शांति और चुनाव से होना चाहिए सत्ता परिवर्तन
सत्ता में बदलाव होना कोई आश्चर्य नहीं बल्कि एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो बताती है कि जनता जागरूक है, लेकिन अगर इसका आधार हिंसा, आगज़नी, लूटपाट, सामूहिक नरसंहार, पुरुषों को गुलाम बनाकर तथा युवाओं को भड़का कर किया जाए तो समझना चाहिए कि लोकतंत्र जैसे शब्द अपना अर्थ खो चुके हैं। इसका अर्थ है कि हम फिर से सामंती, बादशाही, हिटलरवाद और साम्प्रदायिक ताकतों के गठजोड़ से निरंकुश शासन प्रणाली की ओर बढ़ रहे हैं।
समस्या को समझना होगा : यह संसार हमेशा से अमीरी और गरीबी के बीच बंटा हुआ है, ऊंच-नीच सब जगह है। गरीबी, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार से कोई देश अछूता नहीं है। संसाधनों को हथियाने की लड़ाई सब जगह है। यह बात केवल पिछले पांच से दस वर्षों तक के घटनाक्रम को समझने से समझी जा सकती है। सबसे पहले अफ्रीका महाद्वीप के देशों पर नज़र डालें, जिनमें हिंसा से सत्ता बदली गई और लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारों को उखाड़ फेंका गया। सबसे पहले वहां ग्रह युद्ध जैसी स्थिति पैदा की गई, अस्थिरता के प्रयास किए गए, विदेशी शक्तियों ने हस्तक्षेप शुरू किया और देखते ही देखते सत्ता परिवर्तन हो गया। अटलांटिक महासागर से लाल सागर तक का क्षेत्र प्रभावित हुआ। इस्लामिक उग्रवाद, आतंकवाद का बोलबाला, अल-कायदा और आईएसआई से जुड़े समूहों का प्रभाव बढ़ता गया। ये सभी देश आर्थिक रूप से कमज़ोर, शिक्षा में पिछड़ेपन का शिकार और खराब शासन के प्रतीक थे।
सभी संपन्न पूंजीवादी या साम्यवादी देश इस बात से एकमत थे और हैं कि इन सभी स्थानों पर प्रकृति की असीम कृपा है। प्राकृतिक संसाधनों का खज़ाना है, बहुमूल्य धातुओं जिसमें यूरेनियम प्रमुख है, सोने की खानें हैं और उन्हें इन्ही पर कब्ज़ा करना है। जब देखा कि उनका मनचाहा हो गया और वे सभी देश उन पर ही अपनी निर्भरता दिखाने लगे तो वे उनके सामने उन्हीं की सम्पदा कुछ हिस्सा उन्हें देने लगे। इसलिए सुनिश्चित कर दिया कि वहां टिकाऊ शासन न हो, कभी शांति न हो, रिश्वतखोरी और लूट-खसोट का बाज़ार गर्म रहे। इसके बाद दक्षिण एशिया में आते हैं। यहां के देशों में एक के बाद एक राजनीतिक भूकंप आने लगे। श्रीलंका में उसके विदेशी मुद्रा भंडार खत्म होने से शुरुआत हुई। ईंधन, भोजन, दवाईयां इस तरह गायब होने लगे कि लाखों लोग सड़कों पर आ गए, पर्यटन के लिए मशहूर देश में जाने से डर लगने लगा और राजपक्षे परिवार के कज़र् ने जो अधिकतर चीन से मिला था, इस संकट को और गहरा कर दिया। इंडोनेशिया हो या बांग्लादेश, इनकी भी यही कहानी है। अब नेपाल तक इसकी चपेट में आ गया है।
महाबली का हथियार : जो भी विध्वंस को हथियार बनाकर सत्ता हासिल करने में विश्वास करने वाली शक्तियां हैं, चाहे देशी हों या विदेशी, सबसे पहले युवाओं को अपने मोह जाल में फंसाकर उनका मनोबल गिराने का काम करते हुए यह विश्वास दिलाती हैं कि वर्तमान सरकार ही उनकी सभी समस्याओं की जड़ है। देश में कुछ भी सही नहीं है और उसे गद्दी से हटाना ही उनकी परेशानियों को दूर करने का एकमात्र उपाय है। इसके बाद बेरोज़गारी की बात कर युवाओं से सरकारी नौकरियों के न मिलने की बात कही जाती है।
एक बात ध्यान देने योग्य है कि अभी तक जितने भी देशों में उथलपुथल हुई है, उनमें बहुत कुछ एक समान है। सबसे पहले भ्रष्टाचार जो दीमक की तरह अर्थव्यवस्था को चाट रहा है और सामान्य व्यक्ति को हर कदम पर रिश्वतखोरी का सामना करना पड़ता है। ज़रूरत न होने पर भी गुस्से और आक्रोश से भरे रहना उसका स्वभाव बनने लगता है। ऐसे में उसके हाथ में दियासलाई की एक तीली देना ही काफी है। दूसरा है धार्मिक तनाव बढ़ाकर साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने की साज़िश जो एक लहर की तरह इतनी तेज़ी से बढ़ती है कि उसे संभालना टेढ़ी खीर बन जाता है। तीसरा है कि संवैधानिक संस्थाओं को सत्ताधारी पार्टियों और विपक्ष के नेताओं द्वारा कमज़ोर करने के निरम्तर ऐसे प्रयास करना जिससे इनका अस्तित्व और आवश्यकता दोनों व्यर्थ लगने लगें। चौथा है कि सत्ता परिवर्तन को सट्टेबाजी बना देना। इन कारणों में से एक भी अगर किसी देश में हो तो उसकी थोड़ी सी झलक मिलने पर ही वहां असंतोष और अस्थिरता होना तय है। अगर चारों एक साथ जमा हो जाएं तो विनाश निश्चित है। जितने भी देशों में यह हुआ है, वहां कभी समाप्त न होने वाले युद्ध की विभीषिका से अनुमान लगा सकते हैं।
समाधान एक ही है : सत्ता परिवर्तन कोई बुराई नहीं है बल्कि किसी देश के निवासियों का जागरूक और उनके अधिकारों को समाप्त किए जाने की आशंकाओं को निर्मूल करना है, लेकिन यहीं यह इस बात की भी चुनौती है कि निराधार आरोप लगाकर, हिंसा और भावनाओं को भड़काने से कोई भी बदलाव लाने की कोशिश अनर्थकारी ही सिद्ध होगी। देश की अर्थव्यवस्था तो खराब होगी ही, साथ में भविष्य भी अंधकारमय हो जाएगा। इसके विपरीत लोकतांत्रिक मूल्यों को आधार बनाकर, चुनावी प्रक्रिया का पालन करने से यदि कोई सरकार बदलती है तो अब तक हुई प्रगति को आघात लगने की संभावना नहीं रहती और देश प्रथम का संकल्प बरकरार रहता है। राजनीतिक जोड़-तोड़ होने से इन्कार नहीं लेकिन केवल यही सच बन जाए और वर्तमान की अवहेलना कर सत्ता हथिया ली जाए, तब चिंता की बात है। लोकतंत्र में जनता का विश्वास नहीं रहता और इस तरह यह परिवर्तन सत्ता का लोभ और लालच बन जाता है जो केवल अराजकता बढ़ाता है, ऐसी ढुलमुल स्थिति का कारण बनता है कि व्यक्ति सही और गलत का अंतर समझने की मानसिकता खो देता है, बहकावे में आकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने लगता है जिसका खमियाज़ा भावी पीढ़ी को भुगतना पड़ता है।
निष्कर्ष यही है कि सबसे पहले आंतरिक और बाह्य सुरक्षा, जो चाक चौबंद न हो तो संकट के बदल मंडराना निश्चित है। दूसरी बात यह कि सतत् विकास सुनिश्चित किए बिना कुछ बदला तो वह आत्मघाती होगा। तीसरा सवाल यह कि प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल एक दायरे में रह कर नहीं किया और पर्यावरण संरक्षण के साथ कोई खिलवाड़ किया तो प्रकृति के कहर से बचना असंभव है और चौथी बात यदि सत्तसीनों ने जन-भावनाओं को न समझने की गलती की और उन्हें जनता को दृष्टिविगत किया तो उन्हें कोई नहीं बचा सकता।