क़फ सिरप से हुई मौतों का हाहाकार
मध्य प्रदेश और राजस्थान में खांसी की दवा एक सिरप को पीने से लगभग 16 बच्चों के मारे जाने की घटना ने नि:संदेह पूरे देश को दहला कर रख दिया है। खांसी के प्रभाव से ग्रस्त बच्चों को देश के विभिन्न राज्यों में मुफ्त दी जाने वाली इस दवा के सेवन से राजस्थान में तीन और मध्य प्रदेश में तेरह बच्चों के मरने और दो दर्जन से अधिक बच्चों के प्रभावित होने की सूचना है। इस मामले की दूषित हवा अब इन दो राज्यों की सीमाओं से निकल कर पूरे देश की फिज़ाओं में घुल गई प्रतीत होती है। तथापि, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, राजधानी दिल्ली, पंजाब, झारखंड, प. बंगाल, छत्तीसगढ़, तमिलनाडू और केरल में भी इस क़फ-सिरप को लेकर सरकारें एक्शन मोड में आ गई हैं, और पूरे देश में इस संबंध में कोई एक संयुक्त निर्णय लेने की कोशिश की जा रही है। तात्कालिक निर्णय के तौर पर इस सिरप को बनाने वाली कम्पनी की सभी दवाओं पर तत्काल रोक लगा दी गई है, और कम्पनी के विरुद्ध केस भी दर्ज कर लिया गया है। इस घटना का एक प्रभाव यह भी हुआ है कि खांसी के लिए प्रयुक्त होने वाले सभी प्रकार के क़फ सिरप संदेह के दायरे में आ गये हैं। कई राज्यों की सरकारों ने इसीलिए देश भर में दो वर्ष के बच्चों के लिए खांसी के उपचार हेतु कोई भी क़फ सिरप न दिये जाने हेतु सिफारिश जारी की है। पंजाब सरकार ने भी इस कम्पनी के सिरप पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। इस मामले को लेकर अभी तक जितनी भी जांच रिपोर्ट सामने आई हैं, उनके अनुसार सरकारी अस्पतालों और सरकार के वित-पोषित दवाखानों में इस क़फ-सिरप और अन्य कई प्रकार की मुफ्त दी जाने वाली दवाओं को लेकर बड़े स्तर पर लापरवाही और ़गैर-ज़िम्मेदाराना रवैया सामने आया है। बेशक अब कुछ ज़िम्मेदार लोग भी जगे हैं, किन्तु नुक्सान जो होना था, वह तो हो चुका है।
बेशक इस घटना की चर्चा व्यापक रूप से देश भर में हो जाने से एक ओर जहां कई प्रकार की जांच समितियां बना दिये जाने का दावा किया गया है, वहीं कुछ अधिकारियों को निलम्बित किये जाने की भी सूचना है, किन्तु अब तक की ऐसी घटनाओं के बारे में इतिहास की खोज करें तो ऐसे निलम्बन महज खाना-पूर्ति ही होते हैं। थोड़ी देर के शोर-गुल और पीड़ितों को मुआविज़ा मिल जाने पर उनके अति सक्रिय न रहने पर प्राय: ऐसे मामले अपने आप ठप्प होकर रह जाते हैं, किन्तु पीछे छूट गए कदमों के निशान प्रशासनिक तंत्र की लापरवाही की ओर अवश्य यदा-कदा संकेत करते रहते हैं। इस मामले में भी नीचे से लेकर ऊपर तक कोई भी अधिकारी/कर्मचारी इस तथ्य की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार नहीं कि इतनी गम्भीर समस्या वाली दवा अस्पतालों में कैसे पहुंची, और मरीज़ों खास तौर पर प्रभावित बच्चों को यह कैसे और क्यों उपलब्ध कराई गई। मौजूदा मामले में राजस्थान के एक औषधि नियंत्रक ने तो अपने निलम्बन से पूर्व यहां तक कह दिया था कि बच्चों को दिया गया सिरप नकली कदापि नहीं है।
देश में घटित यह कोई पहली ऐसी घटना नहीं है जिसने मुफ्त में दी गई दवाओं के कारण इतने बड़े स्तर पर जानें ली हैं। सरकारी अस्पतालों में अन्य कई प्रकार की लापरवाहियों के कारण भी मरीज़ों और खासकर बच्चों की मृत्यु होने के समाचार मिलते रहे हैं। सरकारी अस्पतालों और दवाखानों की दुर्दशा किसी से कभी छिपी नहीं रही है—न जन-साधारण से, न सरकारी डाक्टरों से और न स्वयं सरकारी एजेंसियों से। अभी एक दिन पूर्व ही जयपुर के सरकारी अस्पताल में आग लगने और दम घुटने से 86 मरीज़ों के मारे जाने की सूचना है। इसके बावजूद आज तक किसी भी पक्ष के कानों पर कभी जूं तक नहीं रेंगी। आम लोगों को किसी भी दवा के बारे में कोई जानकारी हासिल करने की कभी सुविधा दी ही नहीं जाती। अक्सर सरकारी तौर पर दी जाने वाली दवाएं एक्सपायरी तिथि लांघ चुकी होती हैं। सरकारी दवाखानों में भारी भीड़ होने के कारण लोग जल्दबाज़ी में जो भी दवा मिले, उसे खा-पी लेते हैं।
हम समझते हैं कि सरकारों को सरकारी अस्पतालों में दी जाने वाली दवाओं हेतु कड़े नियम एवं मानक तैयार करने चाहिएं। क़फ सिरप तो पहले भी कई बार घातक सिद्ध होते रहे हैं। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि इनमें अफीम जैसे मादक पदार्थ होते हैं। सम्भवत: इसीलिए दो वर्ष तक के बच्चों को क़फ सिरप न दिये जाने की सिफारिश की जाती है। नि:संदेह इस घटना ने विदेशों खासकर पड़ोसी देशों में देश की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाया है, और देश के दवा उद्योग को बदनाम किया है। वर्ष 2022 में भी भारतीय दवा से उज़्बेकिस्तान और जाम्बिया में मौतें हुई थीं। हम समझते हैं कि मानव के रूप में ऐसी काली भेड़ों की शिनाख्त कर उन्हें बाड़े में बंद किया जाना चाहिए और तय किये गये औषधि मानकों एवं कानूनों का पूरी ज़िम्मेदारी और दृढ़ता से पालन किया जाना चाहिए। कुछ इसी प्रकार की प्रक्रिया को अपना कर ही देश में इस प्रकार की अमानवीय और ़गैर-कानूनी घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सकता है।