नारा बदला-हम तीन, बजायें खुशी की बीन
आजकल बादल आते तो हैं भैय्या, पर किसी कालिदास को प्रेरित नहीं करते। बादल फटता है, अब इसे कैसे कहें, ‘उमड़-घुमड़ कर आई रे बदरिया! साजन का सन्देश लाई दे बदरिया!’ ऐसा संदेश कि कोई मधुर गीत, रम्य रचना का एहसास जीने के लिए फिर तय्यार हो जाए। नहीं, वह तो झुग्गी झोंपड़ी के अवशेषों की स्मृतियां संजोने के लिए तैयार है।
किसानों की भरी हुई आंखों के आंसू पोंछने का बहाना न बनाना है। अनुदानों को प्राप्त कर उनका जीवन संवार देने की नौटंकी करते रहो। ‘झुमका गिरा था न बरेली के बाज़ार में।’ कितने लोग उसे तलाश करने के लिए भागे थे, परन्तु मिला तो वह नायक को, जो उसे नायिका को पहना कर भीगी बरसात में नाचेगा। बारिश होती है, और एक अमर प्रेम गीत में चाय का कप सुड़काते हुए कहा जाता है, ‘हम न रहेंगे, तुम न रहोगे, फिर भी रहेंगी निशानियां।’
निशानी तो जल के प्रलयंकर प्रवाह में बह गई। हम भी कैसे गायें। बादल तो अन्तिम विदा कह कर चले गये थे। लो बेवफा हसीना की तरह हमारी चिन्दी चिन्दी होती ज़िन्दगी में लौट आये। धान की अधगीली बोरियां सम्भालने की जगह तलाश हो रही है, लेकिन फिर बौरायी बरसात लौट उसके साथ गलबहियां लेने लगी। अब इन्हें क्या कहें? घायल की गति घायल जाने। इतना रोमांटिक न बनिये, पूरी मेहनत से अपने खेतों में उगायी धान की फसल के पास तो अब सिर छिपाने की भी जगह नहीं, और उस आहत की भी सुध ले लो, जो आपके घायल होने से पहले ही अपनी धान की बोरियों के बंटाधार से आहत हो गया।
और सबके पास तो बोरियां नहीं हैं। उनकी छत की टीन भी न जाने कब उखड़ गई। अब इस धान को खरीदने कंजी आंखों वाला अधिकारी आएगा। उसके पीछे-पीछे खड़ी फसल का अगाऊ मूल्य चुकाने वाला दलाल आएगा, आढ़तिया मूंछ उमेठेगा, और आरज़ी को बीच-बीच में एकाध झपकी लेने की सुविधा हो जाती है।
लेकिन झपकियां तो मंचों तक सीमित कर दो, क्योंकि लगता है, हर नेता ने अपने प्रेरक सम्बोधनों के लिए भूत लेखक किराये पर रख लिये हैं। देसी फिल्मों के घिसे-पिटे संवाद जब वे बार-बार मंच से सुनाते हैं, तो किराये की भीड़ सोचती है, यार किराया लेकर तो चले आये, लेकिन कहीं बैठे-बैठे सोने का गुर भी आता। लेकिन बीच-बीच में आदेश जो आ जाता है, ‘तालियां बजाओ भय्या!’
लेकिन देश तरक्की कर गया है। अब केवल तालियां बजाने से ही काम नहीं चलता। यह उत्सव प्रेमी देश है, हर सफलता की सच्ची-झूठी बात पर शोभायात्रा निकलती है, उसके आगे पीछे नाचने वाले नर्तक भी चाहिएं। अब तो कुछ बाऊंसरों की भी ज़रूरत पड़ने लगी है, जो असंतुष्टों की द्यिद्यियाती भीड़ को दूर से ही धकिया सकें, और फिर नेता जी को अपने बलिष्ठ कंधों पर उठा कर नाचते हुए सड़क किनारे खड़े दर्शकों में दुर्घटनाओं की सम्भावनाएं पैदा करते जाएं।
हां जी, देश तरक्की कर रहा है, अभूतपूर्व तरक्की कर रहा है। बारिश आती है तो बरसों के रिकार्ड तोड़ देती है। फिर अचानक लौट कर और तबाही पैदा करने का भी रिकार्ड पैदा करने की एक और खनक दे जाती है।
उधर देखो कुछ और रिकार्ड बन गये। अपना देश दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया, लेकिन इलाकावादी जनता कहती है, हम अधिक पढ़ लिख गये। इसलिए हमारे यहां वोटरों की संख्या कम हो गई। अब जिन्होंने भरपूर बच्चे पैदा कर दिये, वे तो संसद और विधानसभा में अधिक सीटें ले जाएंगे। अधिक विजय प्राप्त करेंगे। चिन्ता करो, अब ‘हम दो हमारे दो’ का नारा बदलो। नया नारा बनाओ ‘हम तीन खुशी की बजायें बीन।’ लेकिन इतनी जल्दी भी नहीं है। अभी तो हमारी विधानसभाएं और संसद करोड़पति और द़ागी नेताओं से भरे हुए हैं। अधिक बच्चे पैदा करोगे, तो फिलहाल वे हमारा जयघोष ही करेंगे। चलो इनकी भी संख्या बढ़ने दो। शरणार्थी कैंपों की ओर जाते हुए क्लांत धरती के बेटे यह भी न कहे सकेंगे, ‘आ अब लौट चलें।’लौटने की आवाज़ अब सुन्दर नायिकायें नहीं, या आपके प्रिय आदर्श नहीं देते, बल्कि वह नई दुनिया के चतुर बेटे देते हैं, जो किसी तरह से किसी ग्रांट या दान का जुगाड़ कर आये हैं, और अब आपके साथ मिल कर उसे बांट लेना चाहते हैं। आधार अपनी ऊंची अटारी की बारिश से रंग उतरी पुताई के लिये और आधा खेतों से उठा इस पर बिछ गई रेत को उठाने के लिए।
देखो, विदा होता सावन फिर बाढ़ बनकर लौट आया। बांधों के द्वार भी उसकी आमद की आशंका के लिए फिर खोले जाने लगे। अब और मलबा बिछेगा, और रेत पीछे से आकर बिछेगी। काम बढ़ गया। तेज़ी से करना है बन्धु! हमारा हिस्सा कुछ बढ़ाओ। तभी गेहूं की बिजाई होगी। खेतों में खड़ी पराली भी तो जलानी है। इस बार तो पराली जलाने पर केवल जुर्माना नहीं, जेल भेजने की धमकी भी मिल गई। उससे बचाने के लिए गांव के मीर मुंशियों ने अपने दाम भी बढ़ा दिये हैं। बन्धु आपदा बढ़ती है, तो अगर हज़ारों चेहरे उतरते हैं, तो कुछ आपके डूबती नय्या के खवैया अट्टहास भी लगाते हैं। उनका अट्टहास जितना ऊंचा होता है, उतना ही आपके इलाके में हास्य रस की उत्पत्ति होती है। तभी तो आपके इलाके में संगीत की तरक्की के नाम पर सदन की जगह स्टैंड-अप कामेडी ने ले ली। अरे बंधु आजकल तो मुशायरा में भी गली छाप लतीफे सुनाने वाले महाकवि बन गए। पूछो तो कोई भी अपने आपको काका हाथरसी से नीचे नहीं मानता। अब तो उससे मिलते-जुलते नाम भी लोगों ने रखने शुरू कर दिये हैं। इधर देखता हूं मुशायरों की तज़र् पर कवि-सम्मेलनों ने भी तरक्की कर ली है। हर असफल गायक कवि हो गया है। गला साफ करते हुए उसका आलाप जब लम्बा होता जाता है, और कथ्य घिसी पिटी राहों पर चल देता है, तो श्रोताओं को आकाश फटने जैसी आवाज़ें सुनाई देने लगती हैं।