बैंकों के ज़रिये लूटा जा रहा है लोगों का पैसा
भले ही भारत की अर्थव्यवस्था आज दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई हो, लेकिन इसका असर आम लोगों के जीवन स्तर पर साफ दिखाई नहीं देता। जिन कॉर्पोरेट घरानों को वर्षों से अत्यधिक सक्षम और राष्ट्र हितैषी बता कर प्रस्तुत किया जाता रहा है, उनकी वास्तविकता अंतरर्राष्ट्रीय बाज़ार में तुरंत उजागर हो जाती है। इसका उदाहरण तब सामने आया जब ट्रम्प प्रशासन ने 25 प्रतिशत टैरिफ लगाने की घोषणा की। इस घोषणा के तुरंत बाद हमारे निर्यातकों ने चिंता जताई कि अब उनका अस्तित्व संकट में है। दबाव बढ़ते ही केंद्र सरकार ने आश्वासन दिया कि घाटे की भरपाई वह करेगी। कॉर्पोरेट्स की रक्षा हेतु केंद्र सरकार ने हाल ही में नई योजनाएं लागू की हैं। इन योजनाओं को चार हिस्सों में बांटा गया है ताकि टैरिफ का बोझ कम किया जा सके। इसके अंतर्गत तीन ट्रिलियन की इमरजेंसी एक्सपोर्ट क्रेडिट लाइन स्कीम लाई गई है जिसके तहत कार्यशील पूंजी 100 प्रतिशत सिक्योरिटी फ्री ( कौलेट्रल फ्री) प्रदान की जाएगी। इसके अतिरिक्त 20,000 करोड़ रुपये सबोर्डिनेट कज़र् के रूप में रखे गए हैं। अधीनस्थ ऋण वह होता है जिसके लिए कोई सुरक्षा नहीं दी जाती। इससे बैंकों का जोखिम और बढ़ जाता है।
इसी तरह 4,000 करोड़ रुपये सूक्ष्म और लघु उद्योगों के लिए क्रेडिट गारंटी योजना में रखे गए हैं। इस योजना के तहत कोई भी उद्यमी अपनी 15 प्रतिशत हिस्सेदारी के आधार पर अधिकतम 75 लाख रुपये तक ले सकता है। इसके अलावा 10,000 करोड़ रुपये का कॉर्पस फंड बनाया गया है जिससे एमएसएमई को सस्ता ऋण उपलब्ध कराया जाएगा।
अब प्रश्न यह उठता है कि इस बिना सुरक्षा वाले ऋण की ज़िम्मेदारी कौन उठाएगा? इसका उत्तर है—सरकार। यदि उद्योगपति ऋण न लौटाएं तो भरपाई सरकार करेगी। यही स्थिति पिछले दस वर्षों में भी देखने को मिली है, जब 16.32 लाख करोड़ रुपये उद्योगपतियों के राइट आफ में डाले गए। सरकार का तर्क है कि इन्हें माफ नहीं किया गया, केवल खातों से हटाया गया है, परन्तु आंकड़े बताते हैं कि इसकी वास्तविक रिकवरी महज 10-13 प्रतिशत ही हुई है।सीधा सवाल है—यदि पैसा वापस नहीं आता तो किसका नुकसान है? बैंकों का, सरकार का या जनता का? वास्तव में इस नुकसान की भरपाई सरकार करती है और सरकार का धन आखिरकार करदाताओं की जेब से ही आता है। आम नागरिक के खाते में जमा धन की सुरक्षा की गारंटी अधिकतम पांच लाख रुपये तक ही सीमित है। इसलिए नुकसान सीधे-सीधे जनता पर ही पड़ता है।
सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि बैंकों का अधिकांश डूबा पैसा उन विलफुल डिफाल्टर्स का है, जिनके पास क्षमता होते हुए भी वे ऋण नहीं लौटाते। दिसम्बर 2024 तक की सूची में अकेले पंजाब नेशनल बैंक में लगभग 92,000 करोड़ रुपये के विलफुल डिफाल्ट दर्ज हैं जिनमें कई बड़ी कम्पनियां शामिल हैं।
भारत के दस प्रमुख बैंकों में विलफुल डिफाल्ट की स्थिति इस प्रकार है (राशि करोड़ रुपये में):
1. पंजाब नेशनल बैंक 92,981.98
2. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया 85,806.43
3. यूनियन बैंक ऑफ इंडिया 45,386.01
4. कोटक महिंद्रा बैंक 33,321.21
5. केनरा बैंक 31,307.70
6. बैंक ऑफ बड़ौदा 27,956.96
7. आईडीबीआई बैंक 27,335.11
8. सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया 25,384.35
9. बैंक ऑफ इंडिया 21,926.88
10. नेशनल एसेट रिकंस्ट्रक्शन
कंपनी लिमिटेड 10,404.26
यह हाल केवल इन बैंकों का ही नहीं, लगभग हर बैंक में यही स्थिति है। विडम्बना यह है कि यदि किसान, छोटे व्यापारी या नौकरीपेशा मज़दूर ऋण नहीं चुका पाते तो उनकी सम्पत्ति ज़ब्त कर ली जाती है, यहां तक कि उन्हें जेल तक में भेज दिया जाता है। यह वे लोग होते हैं जो प्राकृतिक आपदा जैसी परिस्थितियों के कारण असमर्थ हो जाते हैं। पंजाब में हालिया बाढ़ इसका उदाहरण है। यद्यपि सरकार ने छह महीने का मोरेटोरियम घोषित किया है, परन्तु छह माह बाद ब्याज और किस्त फिर से लागू हो जाएगी। प्रश्न यह है कि जिनके घर बह गए, वे घर बनाएंगे या ऋण चुकाएंगे?
बाढ़ पीड़ितों के लिए न तो कोई ऋण-माफी की घोषणा हुई और न ही कर्ज की अवधि को चार-पांच वर्ष आगे बढ़ाने की बात हुई। दूसरी ओर, बैंकों को राहत पहुंचाने हेतु नेशनल एसेट री-कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड (एनएआरसीएल) या ‘बैड बैंक’ की स्थापना की गई। इसका काम है बैंकों से फंसे एनपीए खरीदना और उनकी वसूली करना, लेकिन यह कम्पनी भी अधिकतम 20 प्रतिशत बुक वैल्यू पर ही संपत्ति खरीदती है। यदि किसी एसेट की कीमत 10,000 करोड़ हैए तो एनएआरसीएल केवल 2,000 करोड़ का भुगतान करती है, जिसमें भी 500 करोड़ तुरंत और 1,500 करोड़ सरकार की बॉन्ड गारंटी से आते हैं। यदि एसेट केवल 1,500 करोड़ में बिकता है, तो शेष 500 करोड़ की भरपाई सरकार करती है। नतीजा-नुकसान फिर जनता के हिस्से आता है।
आवश्यक है कि नियम सख्त किए जाएं। यदि कोई व्यक्ति विलफुल डिफाल्टर घोषित होता है तो उसे और उससे जुड़ी कम्पनियों को दोबारा ऋण न मिले। उस पर आपराधिक मामला दर्ज हो और आवश्यक होने पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) भी लगाया जाए। ऐसे लोग देश की पूंजी का दुरुपयोग करके देशद्रोह का कार्य कर रहे हैं।
इसके अतिरिक्त जब भी सरकार कोलेटरल फ्री लोन या रियायती ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराए तो उस पर कुछ शर्तें अनिवार्य हों। जैसे यह धन भारत में ही निवेश किया जाए, न कि विदेशों में। कोरोना काल में कई कॉर्पोरेट्स ने यही किया। भारत से सस्ता ऋण लेकर विदेशों में निवेश किया। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2025-26 में लगभग 3,500 हाई नेटवर्थ इंडिविजुअल्स भारत छोड़ देंगे।
आज स्थिति यह है कि सरकार जीडीपी बढ़ाने के नाम पर ऋण वितरण की रेवड़ियां बांट रही है। कानून-व्यवस्था कमज़ोर होने और प्रक्रिया लम्बी खिंचने के कारण बड़े उद्योगपति ऋण लौटाने से नहीं डरते। इसका सीधा खमियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। रुपया लगातार कमज़ोर हो रहा है, महंगाई बढ़ रही है।
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