाने होंगे और उससे भी ज्यादा ज़रूरत इस बात की है कि हम बहुत सधे हुए शब्दों से अपना उत्साह व्यक्त करें। खास करके प्रो-इंडिया थिंक टैंक को यह बात भली भांति समझनी होगी।
प्रधानमंत्री मोदी के उस बयान को भी न भूलिए, जिसमें उन्होंने साफ कहा है कि निवेश चाहे काला हो या लाल हो, सभी तरह के निवेश का भारत स्वागत करता है। जाहिर है प्रधानमंत्री की सांकेतिक टिप्पणी में यह संदेश स्पष्ट था कि हमें डॉलर से किसी तरह का परहेज नहीं है और निकट भविष्य में अभी ब्रिक्स की साझी मुद्रा भविष्य का अनुमानभर है। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि भले बार बार हम नैतिकता के तकाज़े में यह दोहरा रहे हों कि हम अपने किसानों, पशु पालकों और मछुआरों पर किसी तरह का संकट नहीं आने देंगे, इसलिए इनसे संबंधित क्षेत्रों को वैश्विक कारोबार के लिए नहीं खोलेंगे, लेकिन उससे भी बड़ा दबाव भारत के कारपोरेट सेक्टर से है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारा समूचा कारपोरेट ढांचा डॉलर ऑरिएंटेड है। हमारे बड़े हित विशेषकर टेक्नोलॉजी-हस्तांतरण से संबंधित सारे हित, डॉलर के ढांचे पर से ही बंधे हैं। इसलिए हम रातोंरात एंटी डॉलर के किसी उत्साह का हिस्सा नहीं हो सकते।
भारतीय कारपोरेट जगत की 90 फीसदी कमाई डॉलर में है। भारत में 70 फीसदी से ज्यादा निवेश डॉलर में है। भारत दुनिया का सबसे ज्यादा रिमीटेंस डॉलर में हासिल करता है। माना कि चीन के साथ हमारा 100 बिलियन का कारोबार है और सारे अहम या कोर क्षेत्रों में चीन ने हमारी कमज़ोर नस भी दबा रखी है। हमें यह बात भी याद रखना चाहिए कि अमरीका ने भारत पर जो 50 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया है, फिलहाल उससे हमारा अधिकतम 40 बिलियन डॉलर का कारोबार प्रभावित हो रहा है और उसमें भी अंतिम नतीजों के रूप में हमें 25 से 30 अरब डॉलर का ही झटका लगेगा, लेकिन अगर हमने अमरीका को कुढ़ने का मौका दिया तो अमरीका टैरिफ से कहीं ज्यादा भारतीय कार्पोरेट जगत पर प्रतिबंध लगाकर हमारी अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकता है।
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