बिहार विधानसभा चुनाव-2025 -जाति जनगणना के बाद चुनाव कितना जातिवादी होगा ?

बिहार की 243 विधानसभा सीटों के लिए दो चरणों में मतदान होगा। पहले चरण में 6 नवम्बर 2025 को 122 सीटों के लिए मतदान होगा जबकि 11 नवम्बर 2025 को दूसरे चरण में 121 सीटों के लिए मतदान होगा और मतगणना 14 नवम्बर 2025 को होगी। मतगणना से मालूम होगा कि राज्य में नितीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए (जद-यू व भाजपा) की सरकार बरकरार रहेगी या तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन (राजद, कांग्रेस व भाकपा-एमएल) की चुनौती को सफलता मिलेगी। वैसे प्रशांत किशोर व असदुद्दीन ओवैसी की पार्टियां भी निर्णय को प्रभावित कर सकती हैं। इसके पक्ष में, फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी। चिराग पासवान आदि की भूमिकाओं को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। बिहार में चुनावी परम्परा हमेशा ही जाति-आधारित रही है और यह चुनाव जाति जनगणना के बाद पहली बार कराया जा रहा है, इसलिए अनुमान यही है कि यह चुनाव भी इस परम्परा का अपवाद न होगा। 
चुनावी दिन हर राज्य के लिए महत्वपूर्ण होते हैं, लेकिन दक्षिण एशिया के सबसे गरीब क्षेत्र बिहार में इनका महत्व आवश्यकता से अधिक है। उसके 7.4 करोड़ मतदाता न सिर्फ यह तय करेंगे कि अगले पांच वर्ष तक उनके ऊपर कौन शासन करता है बल्कि यह भी कि बिहार प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से सबसे निचले पायदान से ऊपर उठता है या नहीं। जहां वह दशकों से पड़ा हुआ है। यह बिहार के मतदाताओं को श्रेय दिया जाना चाहिए कि अनेक रईस राज्यों की तरह वह भावनात्मक मुद्दों से प्रभावित नहीं होते हैं। कोविड लॉकडाउन के साये में हुए 2020 के विधानसभा चुनाव में मुख्य मुद्दे बेरोज़गारी व पलायन, बाढ़ का कहर और भ्रष्टाचार थे। इस मामले में बिहार के मतदाता काफी कट्टर व मुखर हैं, लेकिन अफसोस जब मतदान की बात आती है तो काफी आलसी भी हैं। मसलन, 1990 के दशक में अच्छा मतदान करने के बाद 2005 में काफी कम मतदान हुआ और पिछले दो चुनावों में मतदान प्रतिशत 57 के आसपास ही घूमता रहा है।  उम्मीद की जाती है कि यह राजनीतिक पार्टियों के प्रति उदासीनता के कारण नहीं है। सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से बिहार इतने लम्बे समय से पिछड़ा हुआ है कि कुछ मतदाताओं ने परिवर्तन की उम्मीद ही छोड़ दी है। बिहार को बेहतर बनाने के लिए बहुत अधिक बदलावों व सुधारों की ज़रूरत है। बात चाहे बाल कुपोषण की हो या स्कूली प्रवेश, साक्षरता दर, बाल मृत्यु दर, पीने के स्वच्छ पानी की उपलब्धता, स्वच्छता व बिजली की- बिहार हर मामले में शेष देश से बहुत पीछे है। आय में अंतर तो दिल दहला देता है। बिहार का औसत नागरिक औसत भारतीय की तुलना में एक-तिहाई से भी कम कमाता है- 2014 में रूपये के मूल्य के हिसाब से यह 2023-24 में 32,227 रूपये बनाम 1,14,710 रूपये था। लेकिन राष्ट्रीय औसत बड़े राज्यों में उच्च आय को छुपा देता है, जैसे कर्नाटक (1.9 लाख रूपये) और तमिलनाडु (1.8 लाख रूपये)। 
यह अन्य राज्यों की तरक्की और बिहार के पतन की कहानी है। 1960 के दशक में बिहार की अर्थव्यवस्था, अन्य भारतीय राज्यों में 5वें स्थान पर थी, गुजरात व कर्नाटक से भी आगे। उसकी प्रति व्यक्ति आय उस समय भी राष्ट्रीय औसत से कम ही थी, लेकिन 70 प्रतिशत पर थी, जबकि आज 28 प्रतिशत पर है। बिहार के मतदाताओं को चाहिए कि वह अगले माह अपने मतप्रयोग से इस पतन पर विराम लगायें। ऐतिहासिक गलतियों पर आरोप लगाने से कोई फायदा नहीं है- 230 साल पहले ब्रिटिश की स्थायी रिहाइश और भाड़े में समता की नीति ने स्वतंत्रता के बाद औद्योगीकरण के लिए बिहार के प्राकृतिक लाभ पर विराम लगा दिया था। आज कोई भी राज्य जिसके इरादे पुख्ता हों, 10-15 साल में तस्वीर बदल सकता है, जैसा कि ओडिशा ने प्रदर्शित किया है। बिहार के अपने संकेत ऊपर की तरफ गये हैं, लेकिन विकास को गियर बदलने की ज़रूरत है। आगामी चुनाव इसी विषय पर होने चाहिएं। लेकिन क्या होंगे? मुश्किल है। 
दरअसल, डाटा से मालूम होता है कि विधायकों की दिलचस्पी कानून-साज़ी में नहीं है कि बिहार का विकास हो सके बल्कि उनकी चिंता तो मलाईदार पद हासिल करने में है। मसलन, राज्य का वर्तमान बजट 3 लाख करोड़ रूपये से थोड़ा सा ऊपर है और खर्च 40 से अधिक विभागों में फैला हुआ है। वर्ष 2024 में बिहार विधानसभा ने बजट पर एक सप्ताह बहस की। यह समय उस साल अन्य राज्यों जैसे केरल, ओडिशा, गुजरात व राजस्थान की तुलना में बहुत कम था। बजट पर हुई कम समय के लिए चर्चा ने विधायकों को अवसर ही नहीं दिया कि वह राज्य के आर्थिक स्वास्थ्य को संबोधित करें और भविष्य की वरीयताएं तय करें। विधायक राज्य सरकार की पब्लिक फंड्स आवंटन में जवाबदेही भी निर्धारित न कर सके। 
विधानसभा में जब ढंग से चर्चा ही नहीं होगी तो मज़बूत कानून, जो जनता के हित में हों, का गठन कैसे हो पायेगा? अपने पांच साल के कार्यकाल में नितीश की सरकार ने परीक्षाओं में नकल, समाज-विरोधी तत्वों का नियंत्रण, शराबबंदी कानून में संशोधन, एक्सेस टू सीसीटीवी फुटेज और गिग वर्कर्स के लिए सामाजिक सुरक्षा आदि पर चर्चा की। इन विषयों का जनता के जीवन पर गहरा असर पड़ता है। बेहतर तो यही था कि विधानसभा को यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि इन विषयों के हर पहलू पर कमेटी या प्रोसीडिंग्स में बहस होनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। विधानसभा ने इन सभी कानूनों को उसी दिन पारित कर दिया जिस दिन राज्य सरकार ने इन्हें पेश किया था। लोकतंत्र का आधार यह है कि फ्री एंड फेयर चुनाव हों और जनता का अपने विधायकों में विश्वास हो। जनता जो अपने प्रतिनिधियों को ज़िम्मेदारी देती है वह पवित्र है। वह अपने विधायकों पर विश्वास करते हैं कि प्रत्येक मतदाता की ज़रूरतों का ख्याल रखा जायेगा। बिहार विधानसभा के प्रवेशद्वार पर एक चिन्ह है जिसमें गांधीजी की सात बातें लिखी हुई हैं। इनमें से एक यह है कि बिना सिद्धांत की राजनीति पाप है। यह विरोधाभास अपने आपमें बहुत कुछ कह रहा है। क्या यह नीति है कि जनता को लुभाने के लिए मुफ्त की रेवड़ियां बांट दी जायें- महिलाओं को 10,000 रूपये और 5 लाख बेरोज़गारों को 1,000 रूपये। इससे क्या उनकी समस्याओं का समाधान हो जायेगा? नहीं। राज्य की तरक्की के लिए ठोस आर्थिक व सामाजिक नीतियों की ज़रूरत होती है, मां को गाली, घुसपैठिया आदि बासी पड़ गये बेकार के नारे हैं, जिन पर बिहार के मतदाता अपने मत का प्रयोग नहीं करने के क्योंकि वह भावनाओं में नहीं बहते हैं। बहरहाल, बिहार से जो फिलहाल संकेत मिल रहे हैं उनसे मालूम होता है कि मतदाता अपनी वफादारी बदलेंगे और छोटी पार्टियां जो वोट काटती हैं, वह नतीजे को प्रभावित कर सकती हैं। इसलिए चिराग पासवान, जीतनराम मांझी, प्रशांत किशोर, असदुद्दीन ओवैसी व पप्पू यादव का महत्व बढ़ गया है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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